Monday 19 December 2016

1847 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने दिल्ली, बम्बई, चेन्नई, नागपुर ये सब शहर देख लिए थे। लेकिन इनमें से किसी भी जगह उसने कॉलेज नहीं खोला। क्योंकि उसको कॉलेज खोलने की कोई गरज नहीं थी। पहला इंजीनियरिंग कॉलेज 1847 में एक बहुत छोटे से गांव में खुला। उस गांव की तब की आबादी किसी भी हालत में पांच हज़ार, सात हज़ार से अधिक नहीं थी। उस गांव का नाम है रुड़की। हरिद्वार–दिल्ली के बीच में।
आप सब के मन में यह प्रश्न आना चाहिए कि रुड़की जैसे छोटे–से गांव में ईस्ट इंडिया कंपनी को काहे को जाकर एक कॉलेज खोलने की जरूरत पड़ी। यह हिंदुस्तान का पहला कॉलेज है इंजीनियरिंग का। इसका नाम रुड़की कॉलेज ऑफ सिविल इंजीनियरिंग रखा गया। हममें से चूंकि ज्यादातर लोग विजय शंकरजी के निमित्त यहां इकट्ठे हुए हैं तो सब लोग सामाजिक चीजों से कोई–न–कोई संबंध रखते हैं। पिछले कुछ सौ–दो–सौ वर्षों से हमने भाषा के मामले में असावधानी का रुख अपनाया है। कोई नया शब्द हमारे जीवन में आता है तो हम उसको उलट–पुलट कर देखते नहीं हैं। ज्यों की त्यों स्वीकार कर लेते हैं। सिविल इंजीनियरिंग ऐसा ही शब्द है। अगर यह सुनकर हमारे ध्यान में कोई न कोई खटका आता तो, हमें इसका इतिहास ढूंढ़ना फिर कठिन नहीं होता। पर खटका कभी आया नहीं, इसलिए हम इसके इतिहास में पड़े नहीं। और सब विद्याओं के आगे सिविल नहीं लगता। इंजीनियरिंग के आगे सिविल क्यों लगाना पड़ा? क्योंकि हिंदुस्तान में सिविल इंजीनियरिंग नाम की कोई चीज थी ही नहीं। जो कुछ भी ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ आया था वो मिलिट्री इंजीनियरिंग के लिए आया था। कैसे इस देश पर कब्जा करें, कैसे इस देश को गुलाम बनाएं? अगर आजादी के दीवाने कोई पुल तोड़ दें तो हम उस पुल को कैसे रातों–रात दुरुस्त करें इसके लिए उनके विभाग में चार–पांच नौकर–चाकर रखे जाते थे। वो सब इंग्लैंड से ही आते थे। उनको सिविल कहलाने वाले कामों में पड़ने की कोई दिलचस्पी नहीं थी।
इससे पहले हिंदुस्तान में सिविल का कोई काम नहीं होता हो, ऐसी बात नहीं है। काम बहुत होता था लेकिन उसको सिविल इंजीनियरिंग कहा ही नहीं जाता था। अलग–अलग राज्यों में उस काम को करने वाले अलग–अलग लोग थे। जिसको अंग्रेजी में ‘वाटर बॉडी’ कहने से हम लोगों को अच्छा लगता है तो मैं वाटर बॉडी भी कह सकता हूं। तालाब नाम थोड़ा पिछड़ा लगता होगा। यहां नहीं लगेगा, लेकिन ज्यादातर जगहों पर पुल थे, सड़कें थीं, ये सब कौन बनाता था। कभी हमने इसके बारे में सोचा नहीं। जो लोग बनाते थे वे लोग इंजीनियर नहीं कहलाते थे क्योंकि इंजीनियर शब्द ही नहीं था।
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चले गए पानी वाले बाबा "अनुपम मिश्र" जी .... ऐसी कई पर्यावरण की अनकही कहानियों के जनक ... नमन

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