विजुअल पत्रकारों के भेष में छुपे राजदीप ,रवीश जैसे दलाल खुद को एक समय सत्ता और देश की धारा मोड़ने वाला "टर्नर" समझते थे !लेकिन जैसे ही सोशल मिडिया लोगो के हत्थे चढ़ा पत्रकारों के भेष में छुपे इन दलालों के नकाब एक एक कर उतरने लगे !सोशल मिडिया पर जैसे ही लोगो ने सबूतों के साथ इनको आइना दिखाया ये लोग जवाब देने की बजाय मैदान छोड़ कर ही भाग गए !
Saturday, 30 April 2016
मध्य प्रदेश के मुरैना से लगभग पचीस किलोमीटर दूर चम्बल के बीहड़ों में एक जगह पड़ती है "बटेश्वर".. वहां आठवीं से दसवीं शताब्दी के बीच गुर्जारा-प्रतिहारा वंशों द्वारा करीब एक ही जगह पर दो सौ मंदिरों का निर्माण किया गया था.. भगवान् शिव और विष्णु को समर्पित ये मंदिर खजुराहो से भी तीन सौ वर्ष पूर्व बने थे.. चम्बल में डाकुवों के आतंक के कारण ये और भी उपेक्षित रहे और लगभग सारे के सारे गिर चुके थे
भारतीय पुरातत्व विभाग के डायरेक्टर "के के मुहम्मद" ने इन मंदिरों को पुनर्स्थापित करने कि सौगंध ली.. उस समय उस क्षेत्र में "निर्भय सिंह गुर्जर" का आतंक था.. के के मुहम्मद ने ये काम अपनी ज़िम्मेदारी पर शुरू किया क्यूंकि ज़मीन में मिल चुके मंदिरों को पूरी तरह से उसी स्वरुप में दुबारा लाने का काम उनके जैसा अनुभवी विशेषग्य ही कर सकता था..
के के मुहम्मद बताते हैं कि जब पुनर्निर्माण का कार्य चल ही रहा था तो पहाड़ी के ऊपर के एक मंदिर में एक व्यक्ति उन्हें मिला जो बैठा बीड़ी पी रहा था.. के के साहब को गुस्सा आया और उन्होंने उस से कहा कि "तुमको पता है कि ये मंदिर है.. और तुम यहाँ बैठ के बीड़ी पी रहे हो?".. वो आगे बढे उसे वहां से निकालने के लिए तभी उनके एक अधिकारी ने पीछे से आके उनको पकड़ लिया और बीड़ी पीने वाले व्यक्ति की तरफ इशारा करके बोला "अरे आप इन सर को नहीं जानते हैं.. इन्हें पीने दीजिये".. के के मुहम्मद समझ गए कि ये निर्भय सिंह गुर्जर है.. और कहते हैं कि "मैं उसके चरणों में बैठ गया और उसे समझाने लगा कि एक समय था कि आपके ही वंश के लोगों ने इन मंदिरों को बनाया था.. और अगर आपके ही पूर्वजों की इन अनमोल धरोहर और मूर्तियों को अभी न बचाया गया तो ये समय के साथ गायब हो जायेंगी.. इसलिए क्या आप हमारी मदद नहीं करेंगे इनके पुनर्निर्माण में?".. निर्भय को के के मुहम्मद कि बात समझ आ गयी और उसने अपना पूरा सहयोग दिया उन्हें इन मंदिरों के पुनर्निर्माण में
के के मुहम्मद कि वजह से आज सौ से भी अधिक मंदिर वहां अपने पुराने रूप में लाये जा चुके हैं.. के के मुहम्मद इन मंदिरों को अपना तीर्थ मानते हैं.. और चाहते हैं कि आने वाले समय में इस स्थान को तीर्थ यात्रा के रूप में मान्यता मिले.. भारत के विभिन्न स्थानों पर जाने कितने मंदिरों का जीर्णोद्वार किया है के के मुहम्मद ने अब तक.. उनको मंदिरों और भारतीय मान्यातों का बहुत गूढ़ ज्ञान और श्रद्धा है.. क्यूंकि बिना श्रद्धा के इस तरह का पुनर्निर्माण संभव नहीं होता है
मगर क्या आने वाली पीढ़ी जब इन तीर्थों पर जयकारे लगाएगी तो क्या के के मुहम्मद को भी कभी याद करेगी या बस हमेशा यही याद रखेगी कि बाबर ने ये मंदिर गिराया और गजनवी ने वो?
चौथी क्लास में तीन बार फेल ने वो कर दिखाया
रायपुर. दुर्ग के सिरसा के किसान अशोक चंद्राकर चौथी क्लास में तीन बार फेल हो गए, तो 12 साल की उम्र में सब्जी बेचनी शुरू की। वे गली-गली घूमकर सब्जी बेचा करते थे। आज उनके पास 100 एकड़ जमीन है और रेंट के खेतों को मिलाकर कुल 900 एकड़ में खेती करते हैं। उन्होंने करीब 700 से ज्यादा लोगों को रोजगार भी दिया है।
आज अशोक सालाना 10 करोड़ की सब्जियां देश के अलग-अलग हिस्सों में सप्लाई करते हैं। 1973 में जन्मे अशोक का पढ़ाई में मन लगा नहीं, इसलिए उन्होंने काम में मन लगाया। उनके माता-पिता गांव के ही एक घर में काम किया करते थे। अशोक ने 14 साल की उम्र में नानी से एक खेत बटाई पर लेकर सब्जी उगानी शुरू की। इसे वे खुद घूम-घूमकर चरोदा, सुपेला भिलाई, चंदखुरी की गलियों में बेचते। इसी पैसे से पहले तीन, फिर चार, पांच आगे चलकर दस एकड़ खेत रेघा में ले लिया। उनका कारोबार बढ़ने लगा। अशोक के पास आज सौ एकड़ की मालिकाना जमीन सिरसा, तर्रा सहित कई जगहों पर है। इसके अलावा नगपुरा, सुरगी, मतवारी, देवादा, जंजगीरी, सिरसा जैसे गांवों में बटाई की जमीन है, जिस पर सब्जियां उगाई जा रही हैं। इसमें नगपुरा में सबसे अधिक दो सौ एकड़ पर टमाटर लगा है। आज उनके पास 25 से ज्यादा ट्रैक्टर व दूसरी गाड़ियां हैं। आधुनिक मशीनें हैं, जो दवा छिड़काव से लेकर सब्जियों को काटने का काम करती हैं। अशोक के मुताबिक आजकल लोग शार्टकट के चक्कर में रहते हैं, अगर आप किसी प्लान पर लगातार चलते हैं और इंतजार करते हैं, तो आपको रिजल्ट जरूर मिलेंगे। मेहनत का कोई ऑप्शन हो ही नहीं सकता। कल तक मैं दो-दो हजार के लिए तरसता था और आज 15-15 हजार रुपए वेतन दे रहा हूं।
आज अशोक सालाना 10 करोड़ की सब्जियां देश के अलग-अलग हिस्सों में सप्लाई करते हैं। 1973 में जन्मे अशोक का पढ़ाई में मन लगा नहीं, इसलिए उन्होंने काम में मन लगाया। उनके माता-पिता गांव के ही एक घर में काम किया करते थे। अशोक ने 14 साल की उम्र में नानी से एक खेत बटाई पर लेकर सब्जी उगानी शुरू की। इसे वे खुद घूम-घूमकर चरोदा, सुपेला भिलाई, चंदखुरी की गलियों में बेचते। इसी पैसे से पहले तीन, फिर चार, पांच आगे चलकर दस एकड़ खेत रेघा में ले लिया। उनका कारोबार बढ़ने लगा। अशोक के पास आज सौ एकड़ की मालिकाना जमीन सिरसा, तर्रा सहित कई जगहों पर है। इसके अलावा नगपुरा, सुरगी, मतवारी, देवादा, जंजगीरी, सिरसा जैसे गांवों में बटाई की जमीन है, जिस पर सब्जियां उगाई जा रही हैं। इसमें नगपुरा में सबसे अधिक दो सौ एकड़ पर टमाटर लगा है। आज उनके पास 25 से ज्यादा ट्रैक्टर व दूसरी गाड़ियां हैं। आधुनिक मशीनें हैं, जो दवा छिड़काव से लेकर सब्जियों को काटने का काम करती हैं। अशोक के मुताबिक आजकल लोग शार्टकट के चक्कर में रहते हैं, अगर आप किसी प्लान पर लगातार चलते हैं और इंतजार करते हैं, तो आपको रिजल्ट जरूर मिलेंगे। मेहनत का कोई ऑप्शन हो ही नहीं सकता। कल तक मैं दो-दो हजार के लिए तरसता था और आज 15-15 हजार रुपए वेतन दे रहा हूं।
Friday, 29 April 2016
इसे पूरा पढ़ा जाए और खातूनों का असली समर्थन किया जाए...
तृप्ति देसाई टाईप नकली समर्थन नहीं...
तृप्ति देसाई टाईप नकली समर्थन नहीं...
Zoya G Ansari
े तीन हिस्से हैं A.... B और C हो सकता है जिन दोस्तों को सब पता हो उन्हें गैरज़रूरी लगें , लेकिन बाकी दोस्तों को तीनो भाग से परिचित कराना जरूरी था . तीनो भाग एक दूसरे को Compliment करते हैं हो सकता है आपको इनमे disconnect लगे ...
★★★★★★★★★★★★★★★
A〕मेरा उद्देश्य शरीयत को नकारना या जायज़ ठहराना नही है , वो सकता है वो भी प्रभावी होती , लेकिन शरीयत पे कुछ कट्टरपंथी, और मध्यकालीन सोच वाले क़ाज़ी, उलेमा काबिज़ हैं . जो अपनी सुविधा के हिसाब से हदीस की व्याख्या करते हैं ! महिलाओं के मामले जैसे तलाक, मैहर की रकम, गुजारा , मार पीट आदि मामलों में फैसले उनके खिलाफ ही जाते हैं . उदाहरण के लिए .....
1-कुरआन में कहीं भी बुर्के का ज़िक्र पह्नावे के रूप में नही है , वहाँ बुर्के से मुराद है शालीनता और अपनी नजरो पे नियंत्रण , मर्दों के लिए भी बुर्के की हिदायत है ...लेकिन एक आम मुस्लिम यही बोलेगा के कुरआन में औरतों को बुर्के का हुक्म दिया गया है , क्यों के कम पढ़े ,कट्टर मौलवियों ने उन्हें यही तर्जुमा समझाया है .
2- हज़रात खदीजा (पैगम्बर मुहम्मद की पहली पत्नी )entrepreneur थीं खुद व्यापर करती थी लेकिन आम मुस्लिम को मौलवी समझाते हैं के औरत को घर की चाहर दीवारी से बाहर नही निकलना चाहिए .
3- हजरत आइशा के चरित्र पे कुछ लोगों ने सवाल उठाये थे तो पैगम्बर ने उनको चार चश्मदीदों को लाने को कहा जो आयशा पे लगे आरोपों को साबित कर सकें .(Necklace Incident ) लेकिन आज अगर कोई रेप का मामला शरिया अदालत में आता है तो पीडिता को खुद चार गवाह लाने को कहा जाता है, ना लाने पर पीडिता को ही 100 कोड़ों की सजा दी जाती है .
4-मेहर की रकम के बारे में भी कुरआन में उदारता से देने का हुक्म है , लेकिन होता क्या है , मेहर की रकम कुछ हज़ार रूपये मात्र !!
5-तीन बार मौखिक तलाक की कुरआन में कोई व्यवस्था नही है . कुरआन के हिसाब से तलाक एक लम्बी प्रक्रिया है जिसमे औरत को उसके हुकूक दिए बगैर छोड़ा नही जा सकता . लेकिन भरष्ट लालची क़ाज़ी मौलवी जुबानी तलाक ,यहाँ तक के SMS से हुए तलाक को भी जायज़ करार देकर कुरआन का मखौल उड़ा रहे हैं .
6-शरिया में बलात्कारी के लिए कड़ी सजा का प्रावधान है . लेकिन मेरठ के पास एक महिला जिसके साथ उसके ससुर ने रेप किया , शरिया अदालत ने पीडिता को उसी ससुर के साथ शादी करने का फैसला सुना दिया . याने कि दरिन्दे ससुर को ईनाम और सजा पीडिता को .
7- हदीस के हिसाब से औरत को तलाक के मामले में मर्दों से बड़ा हक हासिल है . एक शब्द है " खुला" जिसका मतलब है के औरत मरद को कभी भी तलाक दे सकती है और मर्द को इसपे सवाल उठाने का हक नही.
शरीयत को अगर आज से 1400 साल पुरानी व्यवस्था के हिसाब से देखा जाये तो वो प्रभावी थी . लेकिन आज भी उतनी ही प्रासंगिक हो ये ज़रूरी नही .
जबकि भारतीय न्याय व्यवस्था में तमाम कमजोरियों के बावजूद संशोधनों का प्रावधान है जो इसकी आत्मा को जीवित रखती है .
★★★★★★★★★★★★★★
B〕आज़ादी से पहले भारत में हिन्दू महिलाओं की स्थिति मुस्लिम महिलाओं के मुकाबले अधिक बुरी थी. उस समय से हिसाब से समाज और कार्यस्थल पे हिन्दू महिलाओं की स्थिति कमोबेश एक जैसी थी . सच तो ये है के सामाजिक प्रतिबंध हिन्दू महिलाओं पे अधिक थे . दकियानूसी, अंधविश्वास, आडम्बर और पाखंड की ज्यादा शिकार हिन्दू महिलायें थी. बाल विवाह, अशिक्षा, सती, विधवाओं की दुर्दशा किसी से छिपी नही थी . हिन्दू समाज में महिलाओं की दशा अपनी मुस्लिम बहनों के मुकाबले बदतर थी .
लेकिन तत्कालीन हिन्दू नेताओं (जिनमे पगतिशील और धर्मनिरपेक्ष सोच वाले अधिक थे) ने व्यावहारिकता का परिचय देते हुए हिन्दू समाज को संविधान के हवाले कर दिया . वैसे इसका कट्टरपंथी हिन्दूवादियों द्वारा इसका छिटपुट विरोध भी हुआ लेकिन सुधारवादियों की जीत हुई . जबकी मुसलमानों को उनके नेताओं ने धोखा दिया, वो मुसलमानों के लिए मुस्लिम पर्सनल लॉ की माग पे अड़ गये , प्रगतिशील हिन्दू नेता भी उनकी मांग के आगे झुक गये या यूँ मान लीजिये उन्होंने सोचा मुसलमानों का मामला है रहने दो !! संविधान के प्रभाव में आते ही कुछ वर्षों में असर दिखने लगा हिन्दू महिलाओं और दलितों के हालात सुधरने लगे , उनकी शिक्षा और आर्थिकी में सुधार हुआ , उनको हक मिले सत्ता और नौकरियों में उनकी भागीदारी बढ़ी . सच कहा जाए तो भारत के संविधान ने हिन्दुओं को बचा लिया .!
लेकिन दूसरी ओर मुस्लिम अपने मजहबी गुरूर और 1400 वर्ष पुरानी पुरुषवादी जिद से बाहर नही निकल पाए , दकियानूसी सोच वाले मुल्ला-मौलवीयों के हाथों में मुस्ल्मांनो की रहनुमाई आ गयी . दिनों दिन सत्ता , शिक्षा, राजनीति , व्यापार और नौकरियों में उनकी भागीदारी घटती गयी. 80 और 90 के दशक में तो मुसलमान की हैसियत सिर्फ "वोट बैंक" तक महदूद रह गयी. उनके नेता सत्ता से सौदेबाजी करते रहे और मुसलमानों के धार्मिक भावनात्मक मामलो को उठाकर उनको बेवकूफ बनाते रहे .
★★★★★★★★★★★★★★★
C〕 आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (AIMPLB)जाहिलों और कट्टरपंथियो का जमावड़ा है . ये धूर्त सियासतदां हैं या सियासी पार्टियों के एजेंट हैं जिनका आम मुसलमानों से कोई सरोकार नही . 1986 में शाहबानो मामले में इन्होने कांग्रेस को ब्लैकमेल करके सुप्रीम कोर्ट के फैसले को ही बदलवा दिया . तत्कालीन प्रधान्मन्त्री राजीव ने तब वोटों की खातिर मुसलिम महिलाओं के साथ धोखा किया था . सच तो ये है के मुसलमानों के नाम पे सियासत करने वाले कुछ मक्कार नेताओं ने पूरी मुस्लिम कौम के साथ धोखा किया और कांग्रेस इस गुनाह में बराबर हिस्सेदार थी . यहीं से गैर मुस्लिमो खासतौर पे कट्टरपंथी हिन्दू संगठनों को ये बात फैलाने का मौका मिल गया के सरकार मुस्लिमो का तुष्टीकरण कर रही है और उनको विशेषाधिकार देने के लिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ जा सकती है . जबकी सच तो ये था के "शाहबानो केस" में कांग्रेस और AIMPLB की मिलीभगत का नुक्सान मुसलमानों को ही हुआ . मुसलमान बदनाम हुए के वो महिला विरोधी हैं , दकियानूस हैं , धर्मांध हैं , उनका भारत के संविधान में विश्वास नही हैं !
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A〕मेरा उद्देश्य शरीयत को नकारना या जायज़ ठहराना नही है , वो सकता है वो भी प्रभावी होती , लेकिन शरीयत पे कुछ कट्टरपंथी, और मध्यकालीन सोच वाले क़ाज़ी, उलेमा काबिज़ हैं . जो अपनी सुविधा के हिसाब से हदीस की व्याख्या करते हैं ! महिलाओं के मामले जैसे तलाक, मैहर की रकम, गुजारा , मार पीट आदि मामलों में फैसले उनके खिलाफ ही जाते हैं . उदाहरण के लिए .....
1-कुरआन में कहीं भी बुर्के का ज़िक्र पह्नावे के रूप में नही है , वहाँ बुर्के से मुराद है शालीनता और अपनी नजरो पे नियंत्रण , मर्दों के लिए भी बुर्के की हिदायत है ...लेकिन एक आम मुस्लिम यही बोलेगा के कुरआन में औरतों को बुर्के का हुक्म दिया गया है , क्यों के कम पढ़े ,कट्टर मौलवियों ने उन्हें यही तर्जुमा समझाया है .
2- हज़रात खदीजा (पैगम्बर मुहम्मद की पहली पत्नी )entrepreneur थीं खुद व्यापर करती थी लेकिन आम मुस्लिम को मौलवी समझाते हैं के औरत को घर की चाहर दीवारी से बाहर नही निकलना चाहिए .
3- हजरत आइशा के चरित्र पे कुछ लोगों ने सवाल उठाये थे तो पैगम्बर ने उनको चार चश्मदीदों को लाने को कहा जो आयशा पे लगे आरोपों को साबित कर सकें .(Necklace Incident ) लेकिन आज अगर कोई रेप का मामला शरिया अदालत में आता है तो पीडिता को खुद चार गवाह लाने को कहा जाता है, ना लाने पर पीडिता को ही 100 कोड़ों की सजा दी जाती है .
4-मेहर की रकम के बारे में भी कुरआन में उदारता से देने का हुक्म है , लेकिन होता क्या है , मेहर की रकम कुछ हज़ार रूपये मात्र !!
5-तीन बार मौखिक तलाक की कुरआन में कोई व्यवस्था नही है . कुरआन के हिसाब से तलाक एक लम्बी प्रक्रिया है जिसमे औरत को उसके हुकूक दिए बगैर छोड़ा नही जा सकता . लेकिन भरष्ट लालची क़ाज़ी मौलवी जुबानी तलाक ,यहाँ तक के SMS से हुए तलाक को भी जायज़ करार देकर कुरआन का मखौल उड़ा रहे हैं .
6-शरिया में बलात्कारी के लिए कड़ी सजा का प्रावधान है . लेकिन मेरठ के पास एक महिला जिसके साथ उसके ससुर ने रेप किया , शरिया अदालत ने पीडिता को उसी ससुर के साथ शादी करने का फैसला सुना दिया . याने कि दरिन्दे ससुर को ईनाम और सजा पीडिता को .
7- हदीस के हिसाब से औरत को तलाक के मामले में मर्दों से बड़ा हक हासिल है . एक शब्द है " खुला" जिसका मतलब है के औरत मरद को कभी भी तलाक दे सकती है और मर्द को इसपे सवाल उठाने का हक नही.
शरीयत को अगर आज से 1400 साल पुरानी व्यवस्था के हिसाब से देखा जाये तो वो प्रभावी थी . लेकिन आज भी उतनी ही प्रासंगिक हो ये ज़रूरी नही .
जबकि भारतीय न्याय व्यवस्था में तमाम कमजोरियों के बावजूद संशोधनों का प्रावधान है जो इसकी आत्मा को जीवित रखती है .
★★★★★★★★★★★★★★
B〕आज़ादी से पहले भारत में हिन्दू महिलाओं की स्थिति मुस्लिम महिलाओं के मुकाबले अधिक बुरी थी. उस समय से हिसाब से समाज और कार्यस्थल पे हिन्दू महिलाओं की स्थिति कमोबेश एक जैसी थी . सच तो ये है के सामाजिक प्रतिबंध हिन्दू महिलाओं पे अधिक थे . दकियानूसी, अंधविश्वास, आडम्बर और पाखंड की ज्यादा शिकार हिन्दू महिलायें थी. बाल विवाह, अशिक्षा, सती, विधवाओं की दुर्दशा किसी से छिपी नही थी . हिन्दू समाज में महिलाओं की दशा अपनी मुस्लिम बहनों के मुकाबले बदतर थी .
लेकिन तत्कालीन हिन्दू नेताओं (जिनमे पगतिशील और धर्मनिरपेक्ष सोच वाले अधिक थे) ने व्यावहारिकता का परिचय देते हुए हिन्दू समाज को संविधान के हवाले कर दिया . वैसे इसका कट्टरपंथी हिन्दूवादियों द्वारा इसका छिटपुट विरोध भी हुआ लेकिन सुधारवादियों की जीत हुई . जबकी मुसलमानों को उनके नेताओं ने धोखा दिया, वो मुसलमानों के लिए मुस्लिम पर्सनल लॉ की माग पे अड़ गये , प्रगतिशील हिन्दू नेता भी उनकी मांग के आगे झुक गये या यूँ मान लीजिये उन्होंने सोचा मुसलमानों का मामला है रहने दो !! संविधान के प्रभाव में आते ही कुछ वर्षों में असर दिखने लगा हिन्दू महिलाओं और दलितों के हालात सुधरने लगे , उनकी शिक्षा और आर्थिकी में सुधार हुआ , उनको हक मिले सत्ता और नौकरियों में उनकी भागीदारी बढ़ी . सच कहा जाए तो भारत के संविधान ने हिन्दुओं को बचा लिया .!
लेकिन दूसरी ओर मुस्लिम अपने मजहबी गुरूर और 1400 वर्ष पुरानी पुरुषवादी जिद से बाहर नही निकल पाए , दकियानूसी सोच वाले मुल्ला-मौलवीयों के हाथों में मुस्ल्मांनो की रहनुमाई आ गयी . दिनों दिन सत्ता , शिक्षा, राजनीति , व्यापार और नौकरियों में उनकी भागीदारी घटती गयी. 80 और 90 के दशक में तो मुसलमान की हैसियत सिर्फ "वोट बैंक" तक महदूद रह गयी. उनके नेता सत्ता से सौदेबाजी करते रहे और मुसलमानों के धार्मिक भावनात्मक मामलो को उठाकर उनको बेवकूफ बनाते रहे .
★★★★★★★★★★★★★★★
C〕 आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (AIMPLB)जाहिलों और कट्टरपंथियो का जमावड़ा है . ये धूर्त सियासतदां हैं या सियासी पार्टियों के एजेंट हैं जिनका आम मुसलमानों से कोई सरोकार नही . 1986 में शाहबानो मामले में इन्होने कांग्रेस को ब्लैकमेल करके सुप्रीम कोर्ट के फैसले को ही बदलवा दिया . तत्कालीन प्रधान्मन्त्री राजीव ने तब वोटों की खातिर मुसलिम महिलाओं के साथ धोखा किया था . सच तो ये है के मुसलमानों के नाम पे सियासत करने वाले कुछ मक्कार नेताओं ने पूरी मुस्लिम कौम के साथ धोखा किया और कांग्रेस इस गुनाह में बराबर हिस्सेदार थी . यहीं से गैर मुस्लिमो खासतौर पे कट्टरपंथी हिन्दू संगठनों को ये बात फैलाने का मौका मिल गया के सरकार मुस्लिमो का तुष्टीकरण कर रही है और उनको विशेषाधिकार देने के लिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ जा सकती है . जबकी सच तो ये था के "शाहबानो केस" में कांग्रेस और AIMPLB की मिलीभगत का नुक्सान मुसलमानों को ही हुआ . मुसलमान बदनाम हुए के वो महिला विरोधी हैं , दकियानूस हैं , धर्मांध हैं , उनका भारत के संविधान में विश्वास नही हैं !
ग्वालियर से शिवपुरी के बीच के करीब ३०० आदिवासीयों के गांव पडते हैं, इन आदिवासी गांवों मे जहां बिजली आना चमत्कार से कम नही माना जाता वहां इशाई मिशनरीयों के ५० से ज्यादा स्कूल एक दो अस्पताल और १६ एन जी ओ चलते हैं जिनका मकसद उन आदिवासीयों को ईसाई बनाना नही बल्कि उनको सनातन धर्म से तोडना है क्योंकि असली इसाई तो वो खुद नहीं हैं।
पर इतनी मेहनत और पैसा खर्च करने के बाद भी वहां उनका काम रुका हुआ है। ग्वालियर युवा सेवा संघ के सद्स्य श्री श्याम भाई गुर्जर जी ने बताया था की पिछले तीन सालों मे ये अभी तक ३०-३५ धर्मांतरण ही कर पाये हैं, इनके काम मे जो सबसे बडा रोडा बना हुआ है वो है शिवपुरी लिंक रोड पर स्थित संत श्री आशारामजी का आश्रम। बापूजी के आश्रम से इन आदिवासी इलाकों में पिछले १० साल से यही सेवा चल रही है। होली, दीवाली, गुरु पूर्णिमा, शरद पूर्णिमा और अन्य पूण्य्दायी तिथियों पर आश्रम के सेवादारी इन स्थानों पर जाते हैं और इन भाइयों को इनकी जरूरतों का सामान देकर इन्हें धर्मांतरण की हानियों और सनातन धर्म के लाभ और व्यापकता से परिचित कराते हैं। इस आश्रम से हर माह करीब १.२५ लाख रुपये की सेवा इन भाइयों के बीच करी जाती है।
जो काम कोई सरकार नही कर पा रही उस काम को एक संत कर रहा है, वो भी जेल में बैठा हुआ। इस काम के लिये इन्हें कोई मीडिया कवरेज की जरुरत नहीं है।
यही कारण है की भारतीय मानस की बुद्धि मे सेंध लगा चुके विदेशी चंदे पर पलने वाले जहरीले पत्रकार उनको जेल मे रखने के लिये अपना दिन-रात एक किये हुये हैं।
पर इतनी मेहनत और पैसा खर्च करने के बाद भी वहां उनका काम रुका हुआ है। ग्वालियर युवा सेवा संघ के सद्स्य श्री श्याम भाई गुर्जर जी ने बताया था की पिछले तीन सालों मे ये अभी तक ३०-३५ धर्मांतरण ही कर पाये हैं, इनके काम मे जो सबसे बडा रोडा बना हुआ है वो है शिवपुरी लिंक रोड पर स्थित संत श्री आशारामजी का आश्रम। बापूजी के आश्रम से इन आदिवासी इलाकों में पिछले १० साल से यही सेवा चल रही है। होली, दीवाली, गुरु पूर्णिमा, शरद पूर्णिमा और अन्य पूण्य्दायी तिथियों पर आश्रम के सेवादारी इन स्थानों पर जाते हैं और इन भाइयों को इनकी जरूरतों का सामान देकर इन्हें धर्मांतरण की हानियों और सनातन धर्म के लाभ और व्यापकता से परिचित कराते हैं। इस आश्रम से हर माह करीब १.२५ लाख रुपये की सेवा इन भाइयों के बीच करी जाती है।
जो काम कोई सरकार नही कर पा रही उस काम को एक संत कर रहा है, वो भी जेल में बैठा हुआ। इस काम के लिये इन्हें कोई मीडिया कवरेज की जरुरत नहीं है।
यही कारण है की भारतीय मानस की बुद्धि मे सेंध लगा चुके विदेशी चंदे पर पलने वाले जहरीले पत्रकार उनको जेल मे रखने के लिये अपना दिन-रात एक किये हुये हैं।
ये फोटो कल के सेवा के हैं जब पूज्य बापूजी के अवतरण दिवस के उपलक्ष्य मे आदिवासि बहनों को साडियां वितरण के साथ भंडारे का प्रसाद भी दिया गया।
अनुस्वार (अं ) और विसर्ग(अ:)
संस्कृत भाषा की सबसे महत्वपूर्ण और लाभ दायक व्यवस्था है, अनुस्वार और विसर्ग. पुल्लिंग के अधिकांश शब्द विसर्गान्त होते हैं —
यथा- राम: बालक: हरि: भानु: आदि.
यथा- राम: बालक: हरि: भानु: आदि.
और नपुंसक लिंग के अधिकांश शब्द अनुस्वारान्त होते हैं—
यथा- जलं वनं फलं पुष्पं आदि.
अब जरा ध्यान से देखें तो पता चलेगा कि विसर्ग का उच्चारण और कपालभाति प्राणायाम दोनों में श्वास को बाहर फेंका जाता है. अर्थात् जितनी बार विसर्ग का उच्चारण करेंगे उतनी बार कपालभाति प्रणायाम अनायास ही हो जाता है. जो लाभ कपालभाति प्रणायाम से होते हैं, वे केवल संस्कृत के विसर्ग उच्चारण से प्राप्त हो जाते हैं.
उसी प्रकार अनुस्वार का उच्चारण और भ्रामरी प्राणायाम एक ही क्रिया है . भ्रामरी प्राणायाम में श्वास को नासिका के द्वारा छोड़ते हुए भौंरे की तरह गुंजन करना होता है, और अनुस्वार के उच्चारण में भी यही क्रिया होती है. अत: जितनी बार अनुस्वार का उच्चारण होगा , उतनी बार भ्रामरी प्राणायाम स्वत: हो जावेगा.कपालभाति और भ्रामरी प्राणायामों से क्या लाभ है? यह बताने की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि स्वामी रामदेव जी जैसे संतों ने सिद्ध करके सभी को बता दिया है. मैं तो केवल यह बताना चाहता हूँ कि संस्कृत बोलने मात्र से उक्त प्राणायाम अपने आप होते रहते हैं.
जैसे हिन्दी का एक वाक्य लें- ” राम फल खाता है“ इसको संस्कृत में बोला जायेगा- ” राम: फलं खादति”
राम फल खाता है ,यह कहने से काम तो चल जायेगा ,किन्तु राम: फलं खादति कहने से अनुस्वार और विसर्ग रूपी दो प्राणायाम हो रहे हैं. यही संस्कृत भाषा का रहस्य है.
संस्कृत भाषा में एक भी वाक्य ऐसा नहीं होता जिसमें अनुस्वार और विसर्ग न हों. अत: कहा जा सकता है कि संस्कृत बोलना अर्थात् चलते फिरते योग साधना करना.
- (शास्त्री नित्यगोपाल कटारे के लेख से)
केरल का कन्नूर एक ऐसा जिला है, जो संघस्वयंसेवकों पर हुए अत्याचारों की अनेकों अनकही कहानियाँ अपने अन्दर छुपाये हुए हैं ! यह दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि पुराने मीडिया की नजरे इनायत इधर नहीं है ! क्योंकि उसकी व्यस्तता और रूचि संघ परिवार के सकारात्मक सेवा कार्यों को विध्वंसक बताकर उसे अकारण बदनाम करने में ज्यादा है ! उसका कारण भी साफ़ है कि केंद्र में भले ही सत्ता परिवर्तन हो गया हो, किन्तु स्थापित मीडिया का वही पुराना एजेंडा है, संघ विरोध का एजेंडा ।
लेकिन जैसा कि कहा जाता है कि खून सिर चढ़कर बोलता है, सो कन्नूर हिंसा के तथ्य भी सामने आने लगे हैं और इसमें महती भूमिका निबाही है, आज की नई मीडिया अर्थात सोशल मीडिया ने । अब यह ताजा प्रकरण ही लीजिये ! अंग्रेजी के एक प्रमुख समाचार पत्र के प्रतिनिधि ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय सह प्रचार प्रमुख जे. नंदकुमार जी से भेंट कर कन्नूर में हुई हिंसक वारदातों के परिप्रेक्ष में साक्षात्कार देने का अनुरोध किया ! नंदकुमार जी ने उनका आग्रह स्वीकार कर साक्षात्कार दिया भी ! उन्हें कोई भी प्रश्न पूछने की पूर्ण स्वतंत्रता थी ! पत्रकार ने भी साक्षात्कार उपरांत वह प्रकाशनार्थ सम्पादक महोदय को दिया, किन्तु वह प्रकाशित नहीं हुआ ! क्यों नहीं हुआ, उसकी सहज कल्पना की जा सकती है ! लेकिन सोशल मीडिया में आज वह साक्षात्कार बहुचर्चित है ! शायद अखबार में छपता तो इतना नहीं पढ़ा जाता !
प्रस्तुत है उक्त साक्षात्कार का हिन्दी अनुवाद -
कन्नूर एक ऐसा वाम गढ़ है, जहां अखबार भी कौनसा पढ़ा जाए, इसका निर्धारण भी पार्टी करती है और यहां पुलिस बल और न्यायपालिका राजनीतिक दलों के हांथ का खिलौना है । कन्नूर जिले में संघ कार्यकर्ताओं पर हो रहे अत्याचार की इस श्रंखला के बारे में जानकारी प्राप्त होने पर मैंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय सह प्रचार प्रमुख जे. नंदकुमार जी का साक्षात्कार लेने का फैसला किया।
प्रश्न 1: क्या आप बता सकते हैं कि विगत पांच वर्षों में इस प्रकार के कितने हमले हुए ? क्या उसके आंकड़े मिल सकते है?
उत्तर: केरल में पिछले 50 वर्षों में आरएसएस से सम्बंधित 267 लोगों की हत्याएं हुईं हैं ! इनमें से 232 लोग सीपीएम द्वारा मारे गए थे । 2010 के बाद, सोलह आरएसएस कार्यकर्ताओं की सीपीएम द्वारा हत्या कर दी गई। किसी के पैर काट दिए गए, किसी की आँख फोड़ दी गईं, अनेकों को पीट पीट कर जीवन भर के लिए अपाहिज बना दिया गया ! इन घायलों की संख्या मारे गए लोगों से लगभग छह गुना है।
इन झड़पों के बाद शान्ति व्यवस्था के नाम पर पुलिस द्वारा क्रूरता का नंगा नाच किया गया ! हमारे निर्दोष कार्यकर्ताओं पर झूठे मुकदमे लादे गए, लोकअप में उन्हें बेरहमी से पीटा गया, यह अनुभव तो और भी बदतर था ।
प्रश्न 2: क्या इन हमलों का कोई निश्चित पैटर्न है, क्या ये हमले चुनाव के पूर्व ज्यादा होते हैं?
उत्तर: जी हां, इन सभी हमलों का एक पैटर्न है। लेकिन सामान्यतः राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के खिलाफ होने वाले सीपीएम के हमलों की संख्या का चुनाव की घोषणा से कोई संबंध नहीं हैं। हालांकि कांग्रेस और आईयूएमएल जैसे अन्य दलों के खिलाफ होने वाले सीपीएम के हमलों के मामले में यह सच है।
आरएसएस के खिलाफ हमलों के लगभग सभी मामले आरएसएस और भाजपा के विरुद्ध सीपीएम कार्यकर्ताओं और उनके परिवारों के प्रवाह से संबंधित हैं।
लेकिन इस बार अवश्य विधानसभा चुनाव के मद्देनजर आरएसएस और भाजपा के खिलाफ हमलों में एक बड़ी वृद्धि हुई है । इसका कारण यह है कि पहली बार सीपीएम को लग रहा है कि भाजपा को व्यापक जन समर्थन मिल रहा है, और वे किसी भी तरह से उसे रोकना चाहते हैं।
प्रश्न 3: क्या अधिकारियों द्वारा कोई कदम उठाये गए, क्या कोई गिरफ्तारी हुई ? यह आरोप लगाया गया है कि कुछ घटनाओं में, जैसे कि फरवरी में सुजीत पर हुए हमले का प्रकरण निजी दुश्मनी के कारण घटित हुआ, इन आरोपों के बारे में आपका क्या कहना है?
उत्तर: हाँ यह सच है कि सीपीएम द्वारा किये जाने वाले प्रत्येक हमले के बाद पुलिस कुछ लोगों को गिरफ्तार करती हैं। लेकिन लगभग सभी मामलों में, विशेष रूप से कन्नूर में, वास्तविक अपराधियों को हाथ भी नहीं लगाया जाता । पुलिस केवल उन लोगों को गिरफ्तार करती है, जिन्हें गिरफ्तार करने के लिए पार्टी हरी झंडी दे देती है !
इसे समझना चाहिए कि यह कैसे और क्यों होता है ! दरअसल सीपीएम नेतृत्व का अपने कार्यकर्ताओं और केरल पुलिस पर पूरा प्रभाव है ।
अब सवाल उठता है कि पार्टी यह क्यों करती है ? इसका एक कारण तो यह है कि गिरफ्तारी/ सरेंडर की इस नौटंकी में हत्यारी ब्रिगेड साफ़ बची रहती है- भविष्य में इस प्रकार के ऑपरेशन और करने के लिए पूर्ण स्वतंत्र – दूसरी बात यह कि जो कार्यकर्ता सरेंडर करते हैं, वे सबूतों के अभाव में अदालत से साफ़ बरी हो जाते हैं ! तीसरा यह कि इसके बाद भी अगर खुदाने खास्ता किसी को सजा हो भी जाए तो पार्टी, जो कि सामान्यतः हर पांच वर्ष बाद सत्ता में आ ही जाती है, उनके परिवारों को मुक्त हस्त से पुरष्कृत करती है ! इतना ही नहीं तो वे पैरोल पर बार बार जेल से छूटते भी रहते हैं!
फिर भी, कुछ वास्तविक हत्यारों को सजाएं हुई हैं, पर उसके पीछे सीपीएम की स्क्रिप्ट को धता बताने वाले कुछ अत्यंत बहादुर वरिष्ठ आईपीएस पुलिस अधिकारी होते है।
इस सबके प्रति कांग्रेस पार्टी और उसके प्रशासन का कहीं सक्रिय रूप से तो कहीं निष्क्रिय होकर सीपीएम के साथ मिलीभगत रहती है । इन राजनीतिक हत्याओं के पीछे छुपे मास्टरमाइंड को गिरफ्त में न लिए जाने के पीछे मुख्य कारण यह है कि सीपीएम और कांग्रेस दोनों ही भाजपा को अपना प्राथमिक शत्रु मानती हैं । यह अपवित्र गठबंधन बार बार प्रकाश में आता है, यहाँ तक कि स्वयं उच्च न्यायालय ने भी खुले तौर पर (और पहली बार नहीं) कहा है कि केवल सीबीआई जांच से ही इन राजनीतिक हत्याओं का सच सामने आ सकता है, क्योंकि इनमें कन्नूर के वास्तविक शासक (सीपीएम) शामिल हैं। एक मुस्लिम लीग कार्यकर्ता शुकूर की माकपा द्वारा की गई ह्त्या की सीबीआई जांच हेतु दायर की गई याचिका में अदालत ने अपना यह अभिमत दिया ।
आपने सुजीत की हत्या के पीछे निजी दुश्मनी संबंधी आरोप के बारे में पूछा है। यह सच नहीं है और मैं आग्रह करता हूं कि आप स्वयं इस आरोप के बारे में अपने स्तर पर जानकारी लें, वास्तविकता आपके सामने आ जायेगी ।
राज्य पुलिस की प्राथमिकी में भी इस बात की पुष्टि हुई थी कि सुजीत की ह्त्या एक राजनीतिक हत्या थी। सीपीएम के लोग अपने द्वारा की गई सभी हत्याओं को लेकर पूर्व से ही, “व्यक्तिगत कारणों से की गईं” का आरोप लगाते रहे हैं, फिर चाहे वह असंतुष्ट मार्क्सवादी टी.पी. चंद्रशेखरन की ह्त्या हो, अथवा भाजयुमो उपाध्यक्ष जयकृष्णन मास्टर या सुजीत का प्रकरण हो ।
उनके काम काम करने का यही ढंग है ! पहले टारगेट को अपनी इच्छा बताकर डराने के लिए उसके खिलाफ प्रचार अभियान चलाना, और अगर यह उपाय कारगर न हो तो फिर उसकी हत्या कर देना । हत्या के बाद सीपीएम का प्रयत्न रहता है, अपने प्रचार उपकरणों, जैसे टीवी चैनल (कैरली, पीपुल्स) और समाचार पत्र (देशाभिमानी) के माध्यम से, मृत व्यक्ति की चरित्र ह्त्या करना और यह प्रदर्शित करना कि उसकी ह्त्या उसकी अपनी व्यक्तिगत कमजोरी के कारण हुई, किसी राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के कारण नहीं । उनकी इस कार्यपद्धति को केरल का बच्चा बच्चा जानता है ।
प्रश्न 4: जो लोग मर जाते हैं और जो लोग गंभीर रूप से घायल हो जाते हैं, उन लोगों के परिवारों का क्या होता है ? क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में इन परिवारों की देखरेख हेतु कोई व्यवस्था है?
उत्तर: आरएसएस ने स्थानीय लोगों की मदद से अपने ऐसे पीड़ित कार्यकर्ता जिनकी हत्याएं हुई हैं, के परिजनों की देखरेख हेतु समुचित व्यवस्था बनाई है । इसी प्रकार अंगभंग के कारण स्थाई रूप से अपाहिज हुए कार्यकर्ताओं के उपचार में कोई कसर नहीं छोडी जाती । इस राज्य की भीषण परिस्थिति को देखते हुए संगठन ने इस सबके लिए एक तंत्र विकसित किया है ।
प्रश्न 5: देश में शाखाओं की सर्वाधिक संख्या केरल में है, राज्य में युवा आरएसएस में शामिल होने के लिए उत्सुक हैं, इसके पीछे आपको क्या कारण प्रतीत होता है, खासकर तब, जबकि इस क्षेत्र को कम्युनिस्टों का गढ़ माना जाता है?
उत्तर: साम्यवाद की क्यारी रहा केरल तेजी से इस्लामी आतंकवाद की प्रजनन भूमि में बदल रहा है। केरल के हिंदुओं में असुरक्षा की भावना है और वे इन ताकतों के खिलाफ एक सेतु के रूप में संघ को देखते हैं । कम्युनिस्ट पार्टियों ने अपने हिन्दू विरोधी रुख के कारण केरल की मूल परम्पराओं और जीवन मूल्यों को नष्ट करने की कोशिश की थी। युवा पीढ़ी अब एक बार फिर अपनी जड़ों से जुड़ना चाहती है, और वह संघ और उसके अनुसंगों में अपने सांस्कृतिक पुनरुत्थान को देख रही है।
इसके अतिरिक्त मुख्यधारा के राजनीतिक संगठनों के दुष्कर्म और भ्रष्टाचार को देखकर विशेष रूप से युवाओं में हताशा बढ़ रही है । संगठनात्मक योजना और प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं द्वारा योजनाओं के अनुशासित कार्यान्वयन के कारण केरल में आरएसएस का विकास मार्ग प्रशस्त हुआ है।
प्रश्न 6: आरएसएस कार्यकर्ताओं के खिलाफ बढ़ रहे हिंसक हमलों व उनके पीछे के कारणों के बारे में क्या आप कोई अन्य विशेष बात साझा करना चाहेंगे?
उत्तर: केरल में भी आरएसएस की कार्य प्रणाली पूरे भारत के ही समान है । हम लोग एक लोकतांत्रिक प्रणाली में काम करते हैं, और अपने साथ सम्पूर्ण समाज को जोड़ने का प्रयत्न करते हैं । हम सीपीएम या किसी अन्य संगठन को अपने 'दुश्मन' के रूप में नहीं देखते । हमारे पास समय है, हम फिर से शांति के लिए अपील करते हैं, ताकि यह स्थिति बदले और हम राज्य में अन्य संगठनों के समान अपने संगठनात्मक काम कर सकें ।
प्रमुख गांधीवादी विचारक उदयभानु सहित कई स्वतंत्र शोधकर्ताओं ने, जिन्होंने केरल में हत्या की राजनीति का अध्ययन किया, इस तथ्य को स्पष्ट रूप से कहा है। सम्पूर्ण विश्व में साम्यवाद का पतन होने के बाद सीपीएम ने केरल में दंभ को अपना दर्शन और हिंसा को उसके उपकरण के रूप चुना है।
आपको पता होना चाहिए कि उनका टार्गेट केवल आरएसएस ही नहीं है, सीपीएम ने कांग्रेस, आईयूएमएल और यहां तक कि एलडीएफ में उसके सहयोगी दलों - भाकपा और आरएसपी पर भी हमले किये हैं । पिछले हफ्ते, जब त्रिवेंद्रम में पूर्व प्रदेश अध्यक्ष मुरलीधरन सहित भाजपा कार्यकर्ताओं पर एक क्रूर हमला किया गया, अल्लेप्पी में एक कांग्रेस कार्यकर्ता (जो पहले सीपीएम में था, बाद में कांग्रेस में गया) की पार्टी ने ह्त्या की और नंद्पुरम में 3 मुस्लिम लीग कार्यकर्ताओं पर सीपीएम ने बम से हमला कर घायल कर दिया ।
जब हिंसा की बात हो, तो सीपीएम सबसे आगे है ।
साभार मूल अंग्रेजी लिंक - http://www.opindia.com/…/interview-of-an-rss-leader-that-t…/
दुनिया का नंबर एक मॉडल बना
कैमरून अल्बोर्जियन से योगी कैमरून
कैमरून आज यह नाम पूरी दुनियां में चर्चित है कई विदेशी कंपनियों का प्रचार किया, विश्व की लगभग सभी
फैशन मेग्जिन के मुख्य पृष्ठ पर उनकी तस्वीर लगी.
लेकिन एक दुर्घटना ने उनका जीवन ही बदल दिया. जिसके बाद यह ख्यात मॉडल कैमरून से योगी
कैमरून बन गया.
कैमरून के योगी बनने का सफ़र पेरिस से सन 1987 में शिवानन्द आश्रम से शुरू हुआ. कैमरून ने अपनी
योग की पढाई केरल के नटराज वंशावली में श्री वासुदेवन के सानिध्य में की. कैमरून ने स्कूल ऑफ़
आयुर्वेद पूना से आयुर्वेद की पढाई डॉ. सचिन अरु और डॉ. सचिन कुबेर के मार्गदर्शन में पूरी की...वर्तमान
में योगी अपनी वेबसाइट के माध्यम से पुरे विश्व में योग का प्रचार प्रसार कर रहे है
Thursday, 28 April 2016
हिंदू, जैन और बौद्ध धर्म पुनर्जन्म मे यकीन करते है। हिंदू धर्म के अनुसार मनुष्य का केवल शरीर मरता है उसकी आत्मा नहीं। आत्मा एक शरीर का त्याग कर दूसरे शरीर में प्रवेश करती है, इसे ही पुनर्जन्म कहते हैं। हालांकि नया जन्म लेने के बाद पिछले जन्म कि याद बहुत हि कम लोगो को रह पाती है। इसलिए ऐसी घटनाएं कभी कभार ही सामने आती है। पुनर्जन्म की घटनाएं भारत सहित दुनिया के कई हिस्सों मे सुनने को मिलती है।
गीताप्रेस गोरखपुर ने भी अपनी एक किताब ‘परलोक और पुनर्जन्मांक’ में ऐसी कई घटनाओं का वर्णन किया है। हम उनमे से 10 कहानियां यहां पर आपके लिए प्रस्तुत कर रहे है।
पुनर्जन्म के ऊपर हुए शोध :
पुनर्जन्म के ऊपर अब तक हुए शोधों मे दो शोध (रिसर्च) बहुत महत्त्वपूर्ण है। पहला अमेरिका की वर्जीनिया यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक डॉ. इयान स्टीवेन्सन का। इन्होने 40 साल तक इस विषय पर शोध करने के बाद एक किताब “रिइंकार्नेशन एंड बायोलॉजी” लीखी जो कि पुनर्जन्म से सम्बन्धित सबसे महत्तवपूर्ण बुक मानी जाती है। दूसरा शोध बेंगलोर की नेशनल इंस्टीटयूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो साइंसीजय में क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट के रूप में कार्यरत डॉ. सतवंत पसरिया द्वारा किया गया है। इन्होने भी एक बुक “श्क्लेम्स ऑफ रिइंकार्नेशनरू एम्पिरिकल स्टी ऑफ केसेज इन इंडिया” लिखी है। इसमें 1973 के बाद से भारत में हुई 500 पुनर्जन्म की घटनाओ का उल्लेख है।
पुनर्जन्म के ऊपर अब तक हुए शोधों मे दो शोध (रिसर्च) बहुत महत्त्वपूर्ण है। पहला अमेरिका की वर्जीनिया यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक डॉ. इयान स्टीवेन्सन का। इन्होने 40 साल तक इस विषय पर शोध करने के बाद एक किताब “रिइंकार्नेशन एंड बायोलॉजी” लीखी जो कि पुनर्जन्म से सम्बन्धित सबसे महत्तवपूर्ण बुक मानी जाती है। दूसरा शोध बेंगलोर की नेशनल इंस्टीटयूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो साइंसीजय में क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट के रूप में कार्यरत डॉ. सतवंत पसरिया द्वारा किया गया है। इन्होने भी एक बुक “श्क्लेम्स ऑफ रिइंकार्नेशनरू एम्पिरिकल स्टी ऑफ केसेज इन इंडिया” लिखी है। इसमें 1973 के बाद से भारत में हुई 500 पुनर्जन्म की घटनाओ का उल्लेख है।
पहली घटना –
यह घटना सन 1950 अप्रैल की है। कोसीकलां गांव के निवासी भोलानाथ जैन के पुत्र निर्मल की मृत्यु चेचक के कारण हो गई थी। इस घटना के अगले साल यानी सन 1951 में छत्ता गांव के निवासी बी. एल. वाष्र्णेय के घर पुत्र का जन्म हुआ। उस बालक का नाम प्रकाश रखा गया। प्रकाश जब साढ़े चार साल का हुआ तो एक दिन वह अचानक बोलने लगा- मैं कोसीकलां में रहता हूं। मेरा नाम निर्मल है। मैं अपने पुराने घर जाना चाहता हूं। ऐसा वह कई दिनों तक कहता रहा।
प्रकाश को समझाने के लिए एक दिन उसके चाचा उसे कोसीकलां ले गए। यह सन 1956 की बात है। कोसीकलां जाकर प्रकाश को पुरानी बातें याद आने लगी। संयोगवश उस दिन प्रकाशकी मुलाकात अपने पूर्व जन्म के पिता भोलानाथ जैन से नहीं हो पाई। प्रकाश के इस जन्म के परिजन चाहते थे कि वह पुरानी बातें भूल जाए। बहुत समझाने पर प्रकाश पुरानी बातें भूलने लगा लेकिन उसकी पूर्व जन्म की स्मृति पूरी तरह से नष्ट नहीं हो पाई।
सन 1961 में भोलनाथ जैन का छत्ता गांव जाना हुआ। वहां उन्हें पता चला कि यहां प्रकाश नामक का कोई लड़का उनके मृत पुत्र निर्मल के बारे में बातें करता है। यह सुनकर वे वाष्र्णेय परिवार में गए। प्रकाश ने फौरन उन्हें अपने पूर्व जन्म के पिता के रूप में पहचान लिया। उसने अपने पिता को कई ऐसी बातें बताई जो सिर्फ उनका बेटा निर्मल ही जानता था।
यह घटना सन 1950 अप्रैल की है। कोसीकलां गांव के निवासी भोलानाथ जैन के पुत्र निर्मल की मृत्यु चेचक के कारण हो गई थी। इस घटना के अगले साल यानी सन 1951 में छत्ता गांव के निवासी बी. एल. वाष्र्णेय के घर पुत्र का जन्म हुआ। उस बालक का नाम प्रकाश रखा गया। प्रकाश जब साढ़े चार साल का हुआ तो एक दिन वह अचानक बोलने लगा- मैं कोसीकलां में रहता हूं। मेरा नाम निर्मल है। मैं अपने पुराने घर जाना चाहता हूं। ऐसा वह कई दिनों तक कहता रहा।
प्रकाश को समझाने के लिए एक दिन उसके चाचा उसे कोसीकलां ले गए। यह सन 1956 की बात है। कोसीकलां जाकर प्रकाश को पुरानी बातें याद आने लगी। संयोगवश उस दिन प्रकाशकी मुलाकात अपने पूर्व जन्म के पिता भोलानाथ जैन से नहीं हो पाई। प्रकाश के इस जन्म के परिजन चाहते थे कि वह पुरानी बातें भूल जाए। बहुत समझाने पर प्रकाश पुरानी बातें भूलने लगा लेकिन उसकी पूर्व जन्म की स्मृति पूरी तरह से नष्ट नहीं हो पाई।
सन 1961 में भोलनाथ जैन का छत्ता गांव जाना हुआ। वहां उन्हें पता चला कि यहां प्रकाश नामक का कोई लड़का उनके मृत पुत्र निर्मल के बारे में बातें करता है। यह सुनकर वे वाष्र्णेय परिवार में गए। प्रकाश ने फौरन उन्हें अपने पूर्व जन्म के पिता के रूप में पहचान लिया। उसने अपने पिता को कई ऐसी बातें बताई जो सिर्फ उनका बेटा निर्मल ही जानता था।
दूसरी घटना :
यह घटना आगरा की है। यहां किसी समय पोस्ट मास्टर पी.एन. भार्गव रहा करते थे। उनकी एक पुत्री थी जिसका नाम मंजु था। मंजु ने ढाई साल की उम्र में ही यह कहना शुरु कर दिया कि उसके दो घर हैं। मंजु ने उस घर के बारे में अपने परिवार वालों को भी बताया। पहले तो किसी ने मंजु की उन बातों पर ध्यान नहीं दिया लेकिन जब कभी मंजु धुलियागंज, आगरा के एक विशेष मकान के सामने से निकलती तो कहा करती थी- यही मेरा घर है।
एक दिन मंजु को उस घर में ले जाया गया। उस मकान के मालिक प्रतापसिंह चतुर्वेदी थे। वहां मंजु ने कई ऐसी बातें बताई जो उस घर में रहने वाले लोग ही जानते थे। बाद में भेद चला कि श्रीचतुर्वेदी की चाची (फिरोजाबाद स्थित चौबे का मुहल्ला निवासी श्रीविश्वेश्वरनाथ चतुर्वेदी की पत्नी) का निधन सन 1952 में हो गया था। अनुमान यह लगाया गया कि उन्हीं का पुनर्जन्म मंजु के रूप में हुआ है।
यह घटना आगरा की है। यहां किसी समय पोस्ट मास्टर पी.एन. भार्गव रहा करते थे। उनकी एक पुत्री थी जिसका नाम मंजु था। मंजु ने ढाई साल की उम्र में ही यह कहना शुरु कर दिया कि उसके दो घर हैं। मंजु ने उस घर के बारे में अपने परिवार वालों को भी बताया। पहले तो किसी ने मंजु की उन बातों पर ध्यान नहीं दिया लेकिन जब कभी मंजु धुलियागंज, आगरा के एक विशेष मकान के सामने से निकलती तो कहा करती थी- यही मेरा घर है।
एक दिन मंजु को उस घर में ले जाया गया। उस मकान के मालिक प्रतापसिंह चतुर्वेदी थे। वहां मंजु ने कई ऐसी बातें बताई जो उस घर में रहने वाले लोग ही जानते थे। बाद में भेद चला कि श्रीचतुर्वेदी की चाची (फिरोजाबाद स्थित चौबे का मुहल्ला निवासी श्रीविश्वेश्वरनाथ चतुर्वेदी की पत्नी) का निधन सन 1952 में हो गया था। अनुमान यह लगाया गया कि उन्हीं का पुनर्जन्म मंजु के रूप में हुआ है।
तीसरी घटना :
सन 1960 में प्रवीणचंद्र शाह के यहां पुत्री का जन्म हुआ। इसका नाम राजूल रखा गया। राजूल जब 3 साल की हुई तो वह उसी जिले के जूनागढ़ में अपने पिछले जन्म की बातें बताने लगी। उसने बताया कि पिछले जन्म में मेरा नाम राजूल नहीं गीता था। पहले तो माता-पिता ने उसकी बातों पर ध्यान नहीं दिया लेकिन जब राजूल के दादा वजुभाई शाह को इन बातों का पता चला तो उन्होंने इसकी जांच-पड़ताल की।
जानकारी मिली कि जूनागढ़ के गोकुलदास ठक्कर की बेटी गीता की मृत्यु अक्टूबर 1559 में हुई थी। उस समय वह ढाई साल की थी। वजुभाई शाह 1965 में अपने कुछ रिश्तेदारों और राजूल को लेकर जूनागढ़ आए। यहां राजून ने अपने पूर्वजन्म के माता-पिता व अन्य रिश्तेदारों को पहचान लिया। राजूल ने अपना घर और वह मंदिर भी पहचान लिया जहां वह अपनी मां के साथ पूजा करने जाती थी।
सन 1960 में प्रवीणचंद्र शाह के यहां पुत्री का जन्म हुआ। इसका नाम राजूल रखा गया। राजूल जब 3 साल की हुई तो वह उसी जिले के जूनागढ़ में अपने पिछले जन्म की बातें बताने लगी। उसने बताया कि पिछले जन्म में मेरा नाम राजूल नहीं गीता था। पहले तो माता-पिता ने उसकी बातों पर ध्यान नहीं दिया लेकिन जब राजूल के दादा वजुभाई शाह को इन बातों का पता चला तो उन्होंने इसकी जांच-पड़ताल की।
जानकारी मिली कि जूनागढ़ के गोकुलदास ठक्कर की बेटी गीता की मृत्यु अक्टूबर 1559 में हुई थी। उस समय वह ढाई साल की थी। वजुभाई शाह 1965 में अपने कुछ रिश्तेदारों और राजूल को लेकर जूनागढ़ आए। यहां राजून ने अपने पूर्वजन्म के माता-पिता व अन्य रिश्तेदारों को पहचान लिया। राजूल ने अपना घर और वह मंदिर भी पहचान लिया जहां वह अपनी मां के साथ पूजा करने जाती थी।
चौथी घटना :
मध्य प्रदेश के छत्रपुर जिले में एम. एल मिश्र रहते थे। उनकी एक लड़की थी, जिसका नाम स्वर्णलता था। बचपन से ही स्वर्णलता यह बताती थी कि उसका असली घर कटनी में है और उसके दो बेटे हैं। पहले तो घर वालों ने उसकी बातों पर ध्यान नहीं दिया लेकिन जब वह बार-बार यही बात बोलने लगी तो घर वाले स्वर्णलता को कटनी ले गए। कटनी जाकर स्वर्णलता ने पूर्वजन्म के अपने दोनों बेटों को पहचान लिया। उसने दूसरे लोगों, जगहों, चीजों को भी पहचान लिया।
छानबीन से पता चला कि उसी घर में 18 साल पहले बिंदियादेवी नामक महिला की मृत्यु दिल की धड़कने बंद हो जाने से मर गई थीं। स्वर्णलता ने यह तक बता दिया कि उसकी मृत्यु के बाद उस घर में क्या-क्या परिवर्तन किए गए हैं। बिंदियादेवी के घर वालों ने भी स्वर्णलता को अपना लिया और वही मान-सम्मान दिया जो बिंदियादेवी को मिलता था।
मध्य प्रदेश के छत्रपुर जिले में एम. एल मिश्र रहते थे। उनकी एक लड़की थी, जिसका नाम स्वर्णलता था। बचपन से ही स्वर्णलता यह बताती थी कि उसका असली घर कटनी में है और उसके दो बेटे हैं। पहले तो घर वालों ने उसकी बातों पर ध्यान नहीं दिया लेकिन जब वह बार-बार यही बात बोलने लगी तो घर वाले स्वर्णलता को कटनी ले गए। कटनी जाकर स्वर्णलता ने पूर्वजन्म के अपने दोनों बेटों को पहचान लिया। उसने दूसरे लोगों, जगहों, चीजों को भी पहचान लिया।
छानबीन से पता चला कि उसी घर में 18 साल पहले बिंदियादेवी नामक महिला की मृत्यु दिल की धड़कने बंद हो जाने से मर गई थीं। स्वर्णलता ने यह तक बता दिया कि उसकी मृत्यु के बाद उस घर में क्या-क्या परिवर्तन किए गए हैं। बिंदियादेवी के घर वालों ने भी स्वर्णलता को अपना लिया और वही मान-सम्मान दिया जो बिंदियादेवी को मिलता था।
पांचवी घटना :
सन 1956 की बात है। दिल्ली में रहने वाले गुप्ताजी के घर पुत्र का जन्म हुआ। उसका नाम गोपाल रखा गया। गोपाल जब थोड़ा बड़ा हुआ तो उसने बताया कि पूर्व जन्म में उसका नाम शक्तिपाल था और वह मथुरा में रहता था, मेरे तीन भाई थे उनमें से एक ने मुझे गोली मार दी थी। मथुरा में सुख संचारक कंपनी के नाम से मेरी एक दवाओं की दुकान भी थी।
गोपाल के माता-पिता ने पहले तो उसकी बातों को कोरी बकवास समझा लेकिन बार-बार एक ही बात दोहराने पर गुप्ताजी ने अपने कुछ मित्रों से पूछताछ की। जानकारी निकालने पर पता कि मथुरा में सुख संचारक कंपनी के मालिक शक्तिपाल शर्मा की हत्या उनके भाई ने गोली मारकर कर दी थी। जब शक्तिपाल के परिवार को यह पता चला कि दिल्ली में एक लड़का पिछले जन्म में शक्तिपाल होने का दावा कर रहा है तो शक्तिपाल की पत्नी और भाभी दिल्ली आईं।
गोपाल ने दोनों को पहचान लिया। इसके बाद गोपाल को मथुरा लाया गया। यहां उसने अपना घर, दुकान सभी को ठीक से पहचान लिया साथ ही अपने अपने बेटे और बेटी को भी पहचान लिया। शक्तिपाल के बेटे ने गोपाल के बयानों की तस्दीक की।
सन 1956 की बात है। दिल्ली में रहने वाले गुप्ताजी के घर पुत्र का जन्म हुआ। उसका नाम गोपाल रखा गया। गोपाल जब थोड़ा बड़ा हुआ तो उसने बताया कि पूर्व जन्म में उसका नाम शक्तिपाल था और वह मथुरा में रहता था, मेरे तीन भाई थे उनमें से एक ने मुझे गोली मार दी थी। मथुरा में सुख संचारक कंपनी के नाम से मेरी एक दवाओं की दुकान भी थी।
गोपाल के माता-पिता ने पहले तो उसकी बातों को कोरी बकवास समझा लेकिन बार-बार एक ही बात दोहराने पर गुप्ताजी ने अपने कुछ मित्रों से पूछताछ की। जानकारी निकालने पर पता कि मथुरा में सुख संचारक कंपनी के मालिक शक्तिपाल शर्मा की हत्या उनके भाई ने गोली मारकर कर दी थी। जब शक्तिपाल के परिवार को यह पता चला कि दिल्ली में एक लड़का पिछले जन्म में शक्तिपाल होने का दावा कर रहा है तो शक्तिपाल की पत्नी और भाभी दिल्ली आईं।
गोपाल ने दोनों को पहचान लिया। इसके बाद गोपाल को मथुरा लाया गया। यहां उसने अपना घर, दुकान सभी को ठीक से पहचान लिया साथ ही अपने अपने बेटे और बेटी को भी पहचान लिया। शक्तिपाल के बेटे ने गोपाल के बयानों की तस्दीक की।
छठवी घटना :
न्यूयार्क में रहने वाली क्यूबा निवासी 26 वर्षीया राचाले ग्राण्ड को यह अलौकिक अनुभूति हुआ करती थी कि वह अपने पूर्व जन्म में एक डांसर थीं और यूरोप में रहती थी। उसे अपने पहले जन्म के नाम की स्मृति थी। खोज करने पर पता चला कि यूरोप में आज से 60 वर्ष पूर्व स्पेन में उसके विवरण की एक डांसर रहती थी।
राचाले की कहानी में सबसे आश्चर्यजनक बात यह थी कि जिसमें उसने कहा था कि उसके वर्तमान जन्म में भी वह जन्मजात नर्तकी की है और उसने बिना किसी के मार्गदर्शन अथवा अभ्यास के हाव-भावयुक्त डांस सीख लिया था।
न्यूयार्क में रहने वाली क्यूबा निवासी 26 वर्षीया राचाले ग्राण्ड को यह अलौकिक अनुभूति हुआ करती थी कि वह अपने पूर्व जन्म में एक डांसर थीं और यूरोप में रहती थी। उसे अपने पहले जन्म के नाम की स्मृति थी। खोज करने पर पता चला कि यूरोप में आज से 60 वर्ष पूर्व स्पेन में उसके विवरण की एक डांसर रहती थी।
राचाले की कहानी में सबसे आश्चर्यजनक बात यह थी कि जिसमें उसने कहा था कि उसके वर्तमान जन्म में भी वह जन्मजात नर्तकी की है और उसने बिना किसी के मार्गदर्शन अथवा अभ्यास के हाव-भावयुक्त डांस सीख लिया था।
सातवी घटना :
पुनर्जन्म की एक और घटना अमेरिका की है। यहां एक अमेरिकी महिला रोजनबर्ग बार-बार एक शब्द जैन बोला करती थी, जिसका अर्थ न तो वह स्वयं जानती थी और न उसके आस-पास के लोग। साथ ही वह आग से बहुत डरती थी। जन्म से ही उसकी अंगुलियों को देखकर यह लगता था कि जैसे वे कभी जली हों।
एक बार जैन धर्म संबंधी एक गोष्ठी में, जहां वह उपस्थित थी, अचानक रोजनबर्ग को अपने पूर्व जन्म की बातें याद आने लगी। जिसके अनुसार वह भारत के एक जैन मंदिर में रहा करती थी और आग लग जाने की आकस्मिक घटना में उसकी मृत्यु हो गई थी।
पुनर्जन्म की एक और घटना अमेरिका की है। यहां एक अमेरिकी महिला रोजनबर्ग बार-बार एक शब्द जैन बोला करती थी, जिसका अर्थ न तो वह स्वयं जानती थी और न उसके आस-पास के लोग। साथ ही वह आग से बहुत डरती थी। जन्म से ही उसकी अंगुलियों को देखकर यह लगता था कि जैसे वे कभी जली हों।
एक बार जैन धर्म संबंधी एक गोष्ठी में, जहां वह उपस्थित थी, अचानक रोजनबर्ग को अपने पूर्व जन्म की बातें याद आने लगी। जिसके अनुसार वह भारत के एक जैन मंदिर में रहा करती थी और आग लग जाने की आकस्मिक घटना में उसकी मृत्यु हो गई थी।
आठवी घटना :
जापान जैसे बौद्ध धर्म को मानने वाले देशों में पुनर्जन्म में विश्वास किया जाता है। 10 अक्टूबर 1815 को जापान के नकावो मूरा नाम के गांव के गेंजो किसान के यहां पुत्र हुआ। उसका नाम कटसूगोरो था। जब वह सात साल का हुआ तो उसने बताया कि पूर्वजन्म में उसका नाम टोजो था और उसके पिता का नाम क्यूबी, बहन का नाम फूसा था तथा मां का नाम शिड्जू था।
6 साल की उम्र में उसकी मृत्यु चेचक से हो गई थी। उसने कई बार कहा कि वह अपने पूर्वजन्म के पिता की कब्र देखने होडोकूबो जाना चाहता है। उसकी दादी (ट्सूया) उसे होडोकूबो ले गई। वहां जाते समय उसने एक घर की ओर इशारा किया और बताया कि यही पूर्वजन्म में उसका घर था।
पूछताछ करने पर यह बात सही निकली। कटसूगोरो ने यह भी बताया कि उस घर के आस-पास पहले तंबाकू की दुकानें नहीं थी। उसकी यह बात भी सही निकली। इस बात ये सिद्ध होता है कि कटसूगोरो ही पिछले जन्म में टोजो था।
जापान जैसे बौद्ध धर्म को मानने वाले देशों में पुनर्जन्म में विश्वास किया जाता है। 10 अक्टूबर 1815 को जापान के नकावो मूरा नाम के गांव के गेंजो किसान के यहां पुत्र हुआ। उसका नाम कटसूगोरो था। जब वह सात साल का हुआ तो उसने बताया कि पूर्वजन्म में उसका नाम टोजो था और उसके पिता का नाम क्यूबी, बहन का नाम फूसा था तथा मां का नाम शिड्जू था।
6 साल की उम्र में उसकी मृत्यु चेचक से हो गई थी। उसने कई बार कहा कि वह अपने पूर्वजन्म के पिता की कब्र देखने होडोकूबो जाना चाहता है। उसकी दादी (ट्सूया) उसे होडोकूबो ले गई। वहां जाते समय उसने एक घर की ओर इशारा किया और बताया कि यही पूर्वजन्म में उसका घर था।
पूछताछ करने पर यह बात सही निकली। कटसूगोरो ने यह भी बताया कि उस घर के आस-पास पहले तंबाकू की दुकानें नहीं थी। उसकी यह बात भी सही निकली। इस बात ये सिद्ध होता है कि कटसूगोरो ही पिछले जन्म में टोजो था।
नौवी घटना :
थाईलैंड में स्याम नाम के स्थान पर रहने वाली एक लड़की को अपने पूर्वजन्म के बारे में ज्ञात होने का वर्णन मिलता है। एक दिन उस लड़की ने अपने परिवार वालों को बताया कि उसके पिछले जन्म के मां-बाप चीन में रहते हैं और वह उनके पास जाना चाहती है।
उस लड़की को चीनी भाषा का अच्छा ज्ञान भी था। जब उस लड़की की पूर्वजन्म की मां को यह पता चला तो वह उस लड़की से मिलने के लिए स्याम आ गई। लड़की ने अपनी पूर्वजन्म की मां को देखते ही पहचान लिया। बाद में उस लड़की को उस जगह ले जाया गया, जहां वह पिछले जन्म में रहती थी।
उससे पूर्वजन्म से जुड़े कई ऐसे सवाल पूछे गए। हर बार उस लड़की ने सही जवाब दिया। लड़की ने अपने पूर्व जन्म के पिता को भी पहचान लिया। पुनर्जन्म लेने वाले दूसरे व्यक्तियों की तरह इस लड़की को भी मृत्यु और पुनर्जन्म की अवस्थाओं के बीच की स्थिति की स्मृति थी।
थाईलैंड में स्याम नाम के स्थान पर रहने वाली एक लड़की को अपने पूर्वजन्म के बारे में ज्ञात होने का वर्णन मिलता है। एक दिन उस लड़की ने अपने परिवार वालों को बताया कि उसके पिछले जन्म के मां-बाप चीन में रहते हैं और वह उनके पास जाना चाहती है।
उस लड़की को चीनी भाषा का अच्छा ज्ञान भी था। जब उस लड़की की पूर्वजन्म की मां को यह पता चला तो वह उस लड़की से मिलने के लिए स्याम आ गई। लड़की ने अपनी पूर्वजन्म की मां को देखते ही पहचान लिया। बाद में उस लड़की को उस जगह ले जाया गया, जहां वह पिछले जन्म में रहती थी।
उससे पूर्वजन्म से जुड़े कई ऐसे सवाल पूछे गए। हर बार उस लड़की ने सही जवाब दिया। लड़की ने अपने पूर्व जन्म के पिता को भी पहचान लिया। पुनर्जन्म लेने वाले दूसरे व्यक्तियों की तरह इस लड़की को भी मृत्यु और पुनर्जन्म की अवस्थाओं के बीच की स्थिति की स्मृति थी।
दसवी घटना :
सन 1963 में श्रीलंका के बाटापोला गांवमें रूबी कुसुमा पैदा हुई। उसके पिता का नाम सीमन सिल्वा था। रूबी जब बोलने लगी तो वह अपने पूवर्जन्म की बातें करने लगी। उसने बताया कि पूर्वजन्म में वह एक लड़का थी। उसका पुराना घर वहां से चार मील दूर अलूथवाला गांव में है। वह घर बहुत बड़ा है। उसने यह भी बताया कि पूर्वजन्म में उसकी मृत्यु कुएं में डुबने से हुई थी।
रुबी के पुराने माता-पिता पुंचीनोना को ढूंढ निकालना मुश्किल नहीं था। उन्होंने बताया कि उनका बेटा करुणासेना 1956 में मरा था। उन्होंने उसके कुएं में डूब जाने की घटना और दूसरी बातें भी सच बताई और कहा कि लड़की की सारी बातें बिलकुल सच है।
सन 1963 में श्रीलंका के बाटापोला गांवमें रूबी कुसुमा पैदा हुई। उसके पिता का नाम सीमन सिल्वा था। रूबी जब बोलने लगी तो वह अपने पूवर्जन्म की बातें करने लगी। उसने बताया कि पूर्वजन्म में वह एक लड़का थी। उसका पुराना घर वहां से चार मील दूर अलूथवाला गांव में है। वह घर बहुत बड़ा है। उसने यह भी बताया कि पूर्वजन्म में उसकी मृत्यु कुएं में डुबने से हुई थी।
रुबी के पुराने माता-पिता पुंचीनोना को ढूंढ निकालना मुश्किल नहीं था। उन्होंने बताया कि उनका बेटा करुणासेना 1956 में मरा था। उन्होंने उसके कुएं में डूब जाने की घटना और दूसरी बातें भी सच बताई और कहा कि लड़की की सारी बातें बिलकुल सच है।
FCRA के आंकड़ों के मुताबिक़ विदेशों से आने वाले चन्दे का 90% हिस्सा क्रिश्चियन NGOs को मिल रहा था,क्यों ??
भारतीय रेलवे के बाद सबसे अधिक गैर-कृषि
भूमि "चर्च" के पास है,फिर भी FCRA के आंकड़ों
के मुताबिक़ विदेशों से आने वाले चन्दे का 90%
हिस्सा क्रिश्चियन NGOs को मिल रहा था,क्यों ??
भूमि "चर्च" के पास है,फिर भी FCRA के आंकड़ों
के मुताबिक़ विदेशों से आने वाले चन्दे का 90%
हिस्सा क्रिश्चियन NGOs को मिल रहा था,क्यों ??
"आधिकारिक रूप से" भारत में ईसाईयों की संख्या
3% बताई जाती है (जबकि अनधिकृत रूप से,छिपे हुए,
छद्म हिन्दू नामों से रह रहे ईसाईयों की संख्या मिलाकर
यह कम से कम 10% है),लेकिन फिर भी "चर्च" का बजट
भारत की नौसेना के बराबर है...
3% बताई जाती है (जबकि अनधिकृत रूप से,छिपे हुए,
छद्म हिन्दू नामों से रह रहे ईसाईयों की संख्या मिलाकर
यह कम से कम 10% है),लेकिन फिर भी "चर्च" का बजट
भारत की नौसेना के बराबर है...
इतना पैसा "लालच" देने के लिए नहीं तो क्या भटे सेंकने के लिए है ?भारतीय रेलवे के बाद सबसे अधिक गैर-कृषि भूमि "चर्च" के पास है,फिर भी FCRA के आंकड़ों के मुताबिक़ विदेशों से आने वाले चन्दे का 90% हिस्सा क्रिश्चियन NGOs को मिल रहा है,क्यों ? कनाडा निवासी वॉट्स दम्पति “सेवेन्थ-डे एडवेंटिस्ट चर्च” के दक्षिण एशिया प्रभारी हैं।
1997 में जिस समय इन्होंने इस चर्च के दक्षिण एशिया का प्रभार संभाला,उस समय 103 वर्षों के कार्यकाल में भारत में इसके सदस्यों की संख्या दो लाख पच्चीस हजार ही थी लेकिन सिर्फ़ 5 साल में अर्थात 2002 तक ही वॉट्स दम्पति ने भारत में इसके सदस्यों की संख्या 7 लाख तक पहुँचा दी
इन्होंने गरीब भारतीयों के लिये इतना जबरदस्त काम किया, कि सिर्फ़ एक दिन में ही ओंगोल (आंध्रप्रदेश) में 15018 लोगों ने धर्म परिवर्तन करके ईसाई धर्म अपना लिया।
वॉट्स दम्पति का लक्ष्य 10,000 चर्चों के निर्माण का है,और जल्द ही वे इस जादुई आँकड़े को छूने वाले हैं तथा उस समय एक भव्य विजय दिवस मनाया जायेगा।
असल में इस महान काम में देरी सिर्फ़ इसलिये हुई,क्योंकि इनके सबसे बड़े मददगार और “हमारी महारानी” के खासुलखास व्यक्ति,अर्थात “भारत रत्न” एक और दावेदार सेमुअल रेड्डी की हवाई दुर्घटना में मौत हो गई।
फ़िर भी वॉट्स दम्पति को पाँच राज्यों के ईसाई मुख्यमंत्रियों का पूरा समर्थन हासिल है और वे अपना परोपकार कार्य निरन्तर जारी रखे हैं।
इनकी मदद के लिये अमेरिका स्थित मारान्था वॉलंटियर्स भी हैं जिन्होंने भारत में दो साल में 750 चर्च बनाने तथा ओरेगॉन स्थित फ़ार्ली परिवार,जिन्होंने एक चर्च प्रतिदिन के हिसाब से 1000 चर्च बनाने का संकल्प लिया है।
इनका यह महान कार्य(?) जल्द ही पूरा होगा,साथ ही भारत में इनकी स्थानीय मदद के लिये इनके कब्जे वाला 80% बिकाऊ मीडिया और हजारों असली-नकली NGOs भी हैं।
श्री एवं श्रीमती वॉट्स की मेहनत और “राष्ट्रीय कार्य” का फ़ल उन्हें दिखाई भी देने लगा है,क्योंकि उत्तर-पूर्व के राज्यों मिजोरम, नागालैण्ड और मणिपुर में पिछले 25 वर्षों में ईसाई जनसंख्या में 200% का अभूतपूर्व उछाल आया है।
त्रिपुरा जैसे प्रदेश में जहाँ आज़ादी के समय एक भी ईसाई नहीं था,60 साल में एक लाख बीस हजार हो गये हैं,(हालांकि त्रिपुरा में कई सालों से वामपंथी शासन है,लेकिन इससे चर्च की गतिविधि पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता,
क्योंकि वामपंथियों के अनुसार सिर्फ़ “हिन्दू धर्म” ही दुश्मनी रखने योग्य है,बाकी के धर्म तो उनके परम दोस्त हैं) इसी प्रकार अरुणाचल प्रदेश में सन् 1961 की जनगणना में सिर्फ़ 1710 ईसाई थे जो अब बढ़कर एक लाख के आसपास हो गये हैं तथा चर्चों की संख्या भी 780 हो गई है।
एक दृष्टि रॉन (रोनॉल्ड) वॉट्स साहब के सम्पर्कों पर भी डाल लें,ताकि आपको विश्वास हो जाये कि आपका “भविष्य” एकदम सही हाथों में है…
1) रॉन वाट्स के खिलाफ़ बिजनेस वीज़ा पर अवैध रूप से भारत में दिन गुजारने और कलेक्टर द्वारा देश निकाला दिये जाने के बावजूद जबरन भारत में टिके रहने के आरोप हैं,लेकिन उन्हें भारत से कौन निकाल सकता है,जब “महारानी”जी से उनके घरेलू सम्बन्ध हों… क्या कहा…विश्वास नहीं होता ? खुद ही पढ़ लीजिये…
http://www.scribd.com/…/RON-WATTS-AND-SONIA-GANDHI-OPERATE-…
2) रॉन वॉट्स साहब को ऐरा-गैरा न समझ लीजियेगा,इनकी पहुँच सीधे चिदम्बरम साहबके घर तक भी है…चिदम्बरम साहब की श्रीमती नलिनी चिदम्बरम,रॉन वॉट्स की वकील हैं,अब ऐसे में चिदम्बरम साहब की क्या हिम्मत है कि वे वॉट्स को देश निकाला दें।
आप खुद ही इनके रिश्तोंके बारे में पढ़ लीजिये…
3) इन साहब की कार्यपद्धति के बारे में विस्तार से जानने के लिये यहाँ देखें…
असली मनुस्मृति में 630 श्लोक थे,जानिए 2400 श्लोक कैसे हो गए,सनातन धर्म को बदनाम करने के लिए किसने मिलावट की?
चीन की महान दीवार से प्राप्त हुयी पांडुलिपि में ‘पवित्र मनुस्मृति’ का जिक्र, सही मनुस्मृति में 630 श्लोक ही थे,,मिलावटी मनुस्मृति में अब श्लोकों की संख्या 2400 हो गयी
सवाल यह उठता है कि, जब चीन की इस प्राचीन पांडुलिपी में मनुस्मृति में 630 श्लोक बताया है तो आज 2400 श्लोक कैसे हो गयें ? इससे यह स्पष्ट होता है कि, बाद में मनुस्मृति में जानबूझकर षड्यंत्र के तहत अनर्गल तथ्य जोड़े गये जिसका मकसद महान सनातन धर्म को बदनाम करना तथा भारतीय समाज में फूट डालना था।
सवाल यह उठता है कि, जब चीन की इस प्राचीन पांडुलिपी में मनुस्मृति में 630 श्लोक बताया है तो आज 2400 श्लोक कैसे हो गयें ? इससे यह स्पष्ट होता है कि, बाद में मनुस्मृति में जानबूझकर षड्यंत्र के तहत अनर्गल तथ्य जोड़े गये जिसका मकसद महान सनातन धर्म को बदनाम करना तथा भारतीय समाज में फूट डालना था।
मनु कहते हैं- जन्मना जायते शूद्र: कर्मणा द्विज उच्यते। अर्थात जन्म से सभी शूद्र होते हैं और कर्म से ही वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बनते हैं। वर्तमान दौर में ‘मनुवाद’ शब्द को नकारात्मक अर्थों में लिया जा रहा है। ब्राह्मणवाद को भी मनुवाद के ही पर्यायवाची के रूप में उपयोग किया जाता है। वास्तविकता में तो मनुवाद की रट लगाने वाले लोग मनु अथवा मनुस्मृति के बारे में जानते ही नहीं है या फिर अपने निहित स्वार्थों के लिए मनुवाद का राग अलापते रहते हैं। दरअसल, जिस जाति व्यवस्था के लिए मनुस्मृति को दोषी ठहराया जाता है, उसमें जातिवाद का उल्लेख तक नहीं है।
आखिर जिस मनुस्मृति में कहा गया की जन्म से सब सूद्र ही होते है कर्मो से वो ब्राम्हण,क्षत्रिय,वैश्य बनते है,जातिवाद नही वर्णवाद नियम था की शूद्र के घर पैदा होने वाला ब्राम्हण बन सकता था,,, सब कर्म आधारित था,,, आज उसको जातिवाद की राजनीती का केंद्र बना दिया गया,,,.
मनुस्मृति और सनातन ग्रंथों में मिलावट उसी समय शुरू हो गयी थी जब भारत में बौद्धों का राज बढ़ा, अगर समयकाल के दृष्टि से देखें तो यह मिलावट का खेल 9 वीं शताब्दी के बाद शुरू हुआ था।
मनुस्मृति पर बौद्धों द्वारा अनेक टीकाएँ भी लिखी गयी थीं। लेकिन जो सबसे ज्यादा मिलावट हुयी वह अंग्रेजों के शासनकाल में ब्रिटिश थिंक टैंक द्वारा करवाई गयीं जिसका लक्ष्य भारतीय समाज को बांटना था। यह ठीक वैसे ही किया ब्रिटिशों ने जैसे उन्होंने भारत में मिकाले ब्रांड शिक्षा प्रणाली लागू की थी। ब्रिटिशों द्वारा करवाई गयी मिलावट काफी विकृत फैलाई।
इसी तरह 9 वीं शताब्दी में मनुस्मृति पर लिखी गयी ‘भास्कर मेघतिथि टीका’ की तुलना में 12 वीं शताब्दी में लिखी गई ‘टीका कुल्लुक भट्ट’ के संस्करण में 170 श्लोक ज्यादा था।
इस चीनी दीवार के बनने का समय लगभग 220 से 206 ईसा पूर्व का है अर्थात लिखने वाले ने कम से कम 220 ईसा पूर्व ही मनु के बारे में अपने हस्तलेख में लिखा।
शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम।
क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च। (10/65)
महर्षि मनु कहते हैं कि कर्म के अनुसार ब्राह्मण शूद्रता को प्राप्त हो जाता है और शूद्र ब्राह्मणत्व को। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य से उत्पन्न संतान भी अन्य वर्णों को प्राप्त हो जाया करती हैं। विद्या और योग्यता के अनुसार सभी वर्णों की संतानें अन्य वर्ण में जा सकती हैं।
मनुस्मृति और सनातन ग्रंथों में मिलावट उसी समय शुरू हो गयी थी जब भारत में बौद्धों का राज बढ़ा, अगर समयकाल के दृष्टि से देखें तो यह मिलावट का खेल 9 वीं शताब्दी के बाद शुरू हुआ था।
मनुस्मृति पर बौद्धों द्वारा अनेक टीकाएँ भी लिखी गयी थीं। लेकिन जो सबसे ज्यादा मिलावट हुयी वह अंग्रेजों के शासनकाल में ब्रिटिश थिंक टैंक द्वारा करवाई गयीं जिसका लक्ष्य भारतीय समाज को बांटना था। यह ठीक वैसे ही किया ब्रिटिशों ने जैसे उन्होंने भारत में मिकाले ब्रांड शिक्षा प्रणाली लागू की थी। ब्रिटिशों द्वारा करवाई गयी मिलावट काफी विकृत फैलाई।
इसी तरह 9 वीं शताब्दी में मनुस्मृति पर लिखी गयी ‘भास्कर मेघतिथि टीका’ की तुलना में 12 वीं शताब्दी में लिखी गई ‘टीका कुल्लुक भट्ट’ के संस्करण में 170 श्लोक ज्यादा था।
इस चीनी दीवार के बनने का समय लगभग 220 से 206 ईसा पूर्व का है अर्थात लिखने वाले ने कम से कम 220 ईसा पूर्व ही मनु के बारे में अपने हस्तलेख में लिखा।
पेशावर कांड के नायक चन्द्रसिंह गढ़वाली / इतिहास स्मृति – 23 अप्रैल
चन्द्रसिंह का जन्म ग्राम रौणसेरा, (जिला पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखंड) में 25 दिसम्बर, 1891 को हुआ था। वह बचपन से ही बहुत हृष्ट-पुष्ट था। ऐसे लोगों को वहाँ ‘भड़’ कहा जाता है। 14 वर्ष की अवस्था में उनका विवाह हो गया।
उन दिनों प्रथम विश्वयुद्ध प्रारम्भ हो जाने के कारण सेना में भर्ती चल रही थी। चन्द्रसिंह गढ़वाली की इच्छा भी सेना में जाने की थी; पर घर वाले इसके लिए तैयार नहीं थे। अतः चन्द्रसिंह घर से भागकर लैंसडाउन छावनी पहुँचे और सेना में भर्ती हो गये। उस समय वे केवल 15 वर्ष के थे। इसके बाद राइफलमैन चन्द्रसिंह ने फ्रान्स, मैसोपोटामिया, उत्तर पश्चिमी सीमाप्रान्त, खैबर तथा अन्य अनेक स्थानों पर युद्ध में भाग लिया। अब उन्हें पदोन्नत कर हवलदार बना दिया गया। छुट्टियांे में घर आने पर उन्हें भारत में हो रहे स्वतन्त्रता आन्दोलन की जानकारी मिली। उनका सम्पर्क आर्यसमाज से भी हुआ। 1920 में कांग्रेस के जगाधरी (पंजाब) में हुए सम्मेलन में भी वे गये; पर फिर उन्हें युद्ध के मोर्चे पर भेज दिया गया।
युद्ध के बाद वे फिर घर आ गये। उन्हीं दिनों रानीखेत (उत्तराखंड) में हुए कांग्रेस के एक कार्यक्रम में गांधी जी भी आये थे। वहाँ चन्द्रसिंह अपनी फौजी टोपी पहनकर आगे जाकर बैठ गये। गांधी जी ने यह देखकर कहा कि मैं इस फौजी टोपी से नहीं डरता। चन्द्रसिंह ने कहा यदि आप अपने हाथ से मुझे टोपी दें, तो मैं इसे बदल भी सकता हूँ। इस पर गांधी जी ने उसे खादी की टोपी दी। तब से चन्द्रसिंह का जीवन आमूल चूल बदल गया। 1930 में गढ़वाल राइफल्स को पेशावर भेजा गया। वहाँ नमक कानून के विरोध में आन्दोलन चल रहा था। चन्द्रसिंह ने अपने साथियों के साथ यह निश्चय किया कि वे निहत्थे सत्याग्रहियांे को हटाने में तो सहयोग करेंगे; पर गोली नहीं चलायेंगे। सबने उसके नेतृत्व में काम करने का निश्चय किया।
23 अप्रैल, 1930 को सत्याग्रह के समय पेशावर में बड़ी संख्या में लोग जमा थे। तिरंगा झंडा फहरा रहा था। बड़े-बड़े कड़ाहों में लोग नमक बना रहे थे। एक अंग्रेज अधिकारी ने अपनी मोटरसाइकिल उस भीड़ में घुसा दी। इससे अनेक सत्याग्रही और दर्शक घायल हो गये। सब ओर उत्तेजना फैल गयी। लोगों ने गुस्से में आकर मोटरसाइकिल में आग लगा दी। गुस्से में पुलिस कप्तान ने आदेश दिया – गढ़वाली थ्री राउंड फायर। पर उधर से हवलदार मेजर चन्द्रसिंह गढ़वाली की आवाज आयी – गढ़वाली सीज फायर। सिपाहियों ने अपनी राइफलें नीचे रख दीं। पुलिस कप्तान बौखला गया; पर अब कुछ नहीं हो सकता था।
चन्द्रसिंह ने कप्तान को कहा कि आप चाहे हमें गोली मार दें; पर हम अपने निहत्थे देशवासियांे पर गोली नहीं चलायेंगे। कुछ अंग्रेज पुलिसकर्मियों तथा अन्य पल्टनों ने गोली चलायी, जिससे अनेक सत्याग्रही तथा सामान्य नागरिक मारे गये।
तुरन्त ही गढ़वाली पल्टन को बैरक में भेजकर उनसे हथियार ले लिये गये। चन्द्रसिंह को गिरफ्तार कर 11 वर्ष के लिए जेल में ठूँस दिया गया। उनकी सारी सम्पत्ति भी जब्त कर ली गयी। जेल से छूटकर वे फिर स्वतन्त्रता आन्दोलन में सक्रिय हो गये। स्वतन्त्रता के बाद उन्होंने राजनीति से दूर रहकर अपने क्षेत्र में ही समाजसेवा करना पसन्द किया।
एक अक्तूबर, 1979 को पेशावर कांड के इस महान सेनानी की मृत्यु हुई। शासन ने 1994 में उन पर डाक टिकट जारी किया।
चन्द्रसिंह का जन्म ग्राम रौणसेरा, (जिला पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखंड) में 25 दिसम्बर, 1891 को हुआ था। वह बचपन से ही बहुत हृष्ट-पुष्ट था। ऐसे लोगों को वहाँ ‘भड़’ कहा जाता है। 14 वर्ष की अवस्था में उनका विवाह हो गया।
उन दिनों प्रथम विश्वयुद्ध प्रारम्भ हो जाने के कारण सेना में भर्ती चल रही थी। चन्द्रसिंह गढ़वाली की इच्छा भी सेना में जाने की थी; पर घर वाले इसके लिए तैयार नहीं थे। अतः चन्द्रसिंह घर से भागकर लैंसडाउन छावनी पहुँचे और सेना में भर्ती हो गये। उस समय वे केवल 15 वर्ष के थे। इसके बाद राइफलमैन चन्द्रसिंह ने फ्रान्स, मैसोपोटामिया, उत्तर पश्चिमी सीमाप्रान्त, खैबर तथा अन्य अनेक स्थानों पर युद्ध में भाग लिया। अब उन्हें पदोन्नत कर हवलदार बना दिया गया। छुट्टियांे में घर आने पर उन्हें भारत में हो रहे स्वतन्त्रता आन्दोलन की जानकारी मिली। उनका सम्पर्क आर्यसमाज से भी हुआ। 1920 में कांग्रेस के जगाधरी (पंजाब) में हुए सम्मेलन में भी वे गये; पर फिर उन्हें युद्ध के मोर्चे पर भेज दिया गया।
युद्ध के बाद वे फिर घर आ गये। उन्हीं दिनों रानीखेत (उत्तराखंड) में हुए कांग्रेस के एक कार्यक्रम में गांधी जी भी आये थे। वहाँ चन्द्रसिंह अपनी फौजी टोपी पहनकर आगे जाकर बैठ गये। गांधी जी ने यह देखकर कहा कि मैं इस फौजी टोपी से नहीं डरता। चन्द्रसिंह ने कहा यदि आप अपने हाथ से मुझे टोपी दें, तो मैं इसे बदल भी सकता हूँ। इस पर गांधी जी ने उसे खादी की टोपी दी। तब से चन्द्रसिंह का जीवन आमूल चूल बदल गया। 1930 में गढ़वाल राइफल्स को पेशावर भेजा गया। वहाँ नमक कानून के विरोध में आन्दोलन चल रहा था। चन्द्रसिंह ने अपने साथियों के साथ यह निश्चय किया कि वे निहत्थे सत्याग्रहियांे को हटाने में तो सहयोग करेंगे; पर गोली नहीं चलायेंगे। सबने उसके नेतृत्व में काम करने का निश्चय किया।
23 अप्रैल, 1930 को सत्याग्रह के समय पेशावर में बड़ी संख्या में लोग जमा थे। तिरंगा झंडा फहरा रहा था। बड़े-बड़े कड़ाहों में लोग नमक बना रहे थे। एक अंग्रेज अधिकारी ने अपनी मोटरसाइकिल उस भीड़ में घुसा दी। इससे अनेक सत्याग्रही और दर्शक घायल हो गये। सब ओर उत्तेजना फैल गयी। लोगों ने गुस्से में आकर मोटरसाइकिल में आग लगा दी। गुस्से में पुलिस कप्तान ने आदेश दिया – गढ़वाली थ्री राउंड फायर। पर उधर से हवलदार मेजर चन्द्रसिंह गढ़वाली की आवाज आयी – गढ़वाली सीज फायर। सिपाहियों ने अपनी राइफलें नीचे रख दीं। पुलिस कप्तान बौखला गया; पर अब कुछ नहीं हो सकता था।
चन्द्रसिंह ने कप्तान को कहा कि आप चाहे हमें गोली मार दें; पर हम अपने निहत्थे देशवासियांे पर गोली नहीं चलायेंगे। कुछ अंग्रेज पुलिसकर्मियों तथा अन्य पल्टनों ने गोली चलायी, जिससे अनेक सत्याग्रही तथा सामान्य नागरिक मारे गये।
तुरन्त ही गढ़वाली पल्टन को बैरक में भेजकर उनसे हथियार ले लिये गये। चन्द्रसिंह को गिरफ्तार कर 11 वर्ष के लिए जेल में ठूँस दिया गया। उनकी सारी सम्पत्ति भी जब्त कर ली गयी। जेल से छूटकर वे फिर स्वतन्त्रता आन्दोलन में सक्रिय हो गये। स्वतन्त्रता के बाद उन्होंने राजनीति से दूर रहकर अपने क्षेत्र में ही समाजसेवा करना पसन्द किया।
एक अक्तूबर, 1979 को पेशावर कांड के इस महान सेनानी की मृत्यु हुई। शासन ने 1994 में उन पर डाक टिकट जारी किया।
“वीर कुंवर सिंह” 1857 के महासमर के वयोवृद्ध योद्धा
भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के हीरो रहे जगदीशपुर के बाबू वीर कुंवर सिंह को एक बेजोड़ व्यक्तित्व के रूप में जाना जाता है जो 80 वर्ष की उम्र में भी लड़ने तथा विजय हासिल करने का माद्दा रखते थे. अपने ढलते उम्र और बिगड़ते सेहत के बावजूद भी उन्होंने कभी भी अंग्रेजों के सामने घुटने नहीं टेके बल्कि उनका डटकर सामना किया. बिहार के शाहाबाद (भोजपुर) जिले के जगदीशपुर गांव में जन्मे कुंवर सिंह का जन्म 1777 में प्रसिद्ध शासक भोज के वंशजों में हुआ. उनके छोटे भाई अमर सिंह, दयालु सिंह और राजपति सिंह एवं इसी खानदान के बाबू उदवंत सिंह, उमराव सिंह तथा गजराज सिंह नामी जागीरदार रहे.
बाबू कुंवर सिंह के बारे में ऐसा कहा जाता है कि वह जिला शाहाबाद की कीमती और अतिविशाल जागीरों के मालिक थे. सहृदय और लोकप्रिय कुंवर सिंह को उनके बटाईदार बहुत चाहते थे. वह अपने गांववासियों में लोकप्रिय थे ही साथ ही अंग्रेजी हुकूमत में भी उनकी अच्छी पैठ थी. कई ब्रिटिश अधिकारी उनके मित्र रह चुके थे लेकिन इस दोस्ती के कारण वह अंग्रेजनिष्ठ नहीं बने. 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बाबू कुंवर सिंह की भूमिका काफी महत्वपूर्ण थी. अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए हिंदू और मुसलमानों ने मिलकर कदम बढ़ाया. मंगल पाण्डे की बहादुरी ने सारे देश को अंग्रेजों के खिलाफ खड़ा किया. ऐसे हालात में बाबू कुंवर सिंह ने भारतीय सैनिकों का नेतृत्व किया. उन्होंने 27 अप्रैल, 1857 को दानापुर के सिपाहियों, भोजपुरी जवानों और अन्य साथियों के साथ मिलकर आरा नगर पर कब्जा कर लिया. इस तरह कुंवर सिंह का अभियान आरा में जेल तोड़ कर कैदियों की मुक्ति तथा खजाने पर कब्जे से प्रारंभ हुआ.
कुंवर सिंह ने दूसरा मोर्चा बीबीगंज में खोला जहां दो अगस्त, 1857 को अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए. जब अंग्रेजी फौज ने आरा पर हमला करने की कोशिश की तो बीबीगंज और बिहिया के जंगलों में घमासान लड़ाई हुई. बहादुर स्वतंत्रता सेनानी जगदीशपुर की ओर बढ़ गए. अंग्रजों ने जगदीशपुर पर भयंकर गोलाबारी की. घायलों को भी फांसी पर लटका दिया. महल और दुर्ग खंडहर कर दिए. कुंवर सिंह पराजित भले हुए हों लेकिन अंग्रेजों का खत्म करने का उनका जज्बा ज्यों का त्यों था. सितंबर 1857 में वे रीवा की ओर निकल गए वहां उनकी मुलाकत नाना साहब से हुई और वे एक और जंग करने के लिए बांदा से कालपी पहुंचे लेकिन लेकिन सर कॉलिन के हाथों तात्या की हार के बाद कुंवर सिंह कालपी नहीं गए और लखनऊ आए.
इस बीच बाबू कुंवर सिंह रामगढ़ के बहादुर सिपाहियों के साथ बांदा, रीवां, आजमगढ़, बनारस, बलिया, गाजीपुर एवं गोरखपुर में विप्लव के नगाड़े बजाते रहे. लेकिन कुंवर सिंह की यह विजयी गाथा ज्यादा दिन तक नहीं टिक सकी और अंग्रेजों ने लखनऊ पर पुन: कब्जा करने के बाद आजमगढ़ पर भी कब्जा कर लिया. इस बीच कुंवर सिंह बिहार की ओर लौटने लगे. जब वे जगदीशपुर जाने के लिए गंगा पार कर रहे थे तभी उनकी बांह में एक अंग्रेजों की गोली आकर लगी. उन्होंने अपनी तलवार से कलाई काटकर नदी में प्रवाहित कर दी. इस तरह से अपनी सेना के साथ जंगलों की ओर चले गए और अंग्रेज़ी सेना को पराजित करके 23 अप्रैल, 1858 को जगदीशपुर पहुंचे. वह बुरी तरह से घायल थे. 1857 की क्रान्ति के इस महान नायक का आखिरकार अदम्य वीरता का प्रदर्शन करते हुए 26 अप्रैल, 1858 को निधन हो गया
भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के हीरो रहे जगदीशपुर के बाबू वीर कुंवर सिंह को एक बेजोड़ व्यक्तित्व के रूप में जाना जाता है जो 80 वर्ष की उम्र में भी लड़ने तथा विजय हासिल करने का माद्दा रखते थे. अपने ढलते उम्र और बिगड़ते सेहत के बावजूद भी उन्होंने कभी भी अंग्रेजों के सामने घुटने नहीं टेके बल्कि उनका डटकर सामना किया. बिहार के शाहाबाद (भोजपुर) जिले के जगदीशपुर गांव में जन्मे कुंवर सिंह का जन्म 1777 में प्रसिद्ध शासक भोज के वंशजों में हुआ. उनके छोटे भाई अमर सिंह, दयालु सिंह और राजपति सिंह एवं इसी खानदान के बाबू उदवंत सिंह, उमराव सिंह तथा गजराज सिंह नामी जागीरदार रहे.
बाबू कुंवर सिंह के बारे में ऐसा कहा जाता है कि वह जिला शाहाबाद की कीमती और अतिविशाल जागीरों के मालिक थे. सहृदय और लोकप्रिय कुंवर सिंह को उनके बटाईदार बहुत चाहते थे. वह अपने गांववासियों में लोकप्रिय थे ही साथ ही अंग्रेजी हुकूमत में भी उनकी अच्छी पैठ थी. कई ब्रिटिश अधिकारी उनके मित्र रह चुके थे लेकिन इस दोस्ती के कारण वह अंग्रेजनिष्ठ नहीं बने. 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बाबू कुंवर सिंह की भूमिका काफी महत्वपूर्ण थी. अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए हिंदू और मुसलमानों ने मिलकर कदम बढ़ाया. मंगल पाण्डे की बहादुरी ने सारे देश को अंग्रेजों के खिलाफ खड़ा किया. ऐसे हालात में बाबू कुंवर सिंह ने भारतीय सैनिकों का नेतृत्व किया. उन्होंने 27 अप्रैल, 1857 को दानापुर के सिपाहियों, भोजपुरी जवानों और अन्य साथियों के साथ मिलकर आरा नगर पर कब्जा कर लिया. इस तरह कुंवर सिंह का अभियान आरा में जेल तोड़ कर कैदियों की मुक्ति तथा खजाने पर कब्जे से प्रारंभ हुआ.
कुंवर सिंह ने दूसरा मोर्चा बीबीगंज में खोला जहां दो अगस्त, 1857 को अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए. जब अंग्रेजी फौज ने आरा पर हमला करने की कोशिश की तो बीबीगंज और बिहिया के जंगलों में घमासान लड़ाई हुई. बहादुर स्वतंत्रता सेनानी जगदीशपुर की ओर बढ़ गए. अंग्रजों ने जगदीशपुर पर भयंकर गोलाबारी की. घायलों को भी फांसी पर लटका दिया. महल और दुर्ग खंडहर कर दिए. कुंवर सिंह पराजित भले हुए हों लेकिन अंग्रेजों का खत्म करने का उनका जज्बा ज्यों का त्यों था. सितंबर 1857 में वे रीवा की ओर निकल गए वहां उनकी मुलाकत नाना साहब से हुई और वे एक और जंग करने के लिए बांदा से कालपी पहुंचे लेकिन लेकिन सर कॉलिन के हाथों तात्या की हार के बाद कुंवर सिंह कालपी नहीं गए और लखनऊ आए.
इस बीच बाबू कुंवर सिंह रामगढ़ के बहादुर सिपाहियों के साथ बांदा, रीवां, आजमगढ़, बनारस, बलिया, गाजीपुर एवं गोरखपुर में विप्लव के नगाड़े बजाते रहे. लेकिन कुंवर सिंह की यह विजयी गाथा ज्यादा दिन तक नहीं टिक सकी और अंग्रेजों ने लखनऊ पर पुन: कब्जा करने के बाद आजमगढ़ पर भी कब्जा कर लिया. इस बीच कुंवर सिंह बिहार की ओर लौटने लगे. जब वे जगदीशपुर जाने के लिए गंगा पार कर रहे थे तभी उनकी बांह में एक अंग्रेजों की गोली आकर लगी. उन्होंने अपनी तलवार से कलाई काटकर नदी में प्रवाहित कर दी. इस तरह से अपनी सेना के साथ जंगलों की ओर चले गए और अंग्रेज़ी सेना को पराजित करके 23 अप्रैल, 1858 को जगदीशपुर पहुंचे. वह बुरी तरह से घायल थे. 1857 की क्रान्ति के इस महान नायक का आखिरकार अदम्य वीरता का प्रदर्शन करते हुए 26 अप्रैल, 1858 को निधन हो गया
गौमांस शैतान का आहार है
वैज्ञानिकों की चेतावनी!
डॉ. राम श्रीवास्तव
परिचय : सेवानिवृत्त प्राचार्य, होलकर कॉलेज, इंदौर
. असली में "बीफ" यानि गौमांस खाना, हिन्दू हो या मुस्लिम या ईसाई सबको तत्काल बन्द कर देना चाहिए. इतना ही नहीं पूरी दुनिया से गौमांस तैयार करने की फ़ैक्टरियों को तत्काल प्रभाव से बन्द कर देना चाहिए. यह कथन तो UNEP अर्थात संयुक्त राष्ट्र संघ की पर्यावरण सुरक्षा संस्थान का है. जिसने इंग्लैण्ड और अमेरिका में हो रही गौ माँस खाने पर चल रहीं रिसर्च के आधार पर यह निष्कर्ष निकाले हैं.
FAO, फ़ूड एण्ड एग्रीकल्चर आर्गेनाइजेशन नामक संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्था ने तो यहाँ तक कह दिया BEEF IS THE DEVIL OR THE SHAITAN OF THE MEAT PRODUCTION INDUSTRY. अर्थात गौमांस बनाने वाली फ़ैक्टरियों को डेविल यानि शैतान की संज्ञा दी है.
यदि यह सही तर्क है , तो शैतान का बनाया खाना क्या किसी इन्सान को खाना चाहिए ? शैतान का खाना शैतान ही खा सकता है . तभी दुनिया के उन हिस्सों में जहाँ गौ माँस का सबसे ज़्यादा सेवन होता है वहां शैतानियत आतंकवाद के रूप में हावी होकर मानवता को चुनौती बनकर खड़ी है.
असली में पूरी दुनिया में इस समय एक अरब ४२ करोड़ पशु धन है. भारत में यह संख्या सिर्फ़ ५ करोड़ १२ लाख ही है, इसमें गाय बैलों की संख्या सिर्फ़ एक करोड़ १० लाख ही है. पूरी दुनिया में माँस की खपत के आंकडे बहुत ही विचारणीय है . प्रति व्यक्ति प्रति दिन माँस की खपत दुनिया में किस तरह हो रही है ज़रा देखिए-
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देश प्रति व्यक्ति प्रति दिन
माँस की खपत
___________________________________________\_
अमेरिका ....... ३२२ ग्राम
चीन ....... .... १६० ग्राम
अन्य देश.... ...... .... १५५ ग्राम
भारत... ...... ...... १२ ग्राम
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देश प्रति व्यक्ति प्रति दिन
माँस की खपत
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अमेरिका ....... ३२२ ग्राम
चीन ....... .... १६० ग्राम
अन्य देश.... ...... .... १५५ ग्राम
भारत... ...... ...... १२ ग्राम
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पूरी दुनिया में जब २७ करोड़ ८० लाख टन माँस खाया जाता है तब भारत में ५९ लाख टन माँस की खपत होती है जो कि पूरी दुनिया का मात्र दो प्रतिशत ही है जबकि आबादी १७ % ज़्यादा है .
येल विश्व विद्यालय अमेरिका और लीडस् विश्व विद्यालय इंग्लैण्ड में गौमांस पर हुई ताज़ा रिसर्च के निष्कर्षों में बहुत चौंकाने वाले नतीजे प्राप्त हुए हैं . वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि एक किलो ग्राम गौमांस तैयार करने में जितना वायुप्रदूषण तथा हवा में कार्बन की मात्रा बढ़ती है उतनी कार्बन की मात्रा किसी कार के १६० किलोमीटर चलाने से निकलती है.
इतना ही नहीं गौमांस तैयार करने में फ़ैक्टरियों में जितना पानी ख़र्च होता है उतने पानी से १७ गुना ज़्यादा गेहूँ चावल की पैदावार बढ़ाई जा सकती है.
इसके अलावा गौ माँस की सबसे बडी ख़राबी है कि गाय की आँतों में मीथेन और मार्श नामक गैसों की अधिक मात्रा होती है . यही कारण है कि "गौमांस को पर्यावरण का शत्रु घोषित कर दिया गया है ." पूरी दुनिया में जहाँ कार और फ़ैक्टरियों से वायुमण्डल में जहाँ १५ प्रतिशत कार्बन की मात्रा मिलती है उससे तीन प्रतिशत ज़्यादा यानि १८ % कार्बन हवा में अकेले गौमांस के कारण बढ़ जाता है.
वैज्ञानिकों का निष्कर्ष है कि अगर पृथ्वी के वायुमण्डल को गरम होने से बचाना है , तो यह ज़रूरी है कि वायुमण्डल में कार्बन की मात्रा बढ़ने से रोकना होगा और दुनिया भर में जितना कार्बन का ज़हर कारें और फ़ैक्टरियाँ हवा में घोल रही है उससे ३ % ज़्यादा गौमांस से हवा में प्रदूषण का ज़हर घुल रहा है .
वैज्ञानिकों का निष्कर्ष है कि अगर पृथ्वी के वायुमण्डल को गरम होने से बचाना है , तो यह ज़रूरी है कि वायुमण्डल में कार्बन की मात्रा बढ़ने से रोकना होगा और दुनिया भर में जितना कार्बन का ज़हर कारें और फ़ैक्टरियाँ हवा में घोल रही है उससे ३ % ज़्यादा गौमांस से हवा में प्रदूषण का ज़हर घुल रहा है .
वैज्ञानिकों का अनुमान है कि अगर सन् २०५० तक पूरी दुनिया में गौमांस प्रतिबंधित हो जाए तो वायुमण्डल के बढ़ते हुए तापमान को बढ़ने से रोका जा सकता है . अन्यथा उत्तरी दक्षिणी ध्रुव की पिघलकर समुद्र का जल स्तर बढ़ जावेगा और पृथ्वी की ज़मीन का २० % भाग जल प्लस में डूब जावेगा.
इस महा जल-प्रलय को रोकने के लिए तत्काल ही गौ माँस को प्रतिबन्धित कर देना चाहिये.तभी तो संयुक्त राष्ट्र संघ ने "गौमांस को शैतान का आहार " बताया है .
एक तरफ़ तो हम "शैतान " को पत्थर मारने के लिए हज़ारों मील दूर जाकर शहीद हो रहे हैं दूसरी तरफ़ "शैतान" का भोजन खाने से रोकने , चाहे वह हिन्दू हो या अन्य किसी धर्म का , उसे "शैतान" का भोजन नहीं खाने का कोई विनम्र अनुरोध करता है तो उसे राजनीतिक धींगामस्ती का कारण क्यों बनाया जाता है? गौमांस नहीं खाना यह तो पूरी तरह वैज्ञानिक चेतावनी है . इसमें धर्म या अधर्म का कीड़ा कहाँ से आ घुसा?
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