वो एक दिन जंगलों में निकला, उसने देखा कि वहां के पेड़-पौधे हरे-भरे और घने थे। उनकी शाखाओं पर फल और फूल लगे थे। ये देख उसके मन में एक विचार कौंधा। उस विचार की परणति लाखों लोगों के खेतों में जान ला देगी, तब उसने सोचा भी नहीं था। हां, एक प्रयास जरूर किया। प्रयास थमा नहीं। लंबा अनुसंधान चला। आखिरकार उसने वन वनस्पतियों की तरह ही बिना खाद-पानी और कीटनाशकों के खेतों में फसल उगाने का फॉर्मूला खोज निकाला। उसके फॉर्मूले से देश के करीब 40 लाख किसान लाभान्वित हो रहे हैं। वे अपने खेतों को रासायनिक खाद और कीटनाशकों के जहर से बचा रहे हैं। आप भी ये सब कर सकते हैं। बस थोड़ा सी अक्लमंदी और थोड़ी सी सजगता की जरूरत है। महाराष्ट्र के बेलोरा गांव के मूल निवासी सुभाष पालेकर को ‘कृषि का ऋषि’ कहा जाता है। ये तमगा हमने नहीं, देश में खेती-किसानी के लिए काम कर रही तमाम संस्थाओं ने दिया है। 67 वर्षीय पालेकर को कृषि क्षेत्र में किए गए उत्कृष्ट कार्यों के लिए भारत सरकार ने हाल ही में पद्म श्री पुरस्कार से भी सम्मानित किया है। इस सम्मान के पीछे सबसे बड़ी वजह है उनका फॉर्मूला। ये फॉर्मूला है ‘जीरो बजट नैचुरल फार्मिंग’ का।
पालेकर एग्रीकल्चर से बीएससी है। स्नातक की पढ़ाई करने के बाद साल 1972 में पालेकर जब अपने गृहनगर लौटे तो उनके पास कृषि क्षेत्र को देने के लिए काफी कुछ था। उन्होंने अपने पिता को आधुनिक तरीके से की जाने वाली खेती के बारे में बताया। उन्होंने पिता से कहा कि वे खेतों में कीटनाशकों और रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल करें। ऐसी करने से उनकी फसल की पैदावार में जबरदस्त इजाफा हुआ जो बीते दस वर्षों से ज्यादा थालेकिन साल 1985 आने तक पालेकर ने गौर किया कि खेती में पैदावार कम होने लगी थी। खेतों की हालत बिगड़ती जा रही थी। अचानक हुए इस बदलाव ने पालेकर को सोचने पर मजबूर कर दिया। तीन साल की रिसर्च के बाद पालेकर को पता चला कि कम होती फसल की असली वजह रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक ही थे। पालेकर ने शोध में पाया कि रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक मिट्टी की उपजाऊ क्षमता को नुकसान पहुंचा रहे थे।
वैज्ञानिक अनुसंधानों के मुताबिक पौधे डेढ़ से दो फीसदी पोषक तत्व मिट्टी से लेते हैं, जबकि 98 प्रतिशत पोषक तत्वों की पूर्ति हवा और पानी से हो जाती है। मिट्टी से मिलने वाले दो फीसदी पर लोग तमाम तरह के रासायनिक उर्वरक और कीटनाशकों का प्रयोग कर डालते हैं। इससे वातावरण को नुकसान तो पहुंचता ही है, उन उवर्रकों और कीटनाशकों के प्रयोग से उगाई गई चीजें (अनाज, फल और सब्जियां ) खाकर लोग बीमार पड़ते हैं सो अलग।
रासायनिक खादों और कीटनाशकों के प्रयोग से सामने आए परिणामों ने पालेकर को भारी सदमा दिया। उन्होंने सोच लिया कि चाहे कुछ भी हो जाए, देश के अन्नदाता और फसलों के लिए कुछ जरूर करेंगें। इसप्रकार उन्होंने शुरू की जीरो बजट नैचुरल फार्मिंग मुहिम।
साल 1986 से 1989 तक पालेकर ने वन वनस्पति की पढ़ाई की। उन्होंने जंगलों की तरह प्रकृतिक फसल उगाने के लिए नैचुरल ईकोसिम्टम की खोज की। शुरूआत पालेकर ने अपने ही खेत से की। साल 1989 से लेकर 1985 तक जीरो बजट नैचुरल फार्मिंग के लिए पालेकर ने कई तकनीकी पर काम किया।
वैज्ञानिक अनुसंधानों के मुताबिक पौधे डेढ़ से दो फीसदी पोषक तत्व मिट्टी से लेते हैं, जबकि 98 प्रतिशत पोषक तत्वों की पूर्ति हवा और पानी से हो जाती है। मिट्टी से मिलने वाले दो फीसदी पर लोग तमाम तरह के रासायनिक उर्वरक और कीटनाशकों का प्रयोग कर डालते हैं। इससे वातावरण को नुकसान तो पहुंचता ही है, उन उवर्रकों और कीटनाशकों के प्रयोग से उगाई गई चीजें (अनाज, फल और सब्जियां ) खाकर लोग बीमार पड़ते हैं सो अलग।
रासायनिक खादों और कीटनाशकों के प्रयोग से सामने आए परिणामों ने पालेकर को भारी सदमा दिया। उन्होंने सोच लिया कि चाहे कुछ भी हो जाए, देश के अन्नदाता और फसलों के लिए कुछ जरूर करेंगें। इसप्रकार उन्होंने शुरू की जीरो बजट नैचुरल फार्मिंग मुहिम।
साल 1986 से 1989 तक पालेकर ने वन वनस्पति की पढ़ाई की। उन्होंने जंगलों की तरह प्रकृतिक फसल उगाने के लिए नैचुरल ईकोसिम्टम की खोज की। शुरूआत पालेकर ने अपने ही खेत से की। साल 1989 से लेकर 1985 तक जीरो बजट नैचुरल फार्मिंग के लिए पालेकर ने कई तकनीकी पर काम किया।
6 साल की रिसर्च के बाद पालेकर ने पाया कि देसी गायों के गोबर की खाद जर्सी या होल्स्टेन गाय के गोबर के मुकाबले बेहतर होती है। अगर किसी को गाय का गोबर नहीं मिल रहा है तो वो बैल या भैंस का गोबर इस्तेमाल कर सकते हैं।
काले रंग की कपिला गाय का गोबर और पेशाब मिले तो और भी बेहतर खाद तैयार होती है।
एक बात ध्यान देने वाली ये हैं कि गाय का गोबर जितना ताजा होगा उतना ठीक है और पेशाब जितनी पुरानी होगी उतनी अच्छी रहेगी।
एक एकड़ जमीन के लिए महीने में 10 किलोग्राम गोबर की खाद की जरूरत पड़ती है। जबकि एक दिन में एक गाय औसतन 11 किलोग्रम गोबर देती है। एक गाय से मिले गोबर से 30 एकड़ जमीन को उपजाऊ बनाया जा सकता है।
गाय का पेशाब, गुड़, खराब हुआ आटा गोबर की खाद को और अच्छा बना सकते हैं।
अक्सर गांवों में वे गायें उदासीनता की शिकार हो जाती हैं जो दूध कम देती हैं या नहीं देती हैं। याद रखिए ऐसी गायों का गोबर खेती के लिए सबसे अच्छी खाद साबित होता है। जो मिट्टी को पुर्नजीवित कर देता है।
6 साल की रिसर्च के बाद पालेकर ने पाया कि देसी गायों के गोबर की खाद जर्सी या होल्स्टेन गाय के गोबर के मुकाबले बेहतर होती है। अगर किसी को गाय का गोबर नहीं मिल रहा है तो वो बैल या भैंस का गोबर इस्तेमाल कर सकते हैं।
काले रंग की कपिला गाय का गोबर और पेशाब मिले तो और भी बेहतर खाद तैयार होती है।
एक बात ध्यान देने वाली ये हैं कि गाय का गोबर जितना ताजा होगा उतना ठीक है और पेशाब जितनी पुरानी होगी उतनी अच्छी रहेगी।
एक एकड़ जमीन के लिए महीने में 10 किलोग्राम गोबर की खाद की जरूरत पड़ती है। जबकि एक दिन में एक गाय औसतन 11 किलोग्रम गोबर देती है। एक गाय से मिले गोबर से 30 एकड़ जमीन को उपजाऊ बनाया जा सकता है।
गाय का पेशाब, गुड़, खराब हुआ आटा गोबर की खाद को और अच्छा बना सकते हैं।
अक्सर गांवों में वे गायें उदासीनता की शिकार हो जाती हैं जो दूध कम देती हैं या नहीं देती हैं। याद रखिए ऐसी गायों का गोबर खेती के लिए सबसे अच्छी खाद साबित होता है। जो मिट्टी को पुर्नजीवित कर देता है।
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