Sunday 26 November 2017

ब्रिटिश शासन से पूर्व ईस्ट इंडिया कंपनी
(ईसाइयों) ने भारत को भर पूर लूटा। 

भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था,ये देश का सारा सोना लूट कर ले गए।
ब्रिटिश शासन में भी लूट का क्रम अनवरत बना रहा। 

★ईस्ट इंडिया कंपनी ने जाते जाते 1887
में हमारे देश में अपना एक प्रतिरूप मुथूट
फाइनेंस के रूप स्थापित कर दिया जिसके मलिक भारतीय ईसाई हैं।★

देश में स्थित इनकी चार हजार से अधिक शाखाओं में हमारे देश का स्वर्ण भण्डार
बंधक के रूप में रखा हुआ है।

बंधक के लिए देश वासियों का ही धन इस कंपनी में ''BOND'' के रूप में निवेशित है।

आकर्षक व्याज दरों पर निवेश कराकर स्वर्ण आभूषण बंधक रखते हैं तथा BOND
की राशि को ऋण के रूप में उपलब्ध कराते हैं।

भारतीय बाजारों में जब जब स्वर्ण
का घटता है तब तब इनके द्वारा बांटे
गए ऋणों की वसूली ठहर जाती है।

फलतः निवेशकों का धन भी ये नही
लौटा पाते हैं।

मंदी के दौर में एक दिन ऐसा भी आ सकता है कि निवेशकों को अपना पैसा वापस पाने के लिए अन्य चिट फंड कंपनियों की भांति रोना पड़ेगा।

ये कंपनी भी ईसाइयत का प्रचार करती है,इसके कार्यालयों में ईसाई देवी देवताओं
के फोटो लगे हुए हैं।

प्रातः नौ बजे समस्त कर्मचारियों को सामूहिक रूप से अंग्रेजी में GOD की प्रार्थना करनी पड़ती है।

कर्मचारियों को ईसाईयों जैसा ही आचरण करना पड़ता है।

इनका अलग ''Dress Code'' है जो कि भारतीयता के विरुद्ध है।

सभी पुरुषों को पैंट शर्ट ही पहनना है,
शर्ट पैंट के निचे दबा होना चाहिए।

अंगूठी पहनना पूर्णतया वर्जित है।
टीका भी नही लगा सकते हैं।

कार्यालयों में ईश्वर की प्रार्थना पूर्णतया वर्जित है।

स्त्रियों को साड़ी,मंगल सूत्र,अंगूठी आदि धारण करना भी पूर्ण तया वर्जित है।

संक्षेप में कोई भी हिंदू आचार विचार कर्मचारियों के लिए पूर्ण तया वर्जित है।

इस कंपनी का लूट और धर्मान्तरण का कार्य साथ साथ इसी प्रकार चलता
रहता है।
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कैसे रोथ्स्चाइल्ड ने बैंकों के माध्यम से भारत पर कब्जा किया !!

भारत इतना समृद्ध देश था कि उसे `सोने की चिडिया ‘ कहा जाता था ।

भारत की इस शोहरत ने पर्यटकों और लुटेरों – दोनों को आकर्षित किया ।

यह बात तब की है जब ईस्ट इन्डिया कम्पनी को भारत के साथ व्यापार करने का
अधिकार प्राप्त नहीं हुआ था ।

उसके बाद क्या हुआ यह नीचे पढिये -

सन् १६०० – ईस्ट इन्डिया कम्पनी को भारत के साथ व्यापार करने की स्वीकृति मिली

१६०८ – इस दौरान कम्पनी के जहाज सूरत की बन्दरगाह पर आने लगे जिसे व्यापार
के लिये आगमन और प्रस्थान क्षेत्र नियुक्त किया गया ।.

अगले दो सालों में ईस्ट इन्डिया कम्पनी ने दक्षिण भारत में बंगाल की खाडी के
कोरोमन्डल तट पर मछिलीपटनम नामक नगर में अपना पहला कारखाना खोला ।

१७५० – ईस्ट इन्डिया कम्पनी ने अपने २ लाख सैनिकों की निजी सेना के वित्त
प्रबन्ध के लिये बंगाल और बिहार में अफीम की खेती शुरु कर दी ।
बंगाल में इसके कारण खाद्य फसलों की जो बर्बादी हुई उससे अकाल की स्थिति पैदा
हुई जिससे दस लाख लोगों की मृत्यु हुई ।

कैसे और कितनी भारी संख्या मे लोगों की मृत्यु हुई यह जानने के लिये पढिये-
Breakdown of Death Toll of Indian Holocaust caused during the
British (Mis)Rule

१७५७ – बंगाल के शासक सिराज-उद-दौला के पदावनत हुए सेना अध्यक्ष मीर
जाफर,यार लुत्फ खान,महताब चन्द,स्वरूप चन्द,ओमीचन्द और राय दुर्लभ के
साथ षडयन्त्र करके अफीम के व्यापारियों ने प्लासी की लडाई में सिराज-उद-दौल
को पराजित करके भारत पर कब्जा कर लिया और दक्षिण एशिया में ईस्ट ईन्डिया
कम्पनी की स्थापना की ।

जगत सेठ, ओमीचन्द और द्वारकानाथ ठाकुर ( रबिन्द्रनाथ ठाकुर के दादा) को
`बंगाल के रोथ्चाईल्ड’ का नाम दिया गया था (द्वारकानाथ ठाकुर, भारत के
`ड्रग लार्ड’ की गाथा अलग से एक लेख में लिखी जाएगी)

१७८० – चीन के साथ नशीली पदार्थों का व्यापार करने का खयाल सर्वप्रथम भारत
के पहले गवर्नर जेनरल वारेन हेस्टिंग्स को आया ।

सन् १७९० — ईस्ट इन्डिया कम्पनी ने अफीम के व्यापार पर एकाधिकार बनाया
और खस खस उत्पादकों को अपनी उपज सिर्फ ईस्ट इन्डिया कम्पनी को बेचने
की छूट थी ।
हजारों की संख्या में बंगाली,बिहारी और मालवा के किसानों से जबरन अफीम
की खेती करवायी जाती थी ।

उस दौरान योरोप में व्यापार में मन्दी और स्थिरता चल रही थी ।
कम्पनी के संचालक ने पार्लियामेन्ट से आर्थिक सहायता मांगकर दिवालियापन से
बचने की कोशिश की ।
इसके लिये `टी ऐक्ट’ बनाया गया जिससे चाय और तेल के निर्यात पर शुल्क लगना
बन्द हो गया ।

ईस्ट इन्डिया कम्पनी की करमुक्त चाय दुनिया के हर ब्रिटिश कोलोनी में बेची जाने
लगी,जिससे देशी व्यापारियों का कारोबार रुक गया ।

अमेरिका में इसके कारण जो विरोध शुरु हुआ,उसका समापन मस्साचुसेट्स में
`बोस्टन टी पार्टी ‘ से हुआ जब विरोधियों के झुन्ड ने जहाजों में रखी चाय की
पेटियों को समुद्र में फेंक दिया |

इसके पश्चात् बगावत बढती गयी और अमेरिकन रेवोल्युशन का जन्म हुआ
जिसके कारण १७६५ से १७८३ के बीच तेरह अमरीकी उपनिवेश ब्रिटिश साम्राज्य
से स्वतन्त्र (नाम के स्वतंत्र ,जैसे भारत को नकली आज़ादी मिली,आज भी नागरिको
पर कंट्रोल पावर इल्लुमिनाती की है )हो गये ।

ब्रिटेन अब चाँदी देकर चीन से चाय खरीदने में समर्थ नहीं रहा ।
अफीम जो कि आसानी से और मुफ्त में हासिल था,अब उनके व्यापार का माध्यम
बन गया ।

उन्नीसवीं सदी — ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया नशीले पदार्थों की सबसे बडी
व्यापारी थीं ।

वह खुद भी अफीम ( लौडनम, जो कि अफीम को शराब में मिलाकर बनाया जाता है)
का सेवन करती थीं ।
इस बात के रिकार्ड बाल्मोरल पैलेस के शाही औषधखाने में हैं कि कितनी बार अफीम
शाही घराने में पहुँचाया गया ।
कई ब्रिटिश कुलीन जन समुदाय के लोग भी अफीम का सेवन करते थे ।

अब कुछ जरूरी बातें …

ईस्ट इन्डिया कम्पनी के मालिक कौन थे ?

यह सभी को मालूम है कि इस कम्पनी ने भारत से भारी मात्रा में सोना और हीरे –
जवाहरात लूटे थे ।

उसका क्या हुआ ???

सच तो यह है कि भारत से लूटा गया यह खजाना आज तक बैंक आफ इंगलैन्ड के
तहखाने में रखा है |
यह खजाना अप्रत्यक्ष रूप से भारत में लगभग सभी बैंकिन्ग संस्थानो के निर्माण
के लिये इस्तेमाल किया गया,साथ ही विश्व में और भी कई बैंकों की स्थापना का
आधार बना ।

१७०८ — मोसेस मोन्टेफियोर और नेथन मेयर रोथ्स्चाइल्ड ने ब्रिटिश राजकोष को
३,२००,००० ब्रिटिश पाऊन्ड कर्ज दिया (जिसे रोथ्स्चाइल्ड के निजी बैन्क ओफ
इंगलैन्ड का ऋण चुकाने के लिये इस्तेमाल किया गया) ।
यह कर्ज रोथ्स्चाइल्ड ने अपनी ईस्ट इन्डिया कम्पनी को (जिसके वह गुप्त रूप से
मालिक थे) केप होर्न और केप आफ गुड होप के बीच स्थित इन्डियन और पैसेफिक
महासागर के सभी देशों के साथ व्यापार करने के विशिष्ट अधिकार दिलाने के
लिये दिया – अर्थात् रिश्वत्खोरी की सहायता ली ।

रोथ्स्चाइल्ड हमेशा संयुक्त पूँजी द्वारा स्थापित संस्थाओं के जरिये काम करते हैं
ताकि उनका स्वामित्व गुप्त रहे और वह निजी जिम्मेदारी से बचे रहें ।

नेथन रोथ्स्चाइल्ड ने कहा, `' तब ईस्ट ईंडिया कम्पनी के पास बेचने के लिये आठ
लाख पाउन्ड का सोना था ।
मैंने नीलामी में सारा सोना खरीद लिया ।
मुझे पता था कि वेलिंग्टन के ड्यूक के पास वह जरूर होगा,चूंकि मैंने उनके ज्यादातर
बिल सस्ते दाम पर खरीद लिये थे।
सरकार से मुझे बुलावा आया और यह कहा गया कि इस सोने की (उन दिनों चल रही
लडाईयों की आर्थिक सहयता के लिये ) उन्हें जरूरत है ।
जब वह उनके पास पहुँच गया तो उन्हें समझ नहीं आया कि उसे पुर्तगाल कैसे
पहुँचाया जाए ।
मैंने सारी जिम्मेवारी ली और फ्रान्स के जरिये भिजवाया ।
यह मेरा सबसे बढिया व्यापार था । '‘

इस प्रकार नेथन रोथ्स्चाइल्ड ब्रिटिश सरकार के विश्वसनीय बन गये जो कि उनके
लिये मुद्रा क्षेत्र में अपना कारोबार और हुकूमत बढाने में फायदेमन्द साबित हुआ,
जैसा कि आप आगे पढेंगे ।

यह ध्यान रहे कि वह रोथ्स्चाइल्ड घराना ही था जिसने आदम वाईशौप के जरिये
इलुमिनाटी ग्रूप की शुरुआत की ।
योजना यह थी कि खुद को संसार में सबसे ज्यादा सुशिक्षित मानने वाले इस वर्ग
के लोग अपने शिष्यों के जरिये मानव समाज के सभी महत्वपूर्ण सन्स्थाओं में
मुख्य स्थानों पर अधिकार जमाकर `न्यु वर्ल्ड आर्डर’ अर्थात् `नयी सुनियोजित
दुनिया’ की स्थापना करेंगे जिसके नियम वह बनाएँगे ।

१८४४ – राबर्ट पील के शासन में बैन्क चार्टर ऐक्ट पास हुआ जिससे ब्रिटिश बैंकों की
ताकत कम कर दी गयी और सेन्ट्रल बैंक आफ इंगलैंड (जो कि रोथ्स्चाइल्ड के अधीन
था) को नोट प्रचलित करने का एकमात्र अधिकार दिया गया ।

इससे यह हुआ कि रोथ्स्चाइल्ड अब और भी शक्तिशाली हो गये चूँकि अब कोई भी
बैंक अपने नोट नहीं बना सकता था,उन्हें जबरन रोथ्स्चाइल्ड नियन्त्रित बैंक के नोट
स्वीकार करने पडते थे ।
और आज यह स्थिति है कि संसार में मात्र तीन देश बच गये हैं जहाँ के बैंक
रोथ्स्चाइल्ड के कब्जे में नहीं हैं

दुनिया मे हो रही लडाइयों का लक्ष्य है उन देशों के सेन्ट्रल बैंक पर कब्जा ।
मेयर ऐम्शेल रोथ्स्चाइल्द ने बिल्कुल सच कहा था जब उन्होंने यह कहा था कि
'`मुझे बस देश के धन/पैसों के सप्लाई पर नियन्त्रण चाहिये,उस देश के नियम
कौन बनाता है इसकी मुझे परवाह नहीं।''

जार्ज वार्ड नोर्मन १८२१ से १८७२ तक बैंक आफ इंगलैन्ड के निदेशक थे और १८४४
के बैंक चार्टर ऐक्ट के निर्माण में उनकी बडी महत्वपूर्ण भूमिका रही थी ।
उनका सोंचना था कि रेवेन्यू सिस्टम को पूरी तरह से बदल उसे बहुग्राही सम्पत्ति
टैक्स (कंप्रिहेन्सिव प्रापर्टी टैक्स) सिस्टम बनाकर मानव के आनन्द को बढाया
जा सकता है ।

१८५१ – १८५३ – महारानी विक्टोरिया से शाही अधिकार पत्र मिलने के पश्चात्
जेम्स विल्सन ने लन्दन में चार्टर्ड बैंक आफ इन्डिया, औस्ट्रेलिया और चाइना
की स्थापना की ।

यह बैंक मुख्य रूप से अफीम और कपास के दामों पर छूट दिलाने का कार्य करते थे ।
हालाँकि चीन में अफीम की खेती में वृद्धि होती गयी,फिर भी आयात में बढोतरी हुई थी ।

अफीम के व्यापार से चार्टर्ड बैंक को अत्यधिक मुनाफा हुआ ।

उसी वर्ष (१८५३) कुछ पारसी लोगों के द्वारा (जो कि अफीम के व्यापारी थे और ईस्ट
ईंडिया कम्पनी के दलाल थे) मुम्बई में मर्केन्टाइल बैंक आफ ईन्डिया,लन्दन और
चाईना की स्थापना हुई ।

कुछ समय बाद यही बैंक शांघाई (चीन) में विदेशी मुद्रा जारी करने की प्रमुख संस्था
बन गया ।
आज हम उसे एच-एस-बी-सी बैंक के नाम से जानते हैं ।

१९६९ में चार्टर्ड बैंक आफ ईन्डिया और स्टैन्डर्ड बैंक का विलय हो गया और इन दोनों
के मिलने से स्टैन्डर्ड चार्टर्ड बैंक बना ।
उसी वर्ष भारत की सरकार ने इलाहाबाद बैंक का राष्ट्रीयकरण किया । .

स्टेट बैंक आफ ईन्डिया

एस-बी-आई की शुरुआत कोलकाता ( ब्रिटिश इन्डिया के समय में भारत की राजधानी )
में हुई,जब उसका जन्म २ जून १८०६ को बैंक आफ कल्कत्ता के नाम से हुआ।

इसकी शुरुआत का मुख्य कारण था टीपू सुल्तान और मराठाओं से युद्ध कर रहे जेनेरल
वेलेस्ली को आर्थिक सहयता पहुँचाना ।
जनवरी २, १८०९ को इस बैंक को बैंक आफ बंगाल का नया नाम दिया गया ।
इसी तरह के मिश्रित पूँजी (जोइन्ट स्टौक ) के अन्य बैंक यानि बैंक आफ बम्बई
और बैंक आफ मद्रास की शुरुआत १८४० और १८४३ में हुई ।

१९२१ में इन सभी बैंकों और उनकी ७० शाखाओं को मिलाकर इम्पीरियल बैंक
आफ ईन्डिया का निर्माण किया गया ।
आजादी के पश्चात् कई राज्य नियन्त्रित बैंकों को भी इम्पीरियल बैंक आफ ईन्डिया
के साथ मिला दिया गया और इसे स्टेट बैंक आफ ईन्डिया का नाम दिया गया ।
आज भी वह इसी नाम से जाना जाता है ।

१८५९ – १८५७ की बगावत के पश्चात् जेम्स विल्सन (चार्टर्ड बैंक आफ इन्डिया,
औस्ट्रेलिया और चाइना के निर्माता ) को टैक्स योजना और नयी कागजी मुद्रा
की स्थापना और भारत के वित्तीय प्रणाली (फाईनान्स सिस्टम) का पुनः निर्माण
करने के लिये भारत भेजा गया ।

उन्हें भारतीय टैक्स सिस्टम के पितामह का दर्जा दिया गया है ।

रिजर्व बैंक आफ इन्डिया

आर –बी-आई की नींव हिल्टन यंग कमीशन के समक्ष डाक्टर अम्बेड्कर के बताये
निदेशक सिद्धान्त और सन्चालन रीति पर रखी गयी ( जैसा के हमें बताया जाता है,
मगर असली प्रारम्भ कहीं और ही हुआ,जिसके बारे एक दूसरा लेख हम प्रस्तुत करेंगे )।

जब यह कमीशन `रायल कमीशन आन इन्डियन करेन्सी एन्ड फाईनान्स’ के नाम
से भारत आयी तब उसके हरेक सदस्य के पास डाक्टर अम्बेड्कर की किताब
'` द प्राब्लेम आफ द रुपी- इट्स ओरिजिन एन्ड इट्स सोल्यूशन ‘' मौजूद थी ।

डाक्टर अम्बेड्कर की किताब ` द प्रोब्लेम आफ द रुपी- इट्स ओरिजिन एन्ड इट्स
सोल्यूशन ‘ से उद्धृत –

अध्याय ५ – स्वर्ण मान से स्वर्ण विनिमय तक (from a Gold Standard To a
Gold Exchange Standard)

` जब तक मूल्यांकन धातु मुद्रा से किया जाता है तब तक अत्यधिक मुद्रा स्फीति
(इन्फ्लेशन) सम्भव नहीं है क्योंकि उत्पादन लागत उसपर रोक लगाती है ।
जब मूल्यांकन रुपयों (पेपर मनी) से होता है तो प्रतिबन्ध से इसको काबू में रखा
जा सकता है ।

लेकिन जब मूल्यांकन वैसे रुपयों से होता है जिसका मोल उसकी अपनी कीमत से
ज्यादा है और वह अपरिवर्तनीय है,तो उसमें असीमित स्फीति की सम्भावना है,
जिसका अर्थ है मूल्य मे कमी और दामों मे बढोतरी ।

इसलिये यह नहीं कहा जा सकता है कि बैंक चार्टर ऐक्ट ने बैंक रेस्ट्रिक्शन ऐक्ट से
बेहतर नहीं था ।

वाकई वह बेहतर था क्योंकि उस ऐक्ट से ऐसी मुद्रा जारी की गयी जिसमें मुद्रा स्फीति
की सम्भावना कम थी ।

अब रुपया एक अपरिवर्तनीय अपमिश्रित ( डीबेस्ड) सिक्का और असीमित वैध मुद्रा
(लीगल टेन्डर) है ।

इस रूप में वह अब उस वर्ग में है जिसमें असीमित मुद्रा स्फीति की क्षमता है ।
इससे बचाव के लिये निःसन्देह पहली योजना इससे बेहरत थी जिसमें रुपयों का
वितरण सीमित था ।
इससे भारतीय मुद्रा प्रणाली १८४४ के बैंक चार्टर ऐक्ट के अधीन ब्रिटिश प्रणाली
के अनुरूप था ।

यदि उपर्युक्त तर्कसंगत विचारों में बल है,तो फिर चेम्बर्लेन कमीशन आफ एक्स्चेन्ज
स्टैंडर्ड के विचारों से सहमत होने में आपत्ति होती है ।
इससे यह प्रश्न उठता है कि कमीशन ने जो भी कहा उसके बावजूद उस प्रणाली में कहीं
कोई कमजोरी तो नहीं जो कभी उसके पतन का कारण बन सकती है ।
ऐसी अवस्था में उस मान्य की नींव को नये द्रिष्टिकोण से जाँचना जरूरी हो जाता है ।

क्या डाक्टर अम्बेड्कर को भिन्न आरक्षन प्रणाली (फ्रैक्शनल रिजर्व बैंकिंग) और खन्ड
मुद्रा (फिआत करेंसी) के खतरों का (जिसका असर आज समस्त सन्सार पर हो रहा है )
सही अनुमान हो चुका था ?

इस विषय पर रिसर्च और चर्चा की जरूरत है जिससे हकीकत सामने आ सके !

नशीले पदार्थों की तस्करी और भारत, पुर्तगाल, ब्राजील, चीन, बर्मा और अन्य देशों
से लूटे गये सोने से आज के मुद्रा प्रणाली (मोनेटरी सिस्टम ) की नींव रखी गयी ।

लेकिन क्या यह अब समाप्त हो चुका ?

यह जानने के लिये कि ओबामा ने अपने द्वितीय कार्यकाल में भारत के लिये क्या
सोंच रखा है कृपया पढें –
''Unlocking the full potential of the US-India Relationship 2013''

सार्वभौमिकता (Globalisation) सर्वव्यापी धर्मनिर्पेक्ष जीवन शैली नहीं है ….
यह उपनिवेशवाद (Colonialism) का नया रूप है जिसके जरिये समस्त संसार
को एक बडा उपनिवेश (कोलोनी) बनाने की चेष्टा की जा रही है ।

अपने दिनों में कम्पनी नें सही अर्थों में सार्वभौमिक अर्थव्यवस्था में मौजूद कमजोरियों
का धूर्तता से अपने फायदे के लिये शोषण किया ।

चीन की चाय भारत के अफीम से खरीदी गयी ।
भारत मे उपजे कपास से बने भारतीय और बाद में ब्रिटिश कपडों से पश्चिम अफ्रीका के
गुलाम खरीदे गये,जिन्हें अमेरिका में सोने और चाँदी के लिये बेचा गया,जिसे इंगलैंड में
निवेशित किया गया जहाँ गुलामों द्वारा बनाई चीनी के कारण चायना से आयात चाय
की लोकप्रियता मर्केट में बनी रही ।
विजेता विश्व के सबसे महत्वपूर्ण वित्तीय केन्द्र अर्थात् फाईनेन्शियल सेन्टर `सिटी
आफ लन्दन’ में विराजमान थे और भारी संख्या में असफल व्यक्तिगण संसार के हर
कोने में मौजूद थे ।
....................
रिजर्व बैंक आफ इन्डिया

आर –बी-आई की नींव हिल्टन यंग कमीशन के समक्ष डाक्टर अम्बेड्कर के बताये
निदेशक सिद्धान्त और सन्चालन रीति पर रखी गयी।
( जैसा के हमें बताया जाता है,मगर असली प्रारम्भ कहीं और ही हुआ,जिसके बारे
एक दूसरा लेख हम प्रस्तुत करेंगे )।

जब यह कमीशन `रायल कमीशन आन इन्डियन करेन्सी एन्ड फाईनान्स’ के नाम
से भारत आयी तब उसके हरेक सदस्य के पास डाक्टर अम्बेड्कर की किताब
''द प्राब्लेम आफ द रुपी- इट्स ओरिजिन एन्ड इट्स सोल्यूशन''' मौजूद थी ।

डाक्टर अम्बेड्कर की किताब ` द प्रोब्लेम आफ द रुपी- इट्स ओरिजिन एन्ड इट्स
सोल्यूशन ‘ से उद्धृत –

अध्याय ५ – स्वर्ण मान से स्वर्ण विनिमय तक (from a Gold Standard To a
Gold Exchange Standard)

` जब तक मूल्यांकन धातु मुद्रा से किया जाता है तब तक अत्यधिक मुद्रा स्फीति
(इन्फ्लेशन) सम्भव नहीं है क्योंकि उत्पादन लागत उसपर रोक लगाती है ।
जब मूल्यांकन रुपयों (पेपर मनी) से होता है तो प्रतिबन्ध से इसको काबू में रखा
जा सकता है ।
लेकिन जब मूल्यांकन वैसे रुपयों से होता है जिसका मोल उसकी अपनी कीमत से
ज्यादा है और वह अपरिवर्तनीय है,तो उसमें असीमित स्फीति की सम्भावना है,
जिसका अर्थ है मूल्य मे कमी और दामों मे बढोतरी ।

इसलिये यह नहीं कहा जा सकता है कि बैंक चार्टर ऐक्ट ने बैंक रेस्ट्रिक्शन ऐक्ट से
बेहतर नहीं था ।

वाकई वह बेहतर था क्योंकि उस ऐक्ट से ऐसी मुद्रा जारी की गयी जिसमें मुद्रा स्फीति
की सम्भावना कम थी ।

अब रुपया एक अपरिवर्तनीय अपमिश्रित ( डीबेस्ड) सिक्का और असीमित वैध मुद्रा
(लीगल टेन्डर) है ।

इस रूप में वह अब उस वर्ग में है जिसमें असीमित मुद्रा स्फीति की क्षमता है ।
इससे बचाव के लिये निःसन्देह पहली योजना इससे बेहतर थी जिसमें रुपयों का
वितरण सीमित था ।
इससे भारतीय मुद्रा प्रणाली १८४४ के बैंक चार्टर ऐक्ट के अधीन ब्रिटिश प्रणाली के
अनुरूप था ।

यदि उपर्युक्त तर्कसंगत विचारों में बल है,तो फिर चेम्बर्लेन कमीशन आफ एक्स्चेन्ज
स्टैंडर्ड के विचारों से सहमत होने में आपत्ति होती है ।
इससे यह प्रश्न उठता है कि कमीशन ने जो भी कहा उसके बावजूद उस प्रणाली में
कहीं कोई कमजोरी तो नहीं जो कभी उसके पतन का कारण बन सकती है ।
ऐसी अवस्था में उस मान्य की नींव को नये द्रिष्टिकोण से जाँचना जरूरी हो जाता है ।

क्या डाक्टर अम्बेड्कर को भिन्न आरक्षन प्रणाली (फ्रैक्शनल रिजर्व बैंकिंग) और खन्ड
मुद्रा (फिआत करेंसी) के खतरों का (जिसका असर आज समस्त सन्सार पर हो रहा है )
सही अनुमान हो चुका था ?

इस विषय पर रिसर्च और चर्चा की जरूरत है जिससे हकीकत सामने आ सके !
--★#विश्व_गुरु_भारत

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