Monday 27 February 2017

" जीवन अपनी सुविधा और सरलता के लिए अगर व्यावहारिक जीवन में अपने नैतिक मूल्यों, आदर्शों और सिद्धांतों से समझौता करने के अभ्यस्त हो जाए तो ऐसी जीवन शैली को व्यवहारिकता के नाम पर सामाजिक स्वीकृति प्रदान करना समझ की ऐसी गलती होगी जो अंततः उसके पतन का कारन बनेगी,
ऐसे इसलिए क्योंकि समय की जिन आवश्यकताओं के माध्यम से मानवीय चेतना का विकास होना था अगर मानवीय समझ उन्हीं आवश्यकताओं को भय मानकर उनसे बचने का हर संभव प्रयास करता दिखे तो समय का संघर्ष केवल जीवन के पुर्सार्थ और आत्मबल के स्तर को ही अपने परिणाम के रूप में प्रतिबिंबित करेगा।
व्यावहारिक क्या होना चाहिए यह कोई मान्यता, परंपरा या प्रचलन नहीं बल्कि उस वर्तमान की वास्तविकता निर्धारित करती है जो उन परिस्थितियों को अपने यथार्थ में जीती है, ऐसे में, अगर व्यक्ति स्वेक्षा से परिस्थितियों द्वारा शाषित होने का निर्णय कर ले तो यह उसका व्यक्तिगत निर्णय हो सकता है पर आदर्श परिस्थितियों में व्यक्ति में इतना पुर्सार्थ और आत्मबल होना चाहिए जो वह परिस्थितियों अथवा घटनाओं द्वारा शाषित होने के बजाये उन्हें परिभाषित करने का सामर्थ रखे।
अगर व्यावहारिक वही विचार है जो हम सामाजिक जीवन में अपने आचरण द्वारा यथार्थ में रूपांतरित करते हैं, तो व्यावहारिक क्या होना चाहिए यह परिस्थितियां नहीं बल्कि हमारे आचरण निर्धारित करते हैं; ऐसे में, परिस्थितियों अथवा घटनाओं को दोष देना व्यर्थ होगा क्योंकि व्यावहारिक वही होगा जो हम तय करते हैं।
निष्कर्ष की दृष्टि से हमारे निर्णय का आधार क्या है यह अत्यंत महत्वपूर्ण है; अगर सही-गलत के बीच का अंतर स्पष्ट हो तो जीवन को कभी लाभ -हानि के गणित की भ्रान्ति महत्वपूर्ण हो ही नहीं सकती, और इसलिए अगर यह कहा जाए की जीवन के स्पष्टता का आभाव ही इस वर्त्तमान की समस्त समस्याओं का मूल है तो गलत न होगा।
किसी भी सिद्धांत को जटिल बनाकर उसे महत्वपूर्ण बनाने के प्रयास से अच्छा होगा की क्रमबद्ध शैली में उदाहरणों के साथ उसे सरलता से समझने और सुलझाने का प्रयास किया जाए; फिर जीवन के लिए विषय व्यवहारिकता ही क्यों न हो।
संवेदनाओं को समय की आवश्यकता महसूस करनी होगी, कल्पनाशक्ति को अपनी रचनात्मकता से परिस्थितियों के आधार पर सभी संभावित समाधान के विकल्प तलाशने होंगे और पुर्सार्थ को अपने प्रयोग के प्रयास से व्यावहारिक जीवन में नयी संभावनाओं को जन्म देना होगा। परिस्थितियों के परिवर्तन के प्रक्रिया में नए की जन्म की यही शैली रही है और आज इसी विचार को व्यव्हार में अनुवाद करने की आवश्यकता है। पर जब व्यक्ति व्यवहारिकता के बहाने इतना समझदार हो जाए की वह अनुकूलन के प्रभाव में परिस्थितियों के इतना अभ्यस्त और आदि हो जाए की उसे परिवर्तन की आवश्यकता ही महसूस न हो तब नयी संभावनाओं का जन्म स्वाभाविक ही समस्या बन जायेगी, यही तो आज हो रहा है,
ऐसे में, निर्णय हमें करना है की आखिर करना क्या है, ऐसे ही कुंठाग्रस्त रहना है या अपने उत्क्रांति का प्रयास करना है। जैसा निर्णय वैसी नियति।“

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