Tuesday, 14 November 2017

महाराज रणजीत सिंह जी और उनकी धर्मपरायणता
यह महाराजा रणजीत सिंह जी की सेना का ध्वज है। रक्त वर्ण के ध्वज के मध्य में अष्टभुजा जगदम्बा दुर्गा, बायें हनुमान जी और दायें कालभैरव विराज रहे हैं। पठानों की छाती फ़ोड़ कर अक्टूबर 1836 को ख़ैबर के जमरूद के किले पर यही पवित्र ध्वज फहराया गया था।
यह ध्वज कुछ समय पूर्व शायद सिदबी द्वारा लंदन में नीलाम किया गया था। अब किसी के व्यक्तिगत कलेक्शन का हिस्सा है।
ये स्थापित सत्य है, महराजा रणजीत सिह हिन्दू देवी देवताओं मे अगाध श्रद्धा रखते थे, अपनी वसीयत मे उन्होंने कोहिनूर हीरा जगन्नाथ मन्दिर मे चढाने की इच्छा जतायी थी
स्वर्ण मंदिर नाम है ..स्वर्ण गुरुद्वारा नहीं .... इसी में बहुत कुछ निहित है
1984 से पहले स्वर्ण मंदिर में भी दुर्गा जी की प्रतिमा रखी थी।
परिक्रमा में अनेकों देवी-देवताओं की प्रतिमाएं थीं। हरि मंदिर तब महंत सम्हालते थे मगर यह 70-80 वर्ष से अधिक पुरानी बात है
इससे दो बाते सामने आती एक माहारजा रणजीत सिंह जी सनातनी तो थे हि और अगर सिख थे तो तब तक सिख हिन्दु सनातन संसकृती को मानते थे ज़िस्से पता चलता है की सिख हिन्दु धर्म का हि एक पंथ है ज़िस्से खालिस्तानियो ने बिगाड दिया है
महाराजा रंजीत सिंह जी को सिख संगत सिख बताती हैं। सत्य यह है कि महाराजा रंजीत सिंह जी केवल सिखों के नहीं अपितु समस्त हिन्दू समाज के रक्षक थे। महाराजा रंजीत सिंह जी के झंडे में शूरता की प्रतीक चंडी देवी, बल और ब्रह्मचर्य के प्रतीक वीर हनुमान बजरंग बली और शत्रुओं को रुलाने वाले काल भैरव का चित्र अंकिता था। अफगानिस्तान के शासक शाहशुजा ने महाराजा रंजीत सिंह के समक्ष अपने राज्याधिकार को वापिस दिलाने की जब अपील की थी तब महाराजा रंजीत सिंह जी ने दो शर्तें उनके समक्ष रखी थी। पहली की वे अपने राज्य में गौहत्या पर प्रतिबन्ध लगाए। दूसरी की सोमनाथ मंदिर से लूटे गए विशालकाय कवाड़ वापिस किये जाये। रणजीत सिंह जी ने जहां अमृतसर के स्वर्ण मंदिर को स्वर्ण से मंडित किया था वहीं पूरी के जगन्नाथ मंदिर और बनारस के विश्वनाथ मंदिर को दान देकर अपने कर्त्तव्य का निर्वाहन भी किया था।
आज के अलगाववादी सिखों को उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए।

No comments:

Post a Comment