Sunday, 12 November 2017

sanskar

आखिर कौन हैं ये सप्तऋषि?
इसमें शक नहीं कि सप्तर्षि यानी सात ऋषि (सप्त+ऋषि) हमारे दिल और हमारे दिमाग पर छाए हुए हैं। बचपन में जैसे हम लोगों को चन्द्रमा में नजर आने वाले काले धब्बे को लेकर कई तरह की कहानियां सुनाई जाती हैं, ध्रुव तारे को लेकर कई तरह की बातें बताई जाती हैं, वैसे ही सप्तर्षियों के बारे में भी कई तरह की गौरव-गाथाएं सुनाई जाती हैं।
जहां आकाश में आकाशगंगा नजर आती है, वहां सप्तर्षियों का वास है, वे तारे जिन्हें सात की संख्या तक पहुंचाया जाता है, वे ही वहां रहने वाले सात ऋषि हैं, इस तरह की अद्भुत बातें, कहानियां, गाथाएं सुनकर हमारे देश के बच्चे बड़े होते हैं। जाहिर है कि हम लोगों के जेहन में सप्तर्षि अमिट तरीके से अंकित हैं और उनके प्रति हमारे मन में अगर कोई भाव है तो सिर्फ सम्मान का है, श्रद्धा का है।
पर इसमें भी कोई शक नहीं कि हम नहीं जानते कि ये सात ऋषि हैं कौन और क्यों इनको इस कदर सम्मान का और श्रद्धा का पात्र बना दिया गया कि सातवें आसमान पर तारों के बीच हमेशा के लिए, कभी नष्ट न होने के लिए बिठा दिया जाए? इन सात ऋषियों के बारे में बहुत सी बातें हैं जिन्हें हम अभी एक-एक कर बताएंगे।
पर इनके बारे में सबसे ज्यादा गड़बड़ परम्परा यह चला दी गई कि ये ब्राह्मण कुलों के प्रवर्तक थे, और जब ब्राह्मण कुलों के कथित प्रवर्तकों के नाम गिनवाने की बारी आती है तो ब्राह्मण कहे जाने वाला हर भारतीय सबसे पहले अपने कुल और उसके ठीक या गलत प्रवर्तक का नाम गिनवा देता है और उसके बाद कोई भी छह मशहूर नाम, मसलन दुर्वासा का या परशुराम का या मार्कण्डेय का नाम गिनवा देता है।
सामने कोई दूसरा ब्राह्मण जाति वाला बैठा हुआ हो और उसके कुल प्रवर्तक का, मसलन किसी कश्यप का, या किसी कौशिक का या किसी पराशर का नाम न गिनवा सका हो तो क्षमायाचना पूर्वक कह देगा कि फलां-फलां कारणों से आपके कुल प्रवर्तक सप्तर्षियों की गिनती में नहीं आ पाए।
जिसके प्रति इतना सम्मान हो, श्रद्धा हो पर उसके बारे में ठीक-ठीक पता न हो, पता लगाने की कोशिश भी अब बन्द कर दी गई हो, इसका कोई दूसरा उदाहरण कभी मिलेगा तो बताएंगे। पर फिलहाल इसमें यह बात जोड़नी जरूरी लग रही है कि उन सप्तर्षियों के नामों के साथ लिबर्टी, यह रिआयत हजारों सालों से ली जा रही है। महाभारत में सप्तर्षियों की दो नामावलियां मिलती हैं।
एक नामावली में कश्यप, अत्रि, भरद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और वसिष्ठ के नाम आते हैं तो दूसरी नामावली में पांच नाम बदल जाते हैं। कश्यप और वसिष्ठ वही रहते हैं पर बाकी के बदले मरीचि, अंगिरस, पुलस्त्य, पुलह और क्रतु नाम आ जाते हैं। कुछ पुराणों में कश्यप और मरीचि को एक माना गया है तो कहीं कश्यप और कण्व को पर्यायवाची माना गया है।
इसके अलावा एक धारणा यह भी है कि चारों दिशाओं के अलग-अलग सप्तर्षि हैं और इस प्रकार अट्ठाइस ऋषियों के नाम मिल जाते हैं। बल्कि पुराणों में तो मामला इस हद तक खिंच गया है कि चौदह मन्वन्तरों के अलग-अलग सप्तर्षि माने गए हैं और यह संख्या कुल अट्ठानवे तक चली जाती है और वहां भी तुर्रा यह कि नामों में कई बार बदल हो जाता है। नहुष ने जिन सप्तर्षियों को अपनी पालकी ढोने के काम में लगाया था उनमें अगस्त्य भी एक थे, जिनके बारे में विवाद लगातार रहा है कि वे सप्तर्षि हैं या नहीं।
तो कैसे बात बनेगी? सप्तर्षियों के नामों के बारे में बेशक इस कदर विविधता रही हो, पर जैसे यह तय है कि हमारे हृदय में उनके प्रति अपार सम्मान और श्रद्धा बसी है वैसे ही दो बातें और भी तय हैं। एक, कि अपने देश में कोई न कोई वक्त ऐसा था जब सप्तर्षि शब्द बेशक प्रचलित न हुआ हो पर कोई सात ऋषिकुल ऐसे थे जो शेष ऋषिकुलों से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण थे और दो, कि ये सात ऋषिकुल ऐसे थे जिन्होंने देश की सभ्यता के विकास में, विचारों के प्रवाह में, बौद्धिक योगदान में अपना नाम जरूर कमाया था। तो क्यों न इन्हीं दो तार्किक आधारों पर अपने सप्तर्षियों के पास पहुंचने की एक उम्दा कोशिश की जाए?
सप्तर्षि शब्द और इसके आभामण्डल के तले पनपी महनीय सप्तर्षि अवधारणा का विकास महाभारत और खासकर उस के बाद पुराणों के काल में हुआ तो जाहिर है कि इसका आधारकाल इससे काफी पहले का रहा होगा। कौन सा रहा होगा? इस सवाल के जवाब में फिर से ऋग्वेद हमारी सहायता करता है। कभी हमने बताया था कि ऋग्वेद में करीब एक हजार सूक्त हैं, करीब दस हजार मन्त्र हैं (चारों वेदों में करीब बीस हजार हैं) और इन मन्त्रों के रचयिता कवियों को हम ऋषि कहते हैं। पर यह नहीं बताया था कि वे ऋषि कौन थे। आज वह बताने का वक्त है।
बाकी तीन वेदों के मन्त्रों की तरह ऋग्वेद के मन्त्रों की रचना में भी अनेकानेक ऋषियों का योगदान रहा है। पर इनमें भी सात ऋषि ऐसे हैं जिनके कुलों में मन्त्र रचयिता ऋषियों की एक लम्बी परम्परा रही। ऋग्वेद के सूक्त दस मंडलों (कह सकते हैं कि खण्डों) में संग्रहित हैं और इनमें दो से सात यानी छह मंडल ऐसे हैं जिन्हें हम परम्परा से वंशमंडल कहते हैं क्योंकि इनमें छह ऋषिकुलों के ऋषियों के मन्त्र इकट्ठा कर दिए गए हैं। एक बार नाम जान लिए जाएं तो तर्क का सिलसिला आगे बढ़े। मंडल संख्या दो – गृत्समद वंश या ऋषिकुल, तीन-विश्वामित्र, चार-वामदेव, पांच-अत्रि, छह-भारद्वाज, सात-वसिष्ठ।
इस तरह छह नाम तो साफ-साफ मिल जाते हैं। इस नामावली के संदर्भ में दो महत्वपूर्ण सूचनाएं हमारे पाठकों को पता रहनी चाहिए। एक कि इनमे गृत्समद ऋषि ने अपना गोत्र बदलकर शौनक कर लिया था और इसलिए आगे अब इन्हें शौनक कहना इतिहास की दृष्टि से ज्यादा स्वाभाविक रहेगा। दूसरी महत्वपूर्ण सूचना यह है कि इन छह कुलों के अलावा एक और कुल भी था, कण्वकुल जिसके अनेक ऋषियों ने कई पीढ़ी तक मन्त्र रचे और वे सभी मन्त्र ऋग्वेद में हैं।
फिर क्यों नहीं वेदव्यास ने ऋग्वेद के मन्त्रों का संकलन (मौजूदा) तैयार करते समय उनके मन्त्रों को कण्वकुल का एक पृथक वंशमंडल देने का वैसा गौरव नहीं दिया जैसा शेष छह कुलों को दिया? जवाब आसान नहीं। अनुमान ही लगाया जा सकता है कि चूंकि कण्वकुल के अनेक ऋषियों ने अपने मन्त्र कुछ दानदाताओं की प्रशंसा में बना डाले इसलिए वेदव्यास ने इन्हें पसंद न कर, काव्यकर्म के विरूद्ध मानकर, पृथक वंशमंडल का गौरव न दिया हो। कण्वों के इस तरह के मन्त्रों को ‘नाराशंसी’ कहते हैं और दाता राजाओं की प्रशंसा में होने के कारण ये मंत्र पुराने राजाओं के बारे में हमारी जानकारी बढ़ाने में खासी सहायता करते हैं। पृथक वंशमंडल बेशक न मिला हो, पर कण्वकुल तो है।
तो सात ऋषिकुल सामने आ गए-वसिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भारद्वाज, अत्रि, वामदेव और शौनक। इनका कालक्रम भी करीब-करीब इसी श्रृंखला में है। जिस ग्रंथ का नाम ऋग्वेद है, जो ग्रन्थ हमारे देश की बौद्धिक प्रखरता का पर्यायवाची और दुनिया भर में हमारी पहचान का अभूतपूर्व प्रतीक बना हुआ हो और जिसके प्रति विद्वानों का आकर्षण लगातार बढ़ता जा रहा हो और पढ़ने वालों की मांग बढ़ती जा रही हो, उस ऋग्वेद के मंत्रों का अधिकतम भाग जिन सात ऋषिकुलों ने पीढ़ी दर पीढ़ी रचा हो, उन सात कुलों का कितना अद्वितीय सम्मान इस देश के लोगों के बीच रहा होगा, क्या इसकी कल्पना कर सकते हैं?
कर सकते हैं, इसलिए जाहिर है कि ये सात ऋषिकुल, ये सात ऋषि हमारी विचार धरोहर के पुरोधा होने के कारण हमारी स्मृति में अमर हो गए और बाद में कभी व्यावसायिक तो कभी राजनीतिक कारणों से सप्तर्षियों के नामों में और अवधारणा में फर्क आता गया हो तो कोई क्या कर सकता है? पर अगर तर्क और इतिहास की सीढ़ी चढेंग़े तो इस अवधारणा के शिखर पर आप इन्हीं सात ऋषियों को बैठा पाएंगे। इसलिए अचरज नहीं कि किसी भी सप्तर्षि गणना में इनमें से अधिकांश नाम, कभी चार, कभी पांच तो कभी छह नाम इन्हीं में से आते हैं और इनमें से हरेक का सप्तर्षित्व आज तक सुरक्षित है।
फिर इनमें से हर कुल के प्रवर्तक ने या उसके परवर्ती ने देश की सभ्यता के विकास में अपना अनूठा योगदान किया है। आद्यवसिष्ठ ने राजसत्ता पर अंकुश का विचार दिया तो मैत्रावरूण वसिष्ठ ने सरस्वती नदी के किनारे सौ सूक्त एक साथ रचकर नया इतिहास बनाया जिसका अनुकरण करते भविष्य में किसी से नहीं बना। विश्वामित्र ने इस देश को ऋचा बनाने की विद्या दी और गायत्री मन्त्र की रचना की जो भारत के हृदय में और जिह्ना पर हजारों सालों से आज तक अनवरत निवास कर रहा है।
अत्रि ऋषि ने इस देश में कृषि के विकास में पृथु और ऋषभ की तरह अद्भुत योगदान दिया था। अत्रि लोग ही सिन्धु पार कर ईरान (आज का) चले गए थे, जहां उन्होंने यज्ञ का प्रचार किया। इस देश के सबसे महत्वपूर्ण यज्ञ सोमयज्ञ को कण्वों ने व्यवस्थित किया तो भरद्वाजों में से एक भरद्वाज विदथ ने दुष्यन्त पुत्र भरत का उत्तराधिकारी बन राजकाज करते हुए मन्त्र रचना जारी रखी। वामदेव ने इस देश को सामगान (अर्थात् संगीत) दिया तो शौनक ने दस हजार विद्यार्थियों के गुरूकुल को चलाकर कुलपति का विलक्षण सम्मान हासिल किया और किसी भी ऋषि ने ऐसा सम्मान पहली बार हासिल किया।
फिर से बताएं तो वसिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भरद्वाज, अत्रि, वामदेव और शौनक-ये हैं वे सात ऋषि, सप्तर्षि, जिन्होंने इस देश की मेधा को इतना कुछ दे डाला कि कृतज्ञ देश ने इन्हें आकाश के तारामंडल में बिठाकर एक ऐसा अमरत्व दे दिया कि सप्तर्षि शब्द सुनते ही हमारा हृदय खुद ब खुद किसी अपूर्व मनोभाव से भर जाता है।
बाद में जो अपने-अपने कारणों से अपने-अपने नाम जोड़ने की होड़ लगी तो यह सप्तर्षि के महत्व को ही दिखाता है। पर सप्तर्षि तो सप्तर्षि हैं। हमें उनके नाम तो मालूम रहने ही चाहिएं, यह भी मालूम रहना चाहिए कि वे सप्तर्षि क्यों हैं।

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