Friday 21 August 2015

अन्नप्राशन संस्कार :-


 सनातन धर्म संस्कारों में अन्नप्राशन संस्कार सप्तम संस्कार है | इस संस्कार में बालक को अन्न ग्रहण कराया जाता है | अब तक तो शिशु माता का दुग्धपान करके ही वृद्धि को प्राप्त होता था, अब आगे स्वयं अन्न ग्रहण करके ही शरीर को पुष्ट करना होगा, क्योंकि प्राकृतिक नियम सबके लिये यही है | अब बालक को परावलम्बी न रहकर धीरे-धीरे स्वावलम्बी बनना पड़ेगा | केवल यही नहीं, आगे चलकर अपना तथा अपने परिवार के सदस्यों के भी भरण-पोषण का दायित्व संम्भालना होगा | यही इस संस्कार का तात्पर्य है |
छ्ठे माह में बालक का अन्नप्राशन-संस्कार किया जाता है | शास्त्रों में अन्न को प्राणियों का प्राण कहा गया है | गीता में कहा गया है कि अन्न से ही प्राणी जीवित रहते हैं | अन्न से ही मन बनता है | इसलिए अन्न का जीवन में सर्वाधिक महत्तव है |
अन्नाशनान्मातृगर्भे मलाशाद्यपि शुद्धयति |
अर्थात :- माता के गर्भ में मलिन भोजन के जो दोष शिशु में आ जाते हैं, उनके निवारण और शिशु को शुद्ध भोजन कराने की प्रक्रिया को अन्नप्राशन-संस्कार कहा जाता है |
शिशु को जब छः से सात माह की अवस्था में पेय पदार्थ, दूध आदि के अतिरिक्त प्रथम बार यज्ञ आदि करके अन्न खिलाना प्रारंभ किया जाता है, तो यह कार्य अन्नप्रशन-संस्कार के नाम से जाना जाता है | इस संस्कार का उद्देश्य यह होता है शिशु सुसंस्कारी अन्न ग्रहण करे | शुद्ध एवं सात्त्विक, पौष्टिक अन्न से ही शरीर व मन स्वस्थ रहते हैं तथा स्वस्थ मन ही ईश्वरानुभुति का एक मात्र साधन है | आहार शुद्ध होने पर ही अंतःकरण शुद्ध होता है |
आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः |
अर्थात :- शुद्ध आहार से शरीर में सत्त्वगुण की वृद्धि होती है |
अन्न से केवल शरीर का पोषण ही नहीं होता, अपितु मन, बुद्धि, तेज़ व आत्मा का भी पोषण होता है | इसी कारण अन्नप्राशन को संस्कार रुप में स्वीकार करके शुद्ध, सात्त्विक व पौष्टिक अन्न को ही जीवन में लेने का व्रत करने हेतु अन्नप्राशन-संस्कार संपन्न किया जाता है | अन्नप्राशन का उद्देश्य बालक को तेजस्वी, बलशाली एवं मेधावी बनाना है, इसलिए बालक को धृतयुक्त भात या दही, शहद और धृत तीनों को मिलाकर अन्नप्राशन करने का का विधान है | छः माह बाद बालक हल्के अन्न को पचाने में समर्थ हो जाता है, अतः अन्नप्राशन-संस्कार छठें माह में ही करना चाहिए | इस समय ऐसा अन्न दिया जाता है, जो पचाने में आसान व बल प्रदान करने वाला हो |
छः से सात माह के शिशु के दांत निकलने लगते हैं और पाचन क्रिया प्रबल होने लगती है | ऐसे में जैसा अन्न खाना वह प्रारंभ करता है, उसी के अनुरुप उसका तन-मन बनता है | मनुष्य के विचार, भावना, आकांक्षा एवं अंतरात्मा बहुत कुछ अन्न पर ही निर्भर रहती है | अन्न से ही जीवनतत्त्व मिलते हैं, जिससे रक्त, मांस आदि बनकर जीवन धारण किए रहने की क्षमता उत्पन्न होती है | अन्न ही मनुष्य का स्वाभाविक भोजन है, उसे भगवान् का कृपा-प्रसाद समझकर ग्रहण करना चाहिए |
शास्त्रों में देवों को खाद्य पदार्थ निवेदित करके अन्न खिलाने का विधान बताया गया है | इस संस्कार में शुभमुहूर्त में देवताओं का पूजन करने के पश्चात् माता-पिता चांदी के चम्मच से खीर आदि पवित्र और पुष्टिकारक अन्न शिशु को चटाते हैं और निम्नलिखित मंत्र बोलते हैं :-
शिवौ ते स्तां व्रीहियवावबलासावदोमधौ |
एतौ यक्ष्मं वि बाधेते एतौ मुंचतो अंहसः ||
श्लोकार्थ :- जौ और चावल तुम्हारे लिए बलदायक तथा पुष्टिकारक हों, क्योंकि ये दोनों वस्तुएं यक्ष्मानाशक हैं तथा देवान्न होने से पापनाशक हैं |
इस संदर्भ में हमारे आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधाताओं का भी मानना है कि हमारे रहन- सहन के समान ही हमारे खान- पान का भी हमारे मन व बुद्धि पर प्रभाव पड़ता है | भोजन से पड़ने वाले इस अंतर को सात्विक पदार्थभोजी तथा मादक पदार्थभोजी व्यक्तियों में स्पष्टतः देखा जा सकता है | अतः शिशु को प्राणत्व प्रदान करने वाले तथा उसके चरित्र एवं स्वभाव के इस प्रथम अवसर पर उसका रुप ऐसा होना चाहिए, जो सुपाच्य होने के साथ- साथ उसके आने वाले जीवन में माधुर्य का तथा सात्विक प्रवृत्तियों का संचार करने वाला हो | अन्नप्राशन में उपर्युक्त लेह्य व्यंजन का विधान इसी दृष्टि से किया गया प्रतीत होता है |
यर्जुवेद चालीसवें अध्याया का पहला मन्त्र 'तेन त्यक्तेन भुंजीथा' (त्याग के साथ भोग करने) का र्निदेश करता है | हमारी परम्परा यही है कि भोजन थाली में आते ही चींटी, कुत्ता आदि का भाग उसमें से निकालकर पंचबलि करते हैं | भोजन ईश्वर को समर्पण कर या अग्नि में आहुति देकर तब खाते हैं | होली का पर्व तो इसी प्रयोजन के लिए है | नई फसल में से एक दाना भी मुख डालने से पूर्व, पहले उसकी आहुतियाँ होलिका यज्ञ में देते हैं | तब उसे खाने का अधिकार मिलता है | किसान फसल मींज-माँड़कर जब अन्नराशि तैयार कर लेता है, तो पहले उसमें से एक टोकरी भर कर धर्म कार्य के लिए अन्न निकालता है, तब घर ले जाता है | त्याग के संस्कार के साथ अन्न को प्रयोग करने की दृष्टि से ही धर्मघट-अन्नघट रखने की परिपाटी प्रचलित है | भोजन के पूर्व बलिवैश्व देव प्रक्रिया भी अन्न को यज्ञीय संस्कार देने के लिए की जाती है |
इसी प्रकार इस अनुष्ठान की संपन्नता के लिए प्रयुक्त किये जाने वाले रजत पात्रों के संबंध में भी कहा जा सकता है कि इसका चयन संभवतः रजत की स्वच्छता, निर्मलता तथा निर्विकारता ( इस पर जंग आदि का प्रभाव न होने से ) के कारण एवं गुणों की दृष्टि से इसे शीतल एवं सात्विक माना जाने के कारण ही किया गया होगा | इसके अतिरिक्त इसके चयन में शिशु की भौतिक समृद्धि की वह भावना भी रही होगी अर्थात् समृद्ध परिवार में उत्पन्न होना |
अतः शिशु को प्राणत्व प्रदान करने वाले तथा उसके चरित्र एवं स्वभाव के इस प्रथम अवसर पर उसका रुप ऐसा होना चाहिए, जो सुपाच्य होने के साथ- साथ उसके आने वाले जीवन में माधुर्य का तथा सात्विक प्रवृत्तियों का संचार करने वाला हो | अन्नप्राशन में उपर्युक्त लेह्य व्यंजन का विधान इसी दृष्टि से किया गया प्रतीत होता है |
इसके लिए शायद "पायसम्' ( खीर ) को ही सबसे अधिक उपयुक्त समझा गया, क्योंकि इसका रुप पेय तथा भोज्य के बीच का होता है तथा प्रतीकात्मक रुप में लण्डुल एवं दुग्ध की श्वेतता, शर्करा (खांड़)/ मधु (शहद) के माधुर्य के साथ पौष्टिकता एवं तेजस्विता प्रदान करने वाले घृत, रोगनाशक एवं पाचन शक्ति को पुष्ट करने वाले तुलसीदल के मिश्रण में निहित भावना से स्पष्टतः अवबोध्य है |
‪#‎विट्ठलदासव्यास‬
बच्चों को सफेद चीनी व् तामसिक भोजन नहीं खिलानी चहिए क्योंकि यह स्वास्थ के लिए हानि कारक है |

No comments:

Post a Comment