Saturday 26 December 2015

अद्भुत रहस्यों से पूर्ण पृथ्वी पर कैसे हुई सृष्टि !
एक बार मुनि कोष्टुकी ने महर्षि मारकंडेय से पूछा कि महात्मा हम जिस पृथ्वी पर निवास करते हैं यह अद्भुत रहस्यों से पूर्ण है। मैं जानना चाहता हूं कि इसकी सृष्टि कैसे हुई। मारकंडेय ने कहा कि वत्स ‘नार’ शब्द का अर्थ नीर या जल होता है। नार में अवतरित हुए परम पुरुष नारायण कहलाए। उन्हीं को हम भगवान भी कहते हैं।
उन्होंने बताया कि महापद्मकल्प की समाप्ति पर सर्वत्र जलमय हो अंधकार छा गया। भगवान नारायण जल के मध्य योगनिद्रा में थे। वे जब निद्रा से जाग्रतावस्था में आए तब महर्लोक के निवासियों, महासिद्ध योगियों आदि ने उनकी स्तुति की। अपने भक्तों की स्तुति सुनकर भगवान नारायण उनके सामने वराह रूप में प्रकट हुए। प्रलयकाल में समस्त पृथ्वी जलमय हो गई थी।
भगवान ने वराह रूप में पृथ्वी को जल से ऊपर उठाया और जल पर नाव की तरह पृथ्वी को ठहराया। तब जलमग्न पर्वत आदि को यथा प्रकार अवस्थित कर उनकी सृष्टि की। परिणामस्वरूप पांच पर्वो से समन्वित अविद्या का आविर्भाव हुआ। इसी को प्रकृति या माया कहते हैं। इसी माया के कारण महत्सर्ग, भूतसर्ग और त्वक्सर्ग नामक तीन इंद्रिय जन्य सर्ग उदित हुए। ये ही प्राकृत सर्ग कहलाते हैं।
तदनंतर ब्रह्मा के संकल्प मात्र से स्थावर, जंगम, निर्यक, देव, वाक नामक पांच सर्ग आविर्भूत हुए। इन्हें वैकारित सर्ग भी कहते हैं। इस क्रम में तीन प्राकृत सर्ग और पांच वैकारित सर्गो के सम्मेलन से काक कौमार नामक एक और सर्ग बना। इस प्रकार ब्रह्मा की सृष्टि नौ प्रकार से संपन्न हुई। सृष्टि का रहस्य समझकर कोष्टुकी परमानंदित हुए। उनके मन मे इन नव विश रचनाओं के विस्तृत विवरण जानने की जिज्ञासा हुई।
मारकंडेय ने सृष्टि का रहस्य विस्तार से समझाते हुए कहा कि ब्रह्मा ने सर्वप्रथम अपने जघनों से दानवों का सृजन किया और तत्काल अपने शरीर को त्याग दिया। वही अंधकारयुक्त रात्रि बना।
इसके बाद विधाता ने अपने मुख से देवताओं की सृष्टि की। इस रचना के पश्चात ब्रह्मा ने पुन: देह त्याग किया और वह दिन के रूप में परिवर्तित हुआ। इसी प्रकार ब्रह्मा ने अपने शरीर का बार त्याग कर पितृ देवताओं का सृजन किया।
इस देह के त्यागते ही वह संध्या के रूप में प्रकट हुई। अंत में चतुर्मुख धारी ब्रह्मा ने रजोगुण प्रधान देह धारण किया। इस देह के त्यागते ही उसके भीतर से मनुष्य पैदा हुए।
इस देह त्याग के साथ ज्योत्स्ना उदित हुई। इस कारण से राक्षसों को रात्रि के समय अधिक बल प्राप्त होता है और मनुष्यों को उदय काल में मंत्र शक्ति अधिक प्राप्त होती है। यही कारण है कि राक्षस रात्रिकाल में और मानव प्रभात काल में शत्रु संहार करने में अधिक समर्थ होते हैं।
मारकंडेय ने आगे कहा कि ब्रह्मा की सृष्टि यहीं समाप्त नहीं हुई। इसके बाद विधाता के विविध अवयवों से यक्ष, किन्नर, गंधर्व, अप्सराएं, पशु, पक्षी, मृग, औषध, वनस्पति, लता-गुल्म, चर-अचर आदि भूत समुदाय का जन्म हुआ।
अंत में ब्रह्मा के दाएं मुख से यज्ञ, श्रौत, गायत्री, छंद, ऋग्वेद आदि का उदय हुआ। बाएं मुख से त्रिष्णुप छंद, पंच दशस्तोम, बृहत सामवेद, पश्चिम मुख से संपूर्ण सामदेव, जगती छंद, सप्त दश स्तोम, वैरूप आदि तथा उत्तर मुख से इक्कीस अधर्वणवेद, आप्तोर्यम, अनुष्ठुप छंद, वैराज का उद्भव हुआ।
इस प्रकार ब्रह्मा के शरीर से समस्त प्रकार के स्थूल, सूक्ष्म, स्थावर, जंगम, अनुरूप, विकास, उनके अवशेष क्रम उत्पन्न हुए और पूर्व कल्पों की भांति सरस-विरस गुणों से प्रवर्धमान हुआ। इससे कार्य प्रत्येक कल्प में घटित होते हैं।
कोष्टुकी ने सृष्टि क्रम का विवरण प्राप्त कर महर्षि मारकंडेय की अनेक प्रकार से स्तुति की, फिर भी उनकी जिज्ञासा बनी रही। महर्षि को प्रसन्न चित्त देख कोष्टुकी ने वर्णाश्रम धर्मो का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा प्रकट की। इस पर मारकंडेय ने सृष्टिक्रम के कुछ और रहस्य बताए।
उन्होंने कहा कि वत्स! स्त्रष्टा के समस्त अवयवों से हजारों मिथुन यानी दंपति उत्पन्न हुए। उनका सौंदर्य अद्भुत था। वे रूप, यौवन और लावण्य में समान थे। वे प्रणय-द्वेष आदि गुणों से अतीत थे। नारियां रजोदोष से मुक्त थीं। यदि वे संतान की कामना रखते तो भगवान के नाम-स्मरण, देवताओं का ध्यान करके अपने संकल्प की सिद्धि कर लेते थे।
उस काल में उनके कोई नगर, आवास गृह, नाम मात्र के लिए भी न थे। इसलिए वे पर्वत, नदी, समुद्र तथा सरोवरों में अपना समय व्यतीत करते थे। उनकी आयु चार हजार वर्ष की हुआ करती थी। उस युग के समाप्त होने पर युग धर्म के अतिक्रमण के कारण व ऊध्र्व लोक से भूलोक में पहुंच जाते।
पुन: त्रेता युग में गृहों के रूप में प्रादुर्भूत कल्पतरुओं के आश्रम में पहुंच जाते। उनके पत्तों से उत्पन्न मधु का सेवन करते थे। परिणामस्वरूप कुछ समय बाद वे राग और द्वेष के वशीभूत हो दुर्व्यसनों के शिकार हो जाते। परस्पर शत्रुता के कारण गृहस्थ वृक्षों को काटकर अन्य प्रदेशों में गए और वहां पर नगर, गांव, गृह आदि बनाए।
प्राय: नगर दुर्ग, कंदक आदि से युक्त होते हैं। दुर्ग और कंदकों के बिना साधारण भवनोंवाले आवास स्थलों को नगर शाखाएं कहते हैं। कृषि कर्म करनेवाले शूद्रों के द्वारा निर्मित कराए गए गृह समुदाय को ग्राम मानते हैं।
इस प्रकार अनेक योजनों दूरी तक नगर और गांव अपने निवास के लिए बसाते हैं। व्यापार और वाणिज्य से दूर केवल पशु, भेड़, बकरियों से युक्त पशु समुदाय वाले ग्राम को यादव पल्ली कहते हैं। अब तुम योजना का परिणाम भी जानने को उत्सुक होंगे।
सुनो, एक बालिश्त या बित्ते के माने बारह इंच होता है। दो बालिश्त एक हाथ होता है। चार हाथ एक दंड कहलाता है। दो हजार दंड एक कोस होता है। दो कोस एक गण्यूति और दो गण्यूतियां मिलकर एक योजन होता है।
पृथ्वी लोक में पहुंचकर मनुष्य अन्न के अभाव में केवल मधुपान से अपना जीवन बिताने लगे थे। ऐसी स्थिति में दैव योग से वर्षा हुई। वर्षा के कारण वृक्ष और पौधे फलों से लद गए। फलों का सेवन कर उस युग के मनुष्य सुखपूर्वक जीवनयापन करने लगे।
कालांतर में उनमें राग-द्वेष उत्पन्न हुए। औषधियां नष्ट हो गईं। तब विधाता ने दया दिखाते हुए मेरू पर्वत को बछड़े के रूप में खड़ा करके भूदेवीरूपी गाय को दुहवा दिया। उसके भीतर से समस्त प्रकार के बीज उत्पन्न हुए। मनुष्य आनंद से नाच उठे।
पृथ्वी को जोतकर मानव समुदाय ने बीज बोए। उन बीजों के कारण से पृथ्वी के गर्भ से गेहूं आदि सत्रह प्रकार के धान्य पैदा हुए। इन धान्यों को ग्राम औषधियां कहा गया। इन धान्यों के आहार के सेवन से वर्तमान युग में स्त्रियां रजस्वला होने लगीं। परिणामस्वरूप पुरुष और स्त्री के संयोग से संतान होने लगी।
इसी युग में ब्रह्मा ने मानव जाति को चार वर्णो में विभाजित किया। ब्रह्मा ने अपने मुख से उत्पन्न मनुष्यों को क्षत्रिय, जघनों से उत्पन्न मानवों को वैश्य तथा पादों से उत्पन्न मानव समुदाय को ब्राह्मण, वक्ष से उत्पन्न लोगों को शूद्र का नामकरण किया।
अब उनके कर्मो का भी निर्धारण किया गया। वैदिक धर्मो का आचरण करना ब्राह्मणों का कर्तव्य बताया गया। क्षत्रियों के लिए युद्ध और सुरक्षा का दायित्व सौंपा गया। कृषि कार्य वैश्य समुदाय को तथा शूद्रों को अग्रवर्णो की सेवा करना और कृषि कर्म का भार सौंपा गया।
इस प्रकार वर्णाश्रम धर्मों की व्यवस्था करके समुचित रूप से उनका आचरण करनेवालों को क्रमश: ब्रह्मलोक, स्वर्गलोक, वायुलोक और गंधर्वलोक की प्राप्ति हुई।
वत्स कोष्टुकी मैं समझता हूं कि अब तुम्हारी सारी शंकाओं का समाधान हो गया है। यह कहकर मारकंडेय महर्षि संध्या वंदन करने निकल पड़े।

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