"सत्ता परिवर्तन और व्यवस्था परिवर्तन में अंतर है
राजनीति शाशन तंत्र की प्राप्ति का एक साधन है, उसकी भूमिका मात्र एक संसाधन की है ; सत्ता तंत्र में वह सामर्थ है की वह व्यवस्था बदल सके और इसीलिए जनतंत्र में सर्वाधिक महत्व जनता और जनता की जागृति का है; फिर चाहे सरकार में पदस्थापित व्यक्ति हो या राजनैतिक दल का कार्यकर्त्ता, है तो जनता ही न;
एक उत्प्रेरक कभी प्रक्रिया का परिणाम नहीं होता, हाँ, परिणाम में निर्णायक अवश्य होता है; भविष्य के उत्थान के लिए वर्त्तमान जिस क्रांति की प्रक्रिया को जी रहा है उसमे राजनीतिक दल के रूप में किसी नए व् प्रभावी दल की भूमिका राजनैतिक सुचिता की स्थापना में एक उत्प्रेरक की हो सकती है , वो परिणाम नहीं !
व्यवस्था परिवर्तन में समाज की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है अतः इसके लिए समाज के अंदर तक पहुँच चुके किसी सामजिक संगठन की भी आवश्यकता होगी; संघ के 90 बरस की तपस्या का यही तो प्रारब्ध होगा जब वह समाज और शाशन तंत्र के बीच सेतु का काम करे; जब तक समुद्र पर सेतु नहीं बनेगा , रावण दहन कैसे होगा ?
अब इन बिन्दुओं को उलटे क्रमांक में देखें तो पठकथा और स्पष्ट होगी ;
एक सामाजिक संगठन को शाशन तंत्र वापस जनता तक पहुँचाने के लिए राजनैतिक दल की आवश्यकता थी, इसलिए संघ ने संभवतः इस राष्ट्र की वास्तविक विचारधारा पर आधारित एक राजनीतिक दल को जन्म दिया जिनके अस्तित्व का प्रयोजन इसी व्यवस्था परिवर्तन की प्रक्रिया में एक संसाधन की भूमिका निभाना था ;
आज जब वह दल अपने आप को शाशन तंत्र में पूर्ण बहुमत से स्थापित कर चुकी है तो जैसे अपनी विचारधारा ही नहीं बल्कि अपनी प्राथमिकताएं ही भूल गयी, ऐसे में भला उसकी उपयोगिता कैसे सिद्ध होगी ; यह परिस्थिति बिल्कुल वैसी ही प्रतीत होती है मानो सुग्रीव जैसे किष्किन्धा का राजा बनते ही राम के प्रति अपने वचन को भूल गया हो ;
वर्त्तमान की परिस्थितियों में यह आवश्यक हो गया है की स्वयंसेवकों का समर्पण विचारधारा के प्रति हो और सत्ता की आकांक्षा से प्रेरित ऐसे किसी भी राजनीतिक प्रयास का वो विरोध करें जो राष्ट्र और समाज की एकता, अखंडता और सौहार्द को खंडित करता है; फिर प्रयास करने वाला चाहे जो हो।
समय की आवश्यकता ही परिवर्तन के माध्यम से नए को जन्म देती है और जिसकी संवेदनाएं इतनी क्षीण हो जाए जो समय की आवश्यकताओं को महसूस ना करे उसका नाश अवश्यम्भावी है ; यही प्रकृति का नियम है और मृत्यु का कारण भी; आवश्यकताओं की तीव्रता अपना विकल्प तैयार कर लेती है; ऐसे में देखना यह है की क्या सत्ता के मद और आत्मुघ्धता की पराकष्ठा में लीन राजनीतिक दल अपनी गलतियों को स्वीकार कर सुधरने का प्रयास करेगी या फिर अपने निर्णय व कर्म की दिशा से नए विकल्प को राष्ट्रीय राजनीति में और महत्वपूर्ण बना देगी ;
किसी भी परिस्थिति के सन्दर्भ में व्यक्ति का प्रतिउत्तर व्यक्तिगत विवेक का परिचायक होता है, इसलिए वर्त्तमान की परिस्थितियों के सन्दर्भ में भी निर्णय व्यक्तिगत ही होना चाहिए;
मैंने अपना प्रयास पूरी निष्ठां से किया, परिणाम का निर्णय समय पर छोड़ता हूँ! व्यक्तिगत निर्णय ही व्यक्ति की नियति निर्धारित करेगा, यही सिद्धांत सामाजिक व् राष्ट्रीय परिदृश्य में भी मान्य है; अतः अपने स्तर पर राष्ट्रहित के पक्ष में निर्णय करें और भारत के भाग्य विधाता बनें !"
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