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हजारों कश्मीरी मुसलमानों ने पंडितों के घर को जलाना शुरू कर दिया। महिलाओं का बलात्कार कर, बच्चों का कत्ल कर उसके टूकडे महिलाओ को खिलाया गया !यह सभी हुआ योजनाबद्ध तरीके से। इसके लिए पहले से ही योजना बना रखी थी। यह सारा तमाशा पूरा देश मूक दर्शक बनकर देखता रहा।
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सबसे पहले हिन्दू नेता एवं उच्च अधिकारी मारे गए। फिर हिन्दुओं की स्त्रियों को उनके परिवार के सामने सामूहिक बलात्कार कर जिंदा जला दिया गया या नग्नावस्था में पेड़ से टांग दिया गया। बालकों को पीट-पीट कर मार डाला। यह मंजर देखकर कश्मीर से तत्काल ही 7,50,000 हिंदू पलायन कर दिल्ली पहुंच गए।
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देश का मुसलमान तब चुप था : संसद, सरकार, नेता, अधिकारी, लेखक, बुद्धिजीवी, समाजसेवी, भारत का मुसलमान और पूरा देश सभी चुप थे। कश्मीरी पंडितों पर जुल्म होते रहे और समूचा राष्ट्र चुपचाप तमाशा देखता रहा, आज इस बात को 25 साल गुजर गए... अब इन लोगों का होसला इतना अधिक हो गया है की देश में कई जगह पे कश्मीर का इतिहास दोहरा रहे हैं ... आज भी सभी चुप हैं ...
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देश का मुसलमान तब चुप था : संसद, सरकार, नेता, अधिकारी, लेखक, बुद्धिजीवी, समाजसेवी, भारत का मुसलमान और पूरा देश सभी चुप थे। कश्मीरी पंडितों पर जुल्म होते रहे और समूचा राष्ट्र चुपचाप तमाशा देखता रहा, आज इस बात को 25 साल गुजर गए... अब इन लोगों का होसला इतना अधिक हो गया है की देश में कई जगह पे कश्मीर का इतिहास दोहरा रहे हैं ... आज भी सभी चुप हैं ...
Arvind Jadoun
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हमारे देश में एक और मजे की बात है हम पाश्चात्य संस्कृति को अपना तो रहे है और हमारी पुरानी परम्परा और संस्कृति को भी तजते जा रहे है लेकिन वास्तव में जिन परम्पराओ को वक्त के साथ बदलना चाहिए उस पर हम कोई विचार नही करते.मसलन मृत्युभोज ये बकवास परम्परा आज भी कायम है सोचने वाली बात है किसी के यहाँ उसका अपना मर जाता है और लोग उसके उपलक्ष्य में भोजन रखते है और लोग खाते भी है??आखिर इसका क्या औचित्य है ये समझ से परे है?
दुसरा आजकल शहरों में विद्युत शवदाह बने है जिसको स्थापित करने में लाखो रुपयो का खर्च आता है बावजूद लोग उसका उपयोग ना करते हुए आज भी लकड़ी और कंडे (गाय के गोबर से बनते है कही इन्हें उपले भी कहा जाता है ) में जलाकर दाह संस्कार करते है.
हम पर्यावरण के असंतुलन का भयावह प्रभाव देख रहे है कही भूकंप,कहि अतिवृष्टि तो कही सुखा फिर भी हम इससे सीखने को तैयार नही है.सीमेंट क्रांक्रीट के जंगल तो वैसे ही हमारे देश में बनते जा रहे है और ऐसी परम्परा के चलते हरे पेड़ काटे जा रहे है.नदियो में गन्दगी प्रदुषण बढ़ रहा है.
दुसरा आजकल शहरों में विद्युत शवदाह बने है जिसको स्थापित करने में लाखो रुपयो का खर्च आता है बावजूद लोग उसका उपयोग ना करते हुए आज भी लकड़ी और कंडे (गाय के गोबर से बनते है कही इन्हें उपले भी कहा जाता है ) में जलाकर दाह संस्कार करते है.
हम पर्यावरण के असंतुलन का भयावह प्रभाव देख रहे है कही भूकंप,कहि अतिवृष्टि तो कही सुखा फिर भी हम इससे सीखने को तैयार नही है.सीमेंट क्रांक्रीट के जंगल तो वैसे ही हमारे देश में बनते जा रहे है और ऐसी परम्परा के चलते हरे पेड़ काटे जा रहे है.नदियो में गन्दगी प्रदुषण बढ़ रहा है.
हम यदि पेड़ लगा नहीं सकते पर कम से कम दाह संस्कार में विद्युत शवदाह में करके हरे भरे पेड़ काटने से तो रोक ही सकते है.
Abhay Arondekar
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