आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध को जीतने का पहला कदम...
एक बार प्रसिद्ध लेखक सलमान रुश्दी ने पूछा था, "जिस मजहबी विश्वास में मुसलमानों की इतनी श्रद्धा है, उसमें ऐसा क्या है जो सब जगह इतनी बड़ी संख्या में हिंसक प्रवृत्तियों को पैदा कर रही है?"
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दुर्भाग्य से अभी तक इस पर विचार नहीं हुआ। जबकि पिछले दशकों में विश्व भर में जितने आतंकी कारनामे हुए, उनको अंजाम देने वाले 'इस्लामी विश्वास' से ही चालित रहे हैं... अधिकांश ने कुरान और शरीयत का नाम ले-लेकर अपनी करनी को गर्व से दुहराया है। इस पर ध्यान न देना राजनीतिक-बौद्धिक भगोड़ापन ही है...
जब अनगिनत जिहादी बार-बार अपने कारनामों का कारण, "कुरान का आदेश" बता रहे हों, तब इससे नजर चुराना "आतंकवाद" को प्रकारान्तर से बढ़ावा देना ही हुआ...आखिर, दुनियाभर में 'मुसलमान' अपने को आत्मघाती मानव-बम में कैसे बदलते रहते हैं .? ..किस प्रेरणा से ..? विचित्र बात है कि "जिहादियों" के इन कारनामे को 'आतंकवाद' कहा जाता है! ..जबकि खुद हमला करने वाले अपने काम को युद्ध/जिहाद/holy war कहते रहे हैं ...
इसे नजरअंदाज कर, उनसे पीड़ित लोग ही उसे ‘आतंकवाद’ कहते हैं...यह तो 'निमोनिया' को "मौसमी बुखार" कहने जैसी आधारभूत भूल है... रोग की पहचान में ही गलती... बल्कि जानबूझकर की गई गलती ..!! तब इलाज हो तो कैसे ..?
दूसरी गलती ...उन्हें 'पागल' या, 'सिरफिरा' कहा जाता है..?
मारे गए "जिहादी" हों या पकड़े गए या अपने जिहादी अड्डों से 'बयान' जारी करने वाले, पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित करने वाले, मदरसे चलाने वाले, जिहादी प्रशिक्षण देने वाले, साथ ही मौका मिलने पर आई.एस.आई़. और सी.आई.ए. से संवाद और समझौते करने वाले, ये सभी 'जिहादी' बिल्कुल सामान्य तरीके से सोचने-समझने, लिखने-बोलने वाले पाए गए हैं। लेकिन जब देखो उन्हें 'पागल', 'सिरफिरा' कहा जाता है।
जबकि अपनी ओर से वे अपने को ‘सैनिक’, 'कमांडर', 'चीफ', 'शेख', 'खलीफा' आदि कहते-कहलाते हैं। उनके 'समर्थक' भी दुनियाभर के लाखों-करोड़ों 'सामान्य लोग' ही हैं।
अभी जाकिर नाइक, को लेकर कुछ बावेला हो रहा है, मगर केवल इसलिए क्योंकि 'बंगलादेश के जिहादी' उसके प्रशंसक थे। लेकिन बरसों से लाखों मुसलमान, जाकिर के 'प्रशंसक' रहे हैं।
जबकि अपनी ओर से वे अपने को ‘सैनिक’, 'कमांडर', 'चीफ', 'शेख', 'खलीफा' आदि कहते-कहलाते हैं। उनके 'समर्थक' भी दुनियाभर के लाखों-करोड़ों 'सामान्य लोग' ही हैं।
अभी जाकिर नाइक, को लेकर कुछ बावेला हो रहा है, मगर केवल इसलिए क्योंकि 'बंगलादेश के जिहादी' उसके प्रशंसक थे। लेकिन बरसों से लाखों मुसलमान, जाकिर के 'प्रशंसक' रहे हैं।
जाकिर भी इस्लाम का जाना-माना "विद्वान" है, पागल-सिरफिरा नहीं ...
2006 में मुंबई में सीरियल आतंकी हमलों में 'जाकिर' का नाम प्रमुखता से आ चुका था। उसकी संस्था आई.आर.एफ. में ही बैठकर आतंकियों ने योजनाएं बनाईं और अंजाम दिया। वैसे भी जाकिर, बिन लादेन का खुला समर्थक है और सारे मुसलमानों को 'आतंकी' बनने की जरूरत बता चुका है। यानी, जाकिर भी 'सामान्य व्यक्ति' है, बल्कि इस्लाम का जाना-माना "विद्वान" है, पागल-सिरफिरा नहीं ! फिर भी, हर आतंकी घटना के बाद हमलावरों, उनके प्रशिक्षकों, सरपरस्तों आदि को थोक भाव में ‘पागल’ या 'भटके हुए' आदि कहा जाता है ?
असली बात सीधी है युद्ध/जिहाद/holy war न पहचानना
असली बात इतनी सीधी है कि उसे न पहचानना, और तद्नुरूप उपाय न करना एक अर्थ में आश्चर्यजनक है ! जिहादियों की अपनी घोषणाओं, नारों, दस्तावेजों में, उन्हें प्रेरित करने वाली किताबों में, हर जगह मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा है कि उनका उद्देश्य काफिरों के विरुद्ध मजहबी युद्ध/ जिहाद चलाना है। तब तक कि जब तक दुनिया की सारी धरती, "अल्लाह" की (दारुल इस्लाम) न हो जाए। जब तक 'निजामे-मुस्तफा’ पूरी दुनिया में कायम न हो जाए।
जिहाद, राजनीतिक 'युद्ध' है। ये एक तथ्य है, इसकी पुष्टि बड़ी सरलता से संपूर्ण 'इस्लामी इतिहास' और 'मूल किताबों' से हो जाती है। सबकुछ स्पष्ट है। इसमें समझने के लिए ऐसा कुछ नहीं है, जिसके लिए विशेष संस्थान या शिक्षक के पास जाना पड़े।
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बुनियादी बातों पर कहीं, कोई असहमति नहीं है...
जैसे,
'इस्लाम ही एक मात्र सत्य है।’,
‘पैग़म्बर मुहम्मद, सबसे मुकम्मिल पैग़म्बर थे और उनकी अवज्ञा या अपमान का दंड "मौत" है!’,
‘मुहम्मद द्वारा किया गया व्यवहार हर मुसलमान के लिए अनुकरणीय और कानून है।’,
‘कुरान अल्लाह के शब्द हैं। जो इस पर संदेह करे उसे मौत के घाट उतारो!’,
‘मूर्तिपूजक और देवी-देवताओं को मानने वाले लोग सब से गंदे, घृणित होते हैं।’,
‘सारी दुनिया को इस्लाम के झण्डे तले लाना है’,
‘किसी के द्वारा "इस्लाम"(कुफ्र) छोड़ने की सजा मौत है!’,
‘जिहाद लड़ना मुसलमानों का सबसे पवित्र कर्तव्य है।’,
‘जिहाद की राह में मरने वाला उसी क्षण "जन्नत" पहुंचता है। जहां सारी नियामतें उसकी खातिर तैयार रहती हैं।'
‘पैग़म्बर मुहम्मद, सबसे मुकम्मिल पैग़म्बर थे और उनकी अवज्ञा या अपमान का दंड "मौत" है!’,
‘मुहम्मद द्वारा किया गया व्यवहार हर मुसलमान के लिए अनुकरणीय और कानून है।’,
‘कुरान अल्लाह के शब्द हैं। जो इस पर संदेह करे उसे मौत के घाट उतारो!’,
‘मूर्तिपूजक और देवी-देवताओं को मानने वाले लोग सब से गंदे, घृणित होते हैं।’,
‘सारी दुनिया को इस्लाम के झण्डे तले लाना है’,
‘किसी के द्वारा "इस्लाम"(कुफ्र) छोड़ने की सजा मौत है!’,
‘जिहाद लड़ना मुसलमानों का सबसे पवित्र कर्तव्य है।’,
‘जिहाद की राह में मरने वाला उसी क्षण "जन्नत" पहुंचता है। जहां सारी नियामतें उसकी खातिर तैयार रहती हैं।'
~ इन बुनियादी बातों पर 'मुस्लिम आलिमों' में, कभी कहीं कोई मतभेद नहीं रहा। जो कुछ मतभेद है, वे इस बात को लेकर है कि इन “पवित्र” आदेशों, उदाहरणों को कैसे, कहां, कितना, लागू करें आदि।
सौभाग्य की बात है कि उपर्युक्त बातों को सिद्धांत के तौर पर मानते हुए भी, अधिकांश मुसलमान, 'व्यवहार' में उसे लागू करने की चाह नहीं रखते। रोजी-रोटी, बाल-बच्चे, हंसी-खुशी, मेहनत-मशक्कत आदि ही उनका पूरा ध्यान या समय खा जाती हैं। लेकिन, जो भी मुसलमान उन बातों को गंभीरता से ले और दिल से लगा ले, उसके लिए, अल-कायदा या इस्लामी स्टेट बिल्कुल सही और जरूरी लगने लगते हैं।
सौभाग्य की बात है कि उपर्युक्त बातों को सिद्धांत के तौर पर मानते हुए भी, अधिकांश मुसलमान, 'व्यवहार' में उसे लागू करने की चाह नहीं रखते। रोजी-रोटी, बाल-बच्चे, हंसी-खुशी, मेहनत-मशक्कत आदि ही उनका पूरा ध्यान या समय खा जाती हैं। लेकिन, जो भी मुसलमान उन बातों को गंभीरता से ले और दिल से लगा ले, उसके लिए, अल-कायदा या इस्लामी स्टेट बिल्कुल सही और जरूरी लगने लगते हैं।
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यदि इस पूरे 'घटनाक्रम या बीमारी' को इसी स्पष्टता से पहचान कर उपाय सोचा जाए तो "इलाज बिल्कुल आसान है।"
किसी ने 'युद्ध' छेड़ा है तो उससे लड़िये ..!!
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आक्रमणकारी और उसके बाहरी-भीतरी समर्थकों को 'शत्रु' मानकर ही उपाय कीजिए। उसके द्वारा किए जा रहे बहाने, ध्यान भटकाने के पैंतरे, संधि या विराम के नाटक, शर्तबंदी आदि-आदि की सही पहचान कीजिए कि उसमें असली-नकली क्या है?
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आक्रमणकारी और उसके बाहरी-भीतरी समर्थकों को 'शत्रु' मानकर ही उपाय कीजिए। उसके द्वारा किए जा रहे बहाने, ध्यान भटकाने के पैंतरे, संधि या विराम के नाटक, शर्तबंदी आदि-आदि की सही पहचान कीजिए कि उसमें असली-नकली क्या है?
याद रहे, युद्ध में जीतने के सिवा कोई लक्ष्य नहीं होता। इसके सिवा कोई और लक्ष्य रखना अपने को 'नष्ट' करने की तैयारी है।
इस युद्ध का चरित्र मुख्यत: 'वैचारिक' है। सारे जिहादी, नेता 'वैचारिक'(मान्यता) जमीन पर ही अपने 'कार्यकर्ता' एकत्र करते हैं। सबकी किताब एक है। दूसरे कारण 'गौण' हैं।
अत: उस जमीन का परीक्षण किए बिना उन्हें कमजोर नहीं किया जा सकता। इसीलिए बड़े-बड़े 'जिहादी संगठनों' और सरदारों के खत्म होने के बाद भी दूसरे उभरते रहे हैं !
इस युद्ध का चरित्र मुख्यत: 'वैचारिक' है। सारे जिहादी, नेता 'वैचारिक'(मान्यता) जमीन पर ही अपने 'कार्यकर्ता' एकत्र करते हैं। सबकी किताब एक है। दूसरे कारण 'गौण' हैं।
अत: उस जमीन का परीक्षण किए बिना उन्हें कमजोर नहीं किया जा सकता। इसीलिए बड़े-बड़े 'जिहादी संगठनों' और सरदारों के खत्म होने के बाद भी दूसरे उभरते रहे हैं !
, मूल समस्या आतंकवाद नहीं है.. आतंक' एक साधन मात्र है.. लक्ष्य, प्राप्त करने का...
यानी, आतंकवाद एक 'रणनीति-कार्यनीति' मात्र है, मूल शत्रु नहीं। जैसे दो देशों के बीच युद्ध में मिसाइलें, बमवर्षक जहाज या पनडुब्बी केवल साधन होते हैं। उसी तरह, आतंक, भी 'इस्लामवाद' का एक साधन मात्र है...उसके दूसरे हथियार भी हैं, जैसे तरह-तरह के फतवे, खुमैनी और तालिबान जैसे राज्य, हर कहीं शरीयत कानून की जिद, तसलीमा विरोध, यहूदी विरोध, जनसांख्यिकी दबाव, इस्लामिक बैंकिंग, रोहिन्ग्या जैसे भगोड़े आतंकियों, को शरण आदि भी उसी उद्देश्य के अन्य हथियार हैं।
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कुरान की बातों की 'हैसियत' तब भी यही थी, जो आज है। उसे 'सातवीं सदी', के अरबों ने भी स्वेच्छा से नहीं माना था! इस्लामी सिद्धांतों, को किसी ने सही मानकर स्वीकार नहीं किया था ! खुद मुहम्मद साहब, के समकालीनों को भी मुहम्मद साहब के पैग़म्बर होने पर संदेह था। उनकी बातों को "पागल या कवि की कल्पना" ही मानते थे। कुरान, में ही इसके अनेक उल्लेख हैं पर किसी को विचारों, तथ्यों और तर्कों से कायल करने की बजाए, तलवार, से सबका काम तमाम करके ही पैग़म्बर की जीत हुई थी। यह तथ्य, पैग़म्बर की सारी आधिकारिक जीवनी और पूरा इतिहास खुद बताता है।
तब, इन जेहादीयों की 'भावनाओं' के नाम पर चुप्पी भी निरी मूर्खता रही है। यह तो 'युद्ध' छेड़ने वाले की चाल में फंसना हुआ!
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प्रारंभ से ही ये लोग, तलवार, छल, दमन और युद्ध से काम निकालते आये है और आज भी तलवार, और धमकी, ही उनके अंतिम हथियार है...गैर-मुस्लिम ही नहीं, मुसलमानों को भी उन के हरेक प्रश्न का उत्तर, धमकी से दिया जाता है ! सलमान रुशदी, से लेकर, वफा सुलतान, अय्यान हिरसी अली, तसलीमा नसरीन आदि सब के संदेह का एक ही इस्लामी उत्तर है
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“मार डालो!”
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कुरान की बातों की 'हैसियत' तब भी यही थी, जो आज है। उसे 'सातवीं सदी', के अरबों ने भी स्वेच्छा से नहीं माना था! इस्लामी सिद्धांतों, को किसी ने सही मानकर स्वीकार नहीं किया था ! खुद मुहम्मद साहब, के समकालीनों को भी मुहम्मद साहब के पैग़म्बर होने पर संदेह था। उनकी बातों को "पागल या कवि की कल्पना" ही मानते थे। कुरान, में ही इसके अनेक उल्लेख हैं पर किसी को विचारों, तथ्यों और तर्कों से कायल करने की बजाए, तलवार, से सबका काम तमाम करके ही पैग़म्बर की जीत हुई थी। यह तथ्य, पैग़म्बर की सारी आधिकारिक जीवनी और पूरा इतिहास खुद बताता है।
तब, इन जेहादीयों की 'भावनाओं' के नाम पर चुप्पी भी निरी मूर्खता रही है। यह तो 'युद्ध' छेड़ने वाले की चाल में फंसना हुआ!
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प्रारंभ से ही ये लोग, तलवार, छल, दमन और युद्ध से काम निकालते आये है और आज भी तलवार, और धमकी, ही उनके अंतिम हथियार है...गैर-मुस्लिम ही नहीं, मुसलमानों को भी उन के हरेक प्रश्न का उत्तर, धमकी से दिया जाता है ! सलमान रुशदी, से लेकर, वफा सुलतान, अय्यान हिरसी अली, तसलीमा नसरीन आदि सब के संदेह का एक ही इस्लामी उत्तर है
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“मार डालो!”
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इस 'सनक' का उपाय भी आसान है। बात का जवाब बात से दो, मौत की धमकी से नहीं।
अपनी 'भावना' और ‘आस्था’ की बात करने से पहले, मूल इस्लामी किताबों में गैर-मुस्लिमों की भावनाओं को 'रौंदने' वाली सारी बातों को खुल कर खारिज करो।
वस्तुत: ऐसा मानने वाले "मुसलमान" भी बड़ी संख्या में हैं .. लेकिन उन्हें सामने आने की छूट नहीं है।
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अत: इस पूरे "वैचारिक-मजहबी" ताने-बाने को, खुली चुनौती देना, इसे गलत बताना, इस युद्ध को जीतने का पहला कदम है।
अपनी 'भावना' और ‘आस्था’ की बात करने से पहले, मूल इस्लामी किताबों में गैर-मुस्लिमों की भावनाओं को 'रौंदने' वाली सारी बातों को खुल कर खारिज करो।
वस्तुत: ऐसा मानने वाले "मुसलमान" भी बड़ी संख्या में हैं .. लेकिन उन्हें सामने आने की छूट नहीं है।
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अत: इस पूरे "वैचारिक-मजहबी" ताने-बाने को, खुली चुनौती देना, इसे गलत बताना, इस युद्ध को जीतने का पहला कदम है।
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