Tuesday, 31 July 2018

sochna padega

जब भी देशद्रोहियों पर आंच आई है, उनके
समर्थन में सबसे पहले उनके साथ "कांग्रेस आई" है
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कड़वा सच -कमाल है ना
जिस देश में मुसलमान सुरक्षित नहीं है
रोहिंग्या औऱ बांग्लादेशी
वहीं रहने की ज़िद पर अड़े हैं
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देश के कुल 1 लाख 20 हजार किलोमीटर राष्ट्रीय राजमार्ग का 24% हिस्सा पिछले 4 सालों में बनाया गया है 
4 साल पहले भारत में 91.7 हजार किलोमीटर लंबाई के राष्ट्रीय राजमार्ग थे, और इन 4 सालों में 28.5 हजार किलोमीटर राष्ट्रीय राजमार्ग का निर्माण हुआ है जो कुल राष्ट्रीय राजमार्ग का लगभग एक चौथाई हिस्सा है !!
भारत में राष्ट्रीय राजमार्ग की लंबाई को 200000 किलोमीटर करने का मोदी सरकार का लक्ष्य है जो 4 साल पहले के कुल राष्ट्रीय राजमार्ग लंबाई का दुगने से भी ज्यादा है !!
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पश्चिम बंगाल में कुल 38,000 गांव है जिसमे 8000 गांव ऐसे हैं
जहां अब एक भी #हिन्दू नहीं रहता है !ये 8000 गांव के हिन्दू कहाँ गए ?  --  
कुमार अवधेश सिंह

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दुर्भाग्य

मुस्लिम शरणार्थी कभी मुस्लिम देशों में शरण नहीं लेते
और हिन्दू शरणार्थी को भारत कभी शरण नही देता !,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

ये बात कटु सत्य है,
तुम युद्ध भले न करो,
पर युद्ध तुम्हारे द्वार पर दस्तक दे चुका है।
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घुसपैठियों ने ही मात्र 100 वर्षो में 90% आबादी वाले पर्सिया को ईरान बना दिया था। इन्हीं घुसपैठियो को पारसियो ने मानवता के तौर पर जगह दी थी,परिणाम सैकडो वर्षो बाद ये रहा कि, बचे खुचे पारसी,नाव मै बैठ कर भाग कर जान बचायी । आज पारसी ईरान में नही हैं !!
पर यह बात अभी हमारे यहाँ शुतुरमुर्गो को समझ में नहीं आ रही है !
कल , तक जो हराम खोर कहते थे कि अब यह देश रहने योग्य नहीं है, 
अब वो ही कह रहे हैं 40 लाख घुसपैठियों का यही घर है ।
सोचिये जरा ???
तुम गृह युद्ध की धमकी देती हो तो हम भी तैयार हैं ।

अरून शुक्ला
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सांप बेरोजगार हो गये,
अब आदमी ही काटने लगे हैं..
कुत्ते क्या करेअब ब, 
 आदमी ही तलवे चाटने लगे हैं...!!







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mediya
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#आतंकवाद फैलाने की जिम्मेदार है.....


बस्तर में पुरातात्विक स्थल - भैरमगढ़.....!
बस्तर में ऐतिहासिक स्थलों की भरमार है। इनमें से अनदेखे ऐतिहासिक स्थलों की सूची बहुत ही लंबी है। अधिकांश पुरातात्विक स्थल नागयुग से ही संबंधित है। नागयुग का एक बेहद महत्वपूर्ण ऐतिहासिक नगर है भैरमगढ़। बहुत ही कम लोगों ने भैरमगढ़ का नाम सुना है और उंगलियों में गिनने लायक लोग ही ,इस स्थल की पुरातात्विक अवशेषों से परिचित है।
भैरमगढ़ बेहद ही अल्पज्ञात ऐतिहासिक स्थल है। इसे कभी नाग राज्य की राजधानी होने का गौरव प्राप्त था। इस नगर में आज भी बहुत से मंदिरों के ध्वंसावशेष, प्रतिमायें यहां वहां बिखरी पड़ी है। यहां की हर चटटान पर आपको भगवान की प्रतिमा उकेरी हुई मिल जायेगी।
नागयुग में तालाब किनारे स्थित एक विशाल चटटान पर भैरम बाबा की प्रतिमा उकेरी गई थी। इस स्थल पर एक नया मंदिर बना दिया गया है जो कि भैरमगढ़ एवं आसपास के सभी ग्रामों के लिये आस्था का केन्द्र है। यहां प्रतिवर्ष जात्रा का आयोजन भी किया जाता है।
झाड़ियो में छिपे नाग युगीन घ्वस्त मंदिर आज भी अपने जीर्णोद्धार के लिये बाट जोह रहे है। बेहद दुर्लभ प्रतिमायें भैरमगढ़ के हर मोहल्ले में मिल जायेगी। उनकी सुरक्षा एवं संरक्षण तो भगवान भरोसे ही है।
बेहद महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थल होने के बावजूद भी यह पुरी तरह से उपेक्षित है। भैरमगढ़ को भी बस्तर के बारसूर, नारायणपाल, चित्रकोट तीरथगढ़ जैसे पर्यटन स्थलों की तरह प्रमुखता से प्रचारित किये जाने की आवश्यकता है।
दंतेवाड़ा के गीदम से बीजापुर मार्ग में 45 किलोमीटर की दुरी पर मुख्य सड़क पर ही भैरमगढ़ कस्बा स्थित है। भैरमगढ़ को दंतेवाड़ा, बारसूर, समलूर जैसे ऐतिहासिक स्थलों के सर्किट पथ में जोड़कर बस्तर के पयर्टन नक्शे में शामिल कर प्रचारित किया जाना चाहिये.....ओम!

Monday, 30 July 2018


ढाई हजार साल पुराना कुआं :
महाभारतकालीन कृष्ण-केशी की युद्धरत मुद्रा वाली मूर्ति भी मिली 
छत्तीसगढ के प्रयागराज राजिम में ढाई हजार साल पहले निर्मित एक विशाल कुआं मिला। पुरातत्वविदों ने इसका निर्माण मौर्यकाल के समय होना बताया है। कुएं का बाहरी व्यास 5.25 मीटर है। इसके चारों तरफ प्लेटफार्म बना हुआ है। प्लेटफार्म की लंबाई 7.05 मीटर और चौ़डाई 7.05 मीटर है। कुएं की गहराई 80 फीट के आसपास बताई जा रही है।

इससे पहले भी राजिम के सीताब़ाडी में चल रहे खुदाई में ढाई हजार साल पहले की सभ्यता के प्रमाण मिले हैं। वहीं महाभारतकालीन कृष्ण-केशी की युद्धरत मुद्रा वाली मूर्ति भी मिली है। पुरातत्वविद् अरूण शर्मा के अनुसार, कुएं की दीवार ब़डे-ब़डे पत्थरों से बनी हैं। निर्माण कला से झलकता है कि यह मौर्यकाल में बना होगा। यह कुआं राजिम संगम के सीध में है। उनका कहना है कि अभी तक 10 फीट तक ही खुदाई हुई है। कुएं की गहराई 80 फीट के आसपास होगी।
शर्मा का कहना है कि इस कुएं का निर्माण भगवान के भोग व स्नान के लिए किया गया होगा, क्योंकि बरसात के समय नदी का पानी गंदा हो जाता है। साथ ही उन्होंने बताया कि पत्थरों की जु़डाई आयुर्वेदिक मसालों से की गई है। गौरतलब है कि इन दिनों छत्तीसगढ़ के प्रयागराज राजिम के सीताब़ाडी में पुरातत्व विभाग द्वारा खुदाई की जा रही है। इससे पहले भी यहां खुदाई में ढाई हजार साल पहले की सभ्यता मिल चुकी है। इसके अलावा सिंधुकालीन सभ्यता की तर्ज पर ही निर्मित ईंटें भी मिल चुकी हैं। यहां एक कुंड भी मिला है। कहा जाता है कि इस कुंड में स्नान करने से कोढ़ और हर किस्म का चर्मरोग दूर हो जाता है। वहीं खुदाई में कृष्ण की केशीवध मुद्रा वाली दो फीट ऊंची, डेढ़ फीट चौ़डी प्रतिमा भी मिली है।
प्रतिमा के एक हाथ में शंख है, वहीं अलंकरण और केश विन्यास से पता चलता है कि यह विष्णु अवतार की प्रतिमा है। शर्मा ने बताया कि प्रतिमा में सिर नहीं है, लेकिन कृष्ण की हथेली घो़डा के मुंह में है, जिससे पता चलता है कि यह केशीवध प्रसंग पर आधारित है। यह प्रतिमा 2500 वर्ष पहले की है। मूर्तिकार की कल्पना देखकर सहज की अंदाजा लगाया जा सकता है कि मूर्तिकार को केशीवध की कहानी ज्ञात थी और साथ ढाई हजार साल पहले भी उत्कृष्ट कलाकार हुआ करते थे।
(आईएएनएस/वीएनएस)
खास खबर हिंदी के अनुसार << सूर्य की किरण >>
 
साल में एक ही दिन खुलता है यह मंदिर :
नागचंद्रेश्वर नामक इस मंदिर में रहते हैं नागराज तक्षक
उज्जैन के महाकालमंदिर असल में एक ज्योतिर्लिंग है। इस मंदिर की खास विशेषता यह है कि यह मंदिर एकमात्र दक्षिणमुखी मंदिर है। यही कारण है कि यह मंदिर तंत्र साधना के लिए विश्व में मुख्य माना जाता है। इस मंदिर की तीसरी मंजिल पर एक और मंदिर स्थित है, जिसके बारे में बहुत कम लोग ही जानते हैं। इस मंदिर का नाम “नागचंद्रेश्वर मंदिर” है। यह मंदिर नागराज तक्षक का मंदिर है और माना जाता है वह स्वयं यहां निवास करते हैं। नागचंद्रेश्वर नामक इस मंदिर को वर्ष में सिर्फ एक बार मात्र नागपंचमी के अवसर पर खोला जाता है, अन्यथा यह मंदिर सालभर बंद ही रहता है।

इस मंदिर के वर्ष भर में एक बार खोले जाने के पीछे मान्यता है कि भगवान शिव की कठोर तपस्या कर नागराज तक्षक ने उनसे अमरत्व का वर मांगा था और साथ में भगवान शिव का सानिध्य भी। नागराज तक्षक यह भी चाहते थे कि उनके एकांत को कोई भंग न करें, इसलिए ही उनके इस मंदिर को वर्ष में एक ही बार खोला जाता है। आपकी जानकारी के लिए हम बता दें कि नागचंद्रेश्वर मंदिर की सभी व्यवस्था “महानिर्वाणी अखाड़े” के संयासी लोग ही देखते हैं। इस मंदिर के पट नागपंचमी से एक दिन पहले रात को 12 बजे खोल दिए जाते हैं तथा अगले दिन रात 12 बजे बंद कर दिए जाते हैं। नागचंद्रेश्वर मंदिर में जो प्रतिमा है, वह भी अपने में अनोखी है। इस प्रतिमा में शेषनाग की शैय्या पर भगवान शिव, देवी पार्वती तथा भगवान गणेश बैठे हुए हैं। इस प्रतिमा के बारे में कहा जाता है कि यह 11 वीं सदी में नेपाल से आई थी। इस प्रकार से नागचंद्रेश्वर मंदिर अपने आप में अनोखा है और वर्ष भर में सिर्फ एक बार ही भक्त यहां दर्शन करते हैं।
Byshrikant vishnoi July 28, 2017 wahgazab.com के अनुसार << सूर्य की किरण >>

समलूर का शिव मंदिर

दंतेवाड़ा समलूर का शिव मंदिर .....!
दंतेवाड़ा में नंदीराज पर्वत की मैदानों में एक छोटा सा गांव है समलूर।समलूर गांव वैसे तो एक साधारण गांव ही है परन्तु यहां का नागकालीन शिव मंदिर समलूर को एतिहासिक स्थल बनाता है। यह शिवमंदिर पूर्वाभिमुख है जिसमें गर्भगृह एवं अर्द्धमंडप है। मंदिर के गर्भगृह में एक विशाल शिवलिंग स्थापित है। शिवलिंग कलात्मक एवं बेहद आकर्षक है।
बस्तर के सभी शिवमंदिरो में समलूर के शिव मंदिर का शिवलिंग सबसे आकर्षक एवं सुगठित है। शिवलिंग एक तरफ हल्का झुका हुआ है। मंडप में नंदी एवं सप्तमातृका की प्रतिमायें है। यह मंदिर ग्यारहवी सदी में नागवंशी शासक सोमेश्वर देव के शासनकाल में निर्मित माना जाता है।
यह मन्दिर एक तरफ झुक गया हैं. मंदिर का उत्तरी कोना बड़ी तेजी से जमीन में धंसता जा रहा है। मंदिर के उत्तरी कोने की नींव कमजोर होने के कारण मंदिर पुरी तरह से उत्तरी कोने में झुक गया है जिससे यह मंदिर कभी एक तरफ से नीचे गिर सकता है।
जल्द ही अगर इस समस्या पर ध्यान नहीं दिया गया तो यह ऐतिहासिक मंदिर ध्वस्त हो सकता है। जल्द ही मंदिर की नींव ठीक कर इसे गिरने से बचाना होगा।
समलूर मे प्रतिवर्ष शिवरात्रि को मेला लगता है. हरे भरे वादियो से घिरा हुआ समलूर अपने मनोरम दृश्यो के कारण मेरा पसन्दीदा स्थान है. दन्तेवाडा से 10 किलोमीटर दुर चितालंका से बिन्जाम होकर पहुंचा जा सकता है. गीदम से भी बीजापुर मार्ग मे इतनी ही दुरी तय करके यहाँ जाया जा सकता है......ओम!

Sunday, 29 July 2018

भाष चंद्र बोस के परिवार को उनकी बेटी

श्रीमती एमिली शेंकल जर्मनी निवासी ने 1937 में भारत मां के सबसे लाडले बेटे #सुभाषचंद्रबोस से विवाह किया और एक ऐसे देश को अपनी ससुराल के रूप में चुना जो गुलाम था फिर भी वह बहुत खुश थी उसने अपने पति का आजादी की लड़ाई मे भरपूर सहयोग दिया श्रीमती एमिली शेंकल बोस ने अपने प्रयास से सुभाष चंद्र बोस की मुलाकात जर्मनी के तानाशाह सासक हिटलर से करवाई ओर भारत को आजादी दिलाने मे सहयोग की पेशकश की थी जिसे हिटलर ने स्वीकार किया ओर भरपूर मदद भी की अपने मित्र राष्ट् जापान से भी मदद दिलवाई सैनिक उपलब्ध करवाये फिर भी हमारे आजाद देश ने
इस बहू के आगमन के लिए कभी इस बहू का स्वागत नहीं किया....
गया न ही इस बहू के आगमन में किसी ने मंगल गीत गाये और न उसकी बेटी के जन्म पर कोई सोहर गायी गई.......
भारत की राजनीति मे किसी भी दल ने कभी कहीं जनमानस में चर्चा तक नहीं हुई के वो कैसे जीवन गुजार रही है.......
सात साल के कुल वैवाहिक जीवन में सिर्फ 3 साल ही उन्हें अपने पति के साथ रहने का अवसर मिला, फिर उन्होंने नन्हीं सी बेटी ओर पत्नी को छोड़ पति देश के लिए लड़ने चला आया भारत इस वादे के साथ के पहले देश को आज़ाद करा लूं फिर तो सारा जीवन तुम्हारे साथ बिताना ही है.....
आजादी की लड़ाई मे नागालैंड की राजधानी कोहिमा से पूर्व दिशा मे जसामी मसूरी-केफरी रोङ पर मात्र 20 KM दूर चकभामा जगह से सुभाष चंद्र बोस ने हेलिकॉप्टर से अंतिम उड़ान भरी थी जिसके बाद जापान सरकार ने उनकी जान की रक्षा के लिए एक अफवाह फैलाई की बोस की विमान हादसे मे मोत हो गई लेकिन वहा से सुरक्षित उन्हे दुसरे देश भेज दिया गया जबकि यह अफवाह जारी रखी गई कि जबकि ऐसा हुआ नहीं औऱ 1945 में एक कथित विमान दुर्घटना में वो लापता हो गए......!
मरे नही थे मे EX आर्मी कमांडो पूर्ण विश्वास के साथ यह लेख तथ्यो के साथ लिखा है।
उस समय #एमिलीशेंकल बेहद युवा थीं ओर बहुत ही खूबसूरत ओर समझदार थी, चाहतीं तो यूरोपीय संस्कृति के हिसाब से दूसरा विवाह कर सकतीं थीं पर उन्हों ने ऐसा नहीं किया और सारा जीवन बेहद कड़ा संघर्ष करते हुए बिताया....
वह जर्मनी मे एक तारघर की मामूली क्लर्क की नौकरी और बेहद कम वेतन के साथ वो अपनी बेटी को पालतीं रहीं न किसी से शिकायत की न कुछ मांगा.......
मागा -----भी तो केवल अपना हक केवल एक बार अपनी ससुराल की जमीन के दर्शन ओर इस भारत भूमि को नमन करना चाहती थी।
लेकिन गद्दार कांग्रेस के गाँधी खान परिवार ने उनको भारत आने की अनुमति नही दी भारत सरकार से वीजा नही दिया गया।
भारत भी तब तक आज़ाद हो चुका था और वे चाहतीं थीं कम से कम एक बार उस देश में आएं जिसकी आजादी के लिए उनके पति ने जीवन दिया .....
भारत का एक अन्य राजनीतिक गांधीखान परिवार इतना भयभीत था इस एक महिला से के जिसे सम्मान सहित यहां बुला देश की नागरिकता देनी चाहिए थी उसे कभी भारत का वीज़ा तक नहीं दिया गया.......
आखिरकार बेहद कठिनाइयों भरा, और किसी भी तरह की चकाचोंध से दूर रह बेहद साधारण जीवन गुजार श्रीमती एमिली शेंकल ने मार्च 1996 में गुमनामी में ही जीवन त्याग दिया......
मे EX आर्मी कमांडो उन्हे शत् शत् नमन करता हू
श्रीमती एमिली शेंकल का पूरा नाम था "#श्रीमतीएमिलीशेंकलबोस"
ओर बेटी का नाम
"#अरूणाबोस/अनिता बोस" पुत्री श्री सुभाष चंद्र बोस है, जो इस देश के सबसे लोकप्रिय आजादी के महानायक जननेता नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की धर्मपत्नी थीं ! और जिन्हें गांधी कुनबे ने कभी इस देश में पैर नहीं रखने दिया.....
शायद नेहरू और उसका कुनबा जानता था ये देश इस विदेशी बहू को सर आंखों पर बिठा लेगा जैसा कि अब विदेशी सोनिया गाँधी खान के साथ हो गया है, उन्हें एमिली बोस का इस देश में पैर रखना अपनी सत्ता के लिए चुनोती लगा......और शायद था भी सत्य।
कांग्रेसी और उनके जन्मजात अंध चाटुकार, कुछ पत्रकार , और इतिहासकार (?) अक्सर विदेशी मूल की राजीव की बीवी मतलब पप्पूआ की अम्मा को देश की बहू का ख़िताब दे डालते है.....उसकी कुर्बानियों (जोकि हैं नहीं) का बखान बेहिसाब कर डालते है.....
क्या एंटोनिया (सोनिया) माइनो कभी भी श्रीमती एमिली बोस के पैरों की धूल भी नही हो सकती, या उनकी मौन कुर्बानियों के सामने कहीं भी ठहर सकती है क्या ....!!!!!!!!
अपील आप सभी देशभक्त हिन्दू भाई-बहनो से
इस पोस्ट को शेयर करके हर भारतीय देशभक्त सुभाष चंद्र बोस के परिवार को उनकी बेटी जो हम सभी भारतीयो का फर्ज बनता है कि न्याय दिलाने मे सहयोग करे ओर हम कर भी सकते है
क्योंकि आज भारत मे BJP की सरकार है हो सकता है मोदी यह देशहित मे देश की बेटी को भारत बुलाकर उन्हे वो सम्मान दे जिसकी वो हकदार है
पोस्ट को सरकार तक पहुचाने मे शेयर करके सहयोग करे गोरी सरकार से किये हुए इन काले अंग्रेज़ों के काले एग्रीमेंट , जो आज भी यथावत लागू है , के अनुसार मुझे नहीं लगता कि कोई भी सरकार ऐसा श्रेष्ठ कदम उठायेगी । इसके लिए तो आम हिंदुस्तानी को ही आवाज़ उठानी होगी । जय हिंद
= देशभक्ती; धार्मिक; राजनीतिक; पर आधारित बिल्कुल सत्य जानकारी के लिए आप हमसे मित्रता कर सकते है या हमे फॉलो कर सकते है
= EX आर्मी कमांडो
श्री लिलाधर लमोरिया
जय श्री राम राम
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Saturday, 28 July 2018

जातियां , आरक्षण और भारत विखंडन
भारत वर्ष में एक समय प्रबुद्ध हिन्दू मन "स्वदेशी" "हिन्दू" व "राष्ट्रीय" को एक ही समझता था। उसकी यह दृष्टि ब्रिटिश शासकों से छिपी न रह सकी। 1880 में सर जान सीले ने इंग्लैंड में एक भाषण माला में स्पष्ट शब्दों में प्रतिपादित किया कि भारत में राष्ट्रीयता की आधारभूमि हिन्दू समाज में ही विद्यमान है अत: भारत में ब्रिटिश शासन के स्थायित्व के लिए आवश्यक है कि हिन्दू मन की सामाजिक विजय के उपाय खोजे जाएं।
सर जान सीले की प्रसिद्ध पुस्तक "एक्सपेंशन आफ इंग्लैंड" के इन अंशों को प्रसिद्ध देशभक्त लाला हरदयाल ने "सोशल कान्क्वेस्ट आफ हिन्दू रेस" शीर्षक से प्रकाशित किया था।
1945 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संघ-स्वयंसेवकों को यह पुस्तक आग्रहपूर्वक पढ़वायी जाती थी।
ब्रिटिश शासकों की यह विशेषता रही है कि वे किसी समस्या का गहरा अध्ययन कर एक दूरगामी रणनीति तैयार करते थे। वे समझते थे कि किसी देश की सामाजिक विजय के लिए आवश्यक है कि उनके मन-मस्तिष्कों को बदला जाए, उनके मस्तिष्क-बोध को घायल किया जाए, उनकी इतिहास दृष्टि को विकृत किया जाए अर्थात् सामाजिक विजय के पूर्व उसकी बौद्धिक आधारशिला निर्माण की जाए। इस दृष्टि से उन्होंने हिन्दू समाज की रचना का सूक्ष्म अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि हिन्दू समाज का ऐतिहासिक विकास वर्ण और जनपद के आधार पर हुआ है।
इतिहास द्वारा प्रदत्त वर्ण और जनपद चेतना की जड़ें हिन्दू मानस में गहरी जमी हैं।
जाति, क्षेत्र व भाषा की यह विविधता हिन्दू समाज जीवन का दृश्यमान यथार्थ है। उन्होंने यह भी देखा कि इस ऊपरी विविधता के नीचे सामाजिक‚, भौतिक एवं सांस्कृतिक एकता का एक अखिल भारतीय शक्तिशाली अंतप्रवाह भी विद्यमान है, जो आधुनिक परिभाषा की राष्ट्रीयता की आधारभूमि प्रदान करता है ।
संचार, परिवहन और विचार प्रसारण के आधुनिक साधनों का उपयोग कर यह अखिल भारतीय सांस्कृतिक अन्तप्र्रवाह धीरे-धीरे राजनीतिक धरातल पर भी प्रगट हो सकता है ।
अत: ब्रिटिश नीति का लक्ष्य बन गया-जाति और जनपद की संकुचित चेतना का अखिल भारतीय राष्ट्रीय चेतना में उन्नयन होने से रोकना, इन संकुचित निष्ठाओं को उत्तरोत्तर गहरा करते हुए उन्हें परस्पर प्रतिस्पर्धी बनाना, उनमें एक दूसरे के प्रति शत्रुभाव पैदा करना। एकता के सूत्रों को दुर्बल करना और भेद भावना को सुदृढ़ करना।
इसकी बौद्धिक आधारशिला तैयार करने के लिए उन्होंने नवोदित आर्य आक्रमण सिद्धान्त का पूरा-पूरा उपयोग किया।
1880 में एक ओर तो सर जान स्ट्रेची ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक "इंडिया" में लिखा कि भारत कोई देश या राष्ट्र नहीं है, वह मात्र एक भूखण्ड है, जिस पर एक दूसरे से पूरी तरह असम्बद्ध जातियों, भाषा-भाषी, उपासना पद्धतियों एवं नस्लों के लोग वास करते हैं ।
उसी समय सर विलियम हंटर ने भारत के गजेटियर के लिए "भारत" पर एक लम्बा निबन्ध लिखा जिसमें आर्य आक्रमण सिद्धान्त का उपयोग करते हुए कहा गया कि पहले हम भारत में "हिन्दू और मुसलमान" जैसी केवल दो जातियों का ही अस्तित्व देखते थे पर अब गहरा अध्ययन करने से हम जान पाए हैं कि भारत में चार अलग-अलग मनुष्य समूहों का वास है।
हंटर ने उपासना पद्धति के आधार पर मुसलमानों को तो एक अलग नस्ल मान लिया जबकि हिन्दू समाज को नस्ल के आधार पर तीन हिस्सों में विभाजित कर दिया। यही हंटर साहब हैं, जिन्होंने वायसराय लार्ड मेयो के आदेश पर भारतीय राष्ट्रवाद के विरुद्ध एंग्लो-मुस्लिम गठबंधन का बौद्धिक पुल तैयार करने के लिए 1871 में "इंडियन मुसलमान्स" नामक महत्वपूर्ण रचना लिखी थी ।
इससे भी बड़े आश्चर्य की बात यह है कि हिन्दू समाज के भीतर जो कृत्रिम विभाजन रेखाएं हंटर ने 1880 में खींची थीं वे स्वतंत्रता प्राप्ति के 60 वर्ष बाद भी भारत में मिटने के बजाय और गहरी हुई हैं। सवर्ण या कास्ट हिन्दू, अनुसूचित जाति/जनजाति एवं अन्य पिछड़े वर्ग या जातियां हंटर द्वारा खींची गयीं विभाजन रेखाओं पर आधारित हैं।
यह जानने के बाद भी कि अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के बीच भौगोलिक, आर्थिक, सामाजिक एवं जीवनशैली की दृष्टि से कुछ भी समान नहीं है। स्वाधीन भारत इन दो सर्वथा भिन्न जनसमूहों को एक ही अनुसूचित जाति/जनजाति आयोग की रस्सी से बांध कर चलता रहा ।
किन्तु आर्य आक्रमण सिद्धान्त आज भी अन्य पिछड़े वर्गों या जातियों, अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के पृथकतावादी चिन्तन व लेखन का मुख्य बौद्धिक अधिष्ठान है।
जाति, जनपद और भाषा की संकुचित चेतनाओं को गहरा करने और उन्हें परस्पर प्रतिस्पर्धी बनाने में मुख्य भूमिका निभाई ब्रिटिश जनगणना नीति ने , 1864-65 से कुछ प्रान्तों में प्रारम्भ हुई जनगणना को ब्रिटिश शासकों ने 1871 में अखिल भारतीय दसवर्षीय जनगणना का रूप दे दिया। उसी परम्परा का हम आज भी पालन कर रहे हैं।
पृथक सिख पहचान को स्थापित करने में ब्रिटिश जनगणना नीति का ही मुख्य योगदान है। उन्होंने ही सिख पहचान को दशम गुरु गोविन्द सिंह द्वारा 1699 में रचित खालसा पंथ के पंच ककार जैसे बाह्र लक्षणों में समाहित करके सिख समाज को गुरु नानक देव से गुरु तेगबहादुर तक के नौ गुरुओं की आध्यात्मिक परंपरा एवं उनके स्रोत गुरु ग्रन्थ साहब व दशम ग्रन्थ से अलग कर दिया।
ब्रिटिश जनगणना रपटों में हिन्दू शब्द को उसके भू-सांस्कृतिक अर्थों से काटकर इस्लाम और ईसाई मत जैसे संगठित उपासना पंथों की पंक्ति में खड़ा कर दिया गया, यद्यपि प्रत्येक जनगणना अधिकारी ने हिन्दू शब्द की व्याख्या करते समय यह स्वीकार किया कि हिन्दू शब्द किसी विशिष्ट उपासना पद्धति का परिचायक नहीं है। इस अर्थान्तरण के साथ ही उन्होंने हिन्दू शब्द से द्योतित समाज की परिधि को भी छोटा करना प्रारंभ कर दिया। परिधि- संकुचन की इस प्रक्रिया के आधार पर हिन्दू की व्याख्या करते हुए 1891 के जनगणना आयुक्त सर अर्थल्स्टेन बेन्स ने अपनी रपट में लिखा,
"सिख, जैन, बौद्ध, एनीमिस्टिक (अर्थात् जनजातियां) तथा इस्लाम, ईसाइयत, पारसी एवं यहूदी मतानुयायियों को अलग करने के बाद जो बचता है वह "हिन्दू" शब्द के अन्तर्गत आता है।
यह जो बचा खुचा हिन्दू समाज है उसे भी जातीय, भाषायी एवं क्षेत्रीय प्रतिस्पर्धा में उलझा कर खंड-खंड करने का प्रयास ब्रिटिश जनगणना नीति के द्वारा आगे बढ़ता रहा। इस दिशा में हंटर के काम को हर्बर्ट रिस्ले ने आगे बढ़ाया।
रिस्ले के आग्रह पर ब्रिटिश सरकार ने पूरे भारत में जातियों एवं नस्लों की सूचियां व जानकारी एकत्र करने के लिए रिस्ले की अधीनता में एक सर्वेक्षण विभाग की स्थापना की, जिसने सिर, नाक आदि प्राकृतिक मानव अंगों के आधार पर नस्ल निर्धारण की अधुनातन यूरोपीय विद्या का भारत में प्रयोग किया और प्रत्येक भारतीय जाति में कितना आर्य, कितना अनार्य अंश है इसका निर्णय करने वाली एक विशाल ग्रंथ श्रृंखला का निर्माण कराया। क्षेत्रश: "कास्ट्स एण्ड ट्राइब्स" की ये सूचियां आज भी भारतीय विश्वविद्यालयों में शोध के मुख्य सन्दर्भ ग्रन्थ हैं।
हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय, शिमला के पूर्व कुलपति स्व. डा. एस.के. गुप्त के निर्देशन में भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद् (आई.सी.एच.आर.) ने ब्रिटिश जनगणना नीति के दस्तावेजीकरण पर एक बृहत प्रकल्प अंगीकार किया। प्रो. एस.के. गुप्त की अकस्मात् अनपेक्षित अकाल मृत्यु के बाद भी वह प्रकल्प आगे बढ़ता रहा। चार शोधार्थियों ने तीन-साढ़े तीन वर्ष तक कठिन परिश्रम करके 1871 से 1941 तक की जनगणना रपटों का गहन अध्ययन करके ब्रिटिश नीति पर प्रकाश डालने वाले हजारों दस्तावेज ढूंढ निकाले।
किन्तु भारत का बौद्धिक क्षेत्र भी संकीर्ण दलीय राजनीति का बन्दी बन गया है। अत: 2004 के सत्ता परिवर्तन के बाद आई.सी.एच.आर. पर काबिज माक्र्सवादी मस्तिष्क ने ऐसे मूलगामी निरापद राष्ट्रोपयोगी प्रकल्प पर भी रोक लगा दी।
खैर, इन जनगणना रपटों का अध्ययन करने से जो बात उभर कर सामने आई वह यह थी कि एक ओर तो ब्रिटिश जनगणना अधिकारी इस्लाम, ईसाई आदि उपासना पंथों को संगठित रूप देने का प्रयास कर रहे थे, दूसरी ओर हिन्दू समाज में जाति, भाषा और क्षेत्र की विविधता पर बल देकर आन्तरिक कटुता और प्रतिस्पर्धा के बीज बोने में लगे थे।
एक ओर तो वे अंग्रेजी शिक्षित हिन्दू मस्तिष्क में यह धारणा बैठा रहे थे कि जातिभेद ही भारत की अवनति और पराधीनता का मुख्य कारण है इसलिए जाति विहीन समाज रचना ही उनका लक्ष्य होना चाहिए , दूसरी ओर वे जनगणना के द्वारा जाति संस्था को सुदृढ़ एवं परस्पर प्रतिस्पर्धी बनाने का प्रयास कर रहे हैं। इस विषय को लेकर ब्रिटिश जनगणना अधिकारियों के बीच समय-समय पर आन्तरिक बहस भी हुई जिसमें एक पक्ष का कहना था कि सभ्यता के आधुनिक स्वरूप परिवर्तन के कारण जाति संस्था अप्रासंगिक एवं शिथिल हो रही है अत: उस पर इतना आग्रह करने का औचित्य क्या है ? पर सरकार की अधिकृत नीति जाति के आधार पर शैक्षणिक, आर्थिक एवं सामाजिक जानकारी का वर्गीकरण करना थी।
भारत के सार्वजनिक जीवन में जाति-आधारित आरक्षण सिद्धान्त को औपचारिक मान्यता का श्रेय 24 सितंबर, 1932 के पूना-पैक्ट को दिया जा सकता है। यद्यपि इस पैक्ट पर 18 नेताओं के हस्ताक्षर थे और महात्मा गांधी के हस्ताक्षर नहीं थे, तथापि इसे गांधी-अम्बेडकर पैक्ट भी कहा जाता है, क्योंकि हिन्दू समाज के तथाकथित सवर्ण एवं अवर्ण नेताओं के मध्य इस समझौते को कराने के लिए गांधी जी को आमरण अनशन की भट्टी से गुजरना पड़ा था। हम इस ऐतिहासिक पैक्ट की पूरी कहानी को किसी अगले लेख के लिए रोक कर केवल इतना बताना चाहेंगे कि गांधी जी को वह आमरण अनशन ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्जे मेकडानल्ड द्वारा 17 अगस्त, 1932 को घोषित "साम्प्रदायिक निर्णय" (कम्युनल अवार्ड) के उस अंश के विरोध में करना पड़ा था, जिसमें ब्रिटिश सरकार ने भारत के भावी संविधान में हिन्दू समाज की तथाकथित दलित जातियों को पृथक निर्वाचन एवं पृथक प्रतिनिधित्व का अधिकार दिया था। मुसलमानों को यह अधिकार वे 1909 में दे चुके थे और सिखों को उन्होंने 1919 के भारत एक्ट में दिया।
अब उन्होंने इसका विस्तार हिन्दू समाज के अव्याख्यायित दलित या अस्पृश्य जातियों के लिए करने की घोषणा की। गांधी जी ने ब्रिटिश सरकार के इस कदम को हिन्दू समाज को भीतर से तोड़ने के कुचक्र के रूप में देखा। यद्यपि ब्रिटिश सरकार ने दलित जातियों के लिए पृथक निर्वाचन की समयावधि केवल बीस वर्ष निर्धारित की थी और विधान मंडलों की 1400 से अधिक सीटों में से केवल 71 सीटें उनके लिए आरक्षित की थीं, किन्तु गांधी जी की दूर दृष्टि ने भांप लिया कि ब्रिटिश सरकार के इस कदम की अंतिम परिणति हिन्दू समाज के विभाजन में होगी। इसलिए उन्होंने घोषणा की कि मुसलमानों और सिखों को पृथक निर्वाचन का अधिकार दिये जाते समय मैं भारतीय राजनीति का अंग नहीं था और उसे प्रभावित करने की स्थिति में नहीं था, किन्तु इस समय अपनी आंखों के सामने हिन्दू समाज को विभाजित करने के किसी भी प्रयास का मैं अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी विरोध करूंगा।
गांधी जी ने कहा कि छुआछूत और ऊंच-नीच की समस्या हिन्दू समाज की आन्तरिक सामाजिक समस्या है, जिसका अंतिम चिरस्थायी हल हिन्दू समाज के भीतर प्रबल सामाजिक आंदोलन खड़ा करके ही हो सकता है। उसी सामाजिक आंदोलन को खड़ा करने के संकल्प की घोषणा करके मैं राउंड टेबिल कान्फ्रेंस से भारत लौटा था किन्तु ब्रिटिश सरकार ने मुझे भारत पहुंचते ही जेल में बंद कर दिया। अब आमरण अनशन पर जाने के सिवाय मेरे सामने कोई रास्ता नहीं बचा है। हिन्दू समाज की एकता को बचाने के लिए मैं अपने प्राणों की आहूति देना स्वीकार करूंगा।
20 सितम्बर, 1932 को अनशन प्रारंभ करने के पूर्व और अनशन के दौरान भी गांधी जी ने बार-बार दोहराया कि विधान मंडलों में आरक्षण इस समस्या का हल नहीं है, क्योंकि आरक्षण की व्यवस्था आरक्षण पाने वाले को कमजोर बनाती है, अपनी क्षमता के बल पर खड़ा होने का आत्मबल नहीं देती और साथ ही सवर्णों (गैर दलितों) को प्रायश्चित करने एवं छूआछूत व ऊंचनीच की खाई को और बढ़ा देती हैं संकलन
#अजय_कर्मयोगी


महर्षि भारद्वाज रचित ‘विमान शास्त्र‘ !!

जन सामान्य में हमारे प्राचीन ऋषियों-मुनियों के
बारे में ऐसी धारणा जड़ जमाकर बैठी हुई है कि
वे जंगलों में रहते थे,जटाजूटधारी थे,भगवा वस्त्र
पहनते थे,झोपड़ियों में रहते हुए दिन-रात ब्रह्म-
चिन्तन में निमग्न रहते थे,सांसारिकता से उन्हें
कुछ भी लेना-देना नहीं रहता था।

इसी पंगु अवधारणा का एक बहुत बड़ा अनर्थकारी
पहलू यह है कि हम अपने महान पूर्वजों के जीवन
के उस पक्ष को एकदम भुला बैठे,जो उनके महान्
वैज्ञानिक होने को न केवल उजागर करता है वरन्
सप्रमाण पुष्ट भी करता है।

महर्षि भरद्वाज हमारे उन प्राचीन विज्ञानवेत्ताओं में
से ही एक ऐसे महान् वैज्ञानिक थे जिनका जीवन तो
अति साधारण था लेकिन उनके पास लोकोपकारक
विज्ञान की महान दृष्टि थी।

महर्षि भारद्वाज और कोई नही बल्कि वही ऋषि है
जिन्हें त्रेता युग में भगवान श्री राम से मिलने का
सोभाग्य दो बार प्राप्त हुआ।

एक बार श्री राम के वनवास काल में तथा दूसरी
बार श्रीलंका से लौट कर अयोध्या जाते समय।

इसका वर्णन वाल्मिकी रामायण तथा तुलसीदास
कृत रामचरितमानस में मिलता है |

तीर्थराज प्रयाग में संगम से थोड़ी दूरी पर इनका
आश्रम था,जो आज भी विद्यमान है।

महर्षि भरद्वाज की दो पुत्रियाँ थीं,जिनमें से एक
(सम्भवत: मैत्रेयी) महर्षि याज्ञवल्क्य को ब्याही
थीं और दूसरी इडविडा (इलविला) विश्रवा
मुनि को।

महाभारत काल तथा उससे पूर्व भारतवर्ष में भी
विमान विद्या का विकास हुआ था।

न केवल विमान अपितु अंतरिक्ष में
स्थित नगर रचना भी हुई थी।

इसके अनेक संदर्भ प्राचीन वांग्मय में मिलते हैं ।

निश्चित रूप से उस समय ऐसी विद्या अस्तित्व
में थी जिसके द्वारा भारहीनता (zero gravity)
की स्थति उत्पन्न की जा सकती थी।

यदि पृथ्वी की गरूत्वाकर्षण शक्ति का उसी मात्रा
में विपरीत दिशा में प्रयोग किया जाये तो भारहीनता
उत्पन्न कर पाना संभव है।

विद्या वाचस्पति पं. मधुसूदन सरस्वती "इन्द्रविजय"
नामक ग्रंथ में ऋग्वेद के छत्तीसवें सूक्त प्रथम मंत्र का
अर्थ लिखते हुए कहते हैं कि ऋभुओं ने तीन पहियों
वाला ऐसा रथ बनाया था जो अंतरिक्ष में उड़ सकता था।

पुराणों में विभिन्न देवी देवता,यक्ष,विद्याधर
आदि विमानों द्वारा यात्रा करते हैं इस प्रकार
के उल्लेख आते हैं।

त्रिपुरासुर याने तीन असुर भाइयों ने अंतरिक्ष में
तीन अजेय नगरों का निर्माण किया था,जो पृथ्वी,
जल,व आकाश में आ जा सकते थे और भगवान
शिव ने जिन्हें नष्ट किया था।

वेदों मे विमान संबंधी उल्लेख अनेक स्थलों पर
मिलते हैं।

ऋषि देवताओं द्वारा निर्मित तीन पहियों के ऐसे
रथ का उल्लेखऋग्वेद (मण्डल 4,सूत्र 25, 26) में
मिलता है, जो अंतरिक्ष में भ्रमण करता है।

ऋषिओं ने मनुष्य-योनि से देवभाव पाया था।

देवताओं के वैद्य अश्विनीकुमारों द्वारा निर्मित
पक्षी की तरह उडऩे वाले त्रितल रथ,विद्युत-रथ
और त्रिचक्र रथ का उल्लेख भी पाया जाता है।

महाभारत में श्री कृष्ण,जरासंध आदि
के विमानों का वर्णन आता है।

वाल्मीकि रामायण में वर्णित ‘पुष्पक विमान’
(जो लंकापति रावण के पास था) के नाम से तो
प्राय: सभी परिचित हैं।

लेकिन इन सबको कपोल-कल्पित
माना जाता रहा है।

लगभग छह दशक पूर्व सुविख्यात भारतीय
वैज्ञानिक डॉ0 वामनराव काटेकर ने अपने
एक शोध-प्रबंध में पुष्पक विमान को अगस्त्य
मुनि द्वारा निर्मित बतलाया था,जिसका आधार
`अगस्त्य संहिता´ की एक प्राचीन पाण्डुलिपि थी।

अगस्त्य के `अग्नियान´ ग्रंथ के भी सन्दर्भ अन्यत्र
भी मिले हैं।

इनमें विमान में प्रयुक्तविद्युत्-ऊर्जा के लिए
`मित्रावरुण तेज´ का उल्लेख है।

महर्षि भरद्वाज ऐसे पहले विमान-शास्त्री हैं,
जिन्होंने अगस्त्य के समय के विद्युत्ज्ञान
को अभिवर्द्धित किया।

महर्षि भारद्वाज ने " यंत्र सर्वस्व " नामक ग्रंथ
लिखा था, जिसमे सभी प्रकार के यंत्रों के बनाने
तथा उन के संचालन का विस्तृत वर्णन किया।
उसका एक भाग वैमानिक शास्त्र है |

इस ग्रंथ के पहले प्रकरण में प्राचीन विज्ञान विषय
के पच्चीस ग्रंथों की एक सूची है,
जिनमें प्रमुख है अगस्त्यकृत - शक्तिसूत्र,
ईश्वरकृत - सौदामिनी कला,भरद्वाजकृत -
अशुबोधिनी,यंत्रसर्वसव तथा आकाश शास्त्र,
शाकटायन कृत - वायुतत्त्व प्रकरण, नारदकृत,
- वैश्वानरतंत्र,धूम प्रकरण आदि ।

विमान शास्त्र की टीका लिखने वाले बोधानन्द
लिखते है -

निर्मथ्य तद्वेदाम्बुधिं भरद्वाजो महामुनिः।
नवनीतं समुद्घृत्य यन्त्रसर्वस्वरूपकम्‌।
प्रायच्छत्‌ सर्वलोकानामीप्सिताज्ञर्थ लप्रदम्‌।
तस्मिन चत्वरिंशतिकाधिकारे सम्प्रदर्शितम्‌॥
नाविमानर्वैचित्र्‌यरचनाक्रमबोधकम्‌।
अष्टाध्यायैर्विभजितं शताधिकरणैर्युतम।
सूत्रैः पञ्‌चशतैर्युक्तं व्योमयानप्रधानकम्‌।
वैमानिकाधिकरणमुक्तं भगवतास्वयम्‌॥

अर्थात - भरद्वाज महामुनि ने वेदरूपी समुद्र का
मन्थन करके यन्त्र सर्वस्व नाम का ऐसा मक्खन
निकाला है,जो मनुष्य मात्र के लिए इच्छित फल
देने वाला है ।

उसके चालीसवें अधिकरण में वैमानिक प्रकरण
जिसमें विमान विषयक रचना के क्रम कहे गए हैं।

यह ग्रंथ आठ अध्याय में विभाजित है तथा उसमें
एक सौ अधिकरण तथा पाँच सौ सूत्र हैं तथा उसमें
विमान का विषय ही प्रधान है।

ग्रंथ के बारे में बताने के बादबोधानन्द भरद्वाज
मुनि के पूर्व हुए आचार्य व उनके ग्रंथों के बारे में
लिखते हैं।

वे आचार्य तथा उनके ग्रंथ निम्नानुसार हैं ।
( १ ) नारायण कृत - विमान चन्द्रिका
( २ ) शौनक कृत न् व्योमयान तंत्र
( ३ ) गर्ग - यन्त्रकल्प
( ४ ) वायस्पतिकृत - यान बिन्दु
(५) चाक्रायणीकृत -खेटयान प्रदीपिका
( ६ ) धुण्डीनाथ - व्योमयानार्क प्रकाश

विमान की परिभाषा देते हुए अष् नारायण ऋषि
कहते हैं जो पृथ्वी,जल तथा आकाश में पक्षियों
के समान वेग पूर्वक चल सके,उसका नाम
विमान है।

शौनक के अनुसार- एक स्थान से दूसरे स्थान
को आकाश मार्ग से जा सके,विश्वम्भर के अनुसार
- एक देश से दूसरे देश या एक ग्रह से दूसरे ग्रह जा
सके,उसे विमान कहते हैं।

अन्तर्राष्ट्रीय संस्कृत शोध मण्डल ने प्राचीन
पाण्डुलिपियों की खोज के विशेष प्रयास किये।

फलस्वरूप् जो ग्रन्थ मिले,उनके आधार पर
भरद्वाज का `विमान-प्रकरण´,विमान शास्त्र
प्रकाश में आया।

इस ग्रन्थ का बारीकी से अध्यन करने पर
आठ प्रकारके विमानों का पता चला :

1. शक्त्युद्गम - बिजली से चलने वाला।
2. भूतवाह - अग्नि, जल और वायु से चलने वाला।
3. धूमयान - गैस से चलने वाला।
4. शिखोद्गम - तेल से चलने वाला।
5. अंशुवाह - सूर्यरश्मियों से चलने वाला।
6. तारामुख - चुम्बक से चलने वाला।
7. मणिवाह - चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त मणियों
से चलने वाला।
8. मरुत्सखा - केवल वायु से चलने वाला।

इसी ग्रन्थ के आधार पर भारत के बम्बई
निवासी शिवकर जी ने Wright brothers
से 8 वर्ष पूर्व ही एक विमान का निर्माण
कर लिया था ।

सर्वप्रथम इस विमान शास्त्र को मिथ्या माना गया
परन्तु अध्ययन से चोंका देने वाले तथ्य सामने
आये जैसे विमान का जो प्रारूप तथा जिन धातुओं
से विमान का निर्माण।

इस विमान शास्त्र में उल्लेखित वह परिकल्पना
आधुनिक विमान निर्माण पद्धति से मेल खाती है।

#प्राचीन_समृद्ध_भारत
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महर्षि भरद्वाज को शत् शत् नमन,,
कोटि कोटि वंदन,,,

जयति पुण्य सनातन संस्कृति,,
जयति पुण्य भूमि भारत,,

सदा सर्वदा सुमंगल,,
हर हर महादेव,,
वंदेभारतमातरम,
जय भवानी,
जय श्री राम,,
चित्र में ये शामिल हो सकता है: पाठ