Friday, 22 April 2016


संगठन की ताकत ... ध्यान से पढें..

पहले हम सब लोग संयुक्त परिवारों में रहा करते थे. अपने गावों में, मोहल्ले में किसी की हिम्मत नहीं होती थी हमें कुछ कहने की. ... कभी सोचा है संगठित रहने की ताकत क्या होती है? कभी महसूस किया है. जो संगठित हैं उनका दूनिया कुछ भी बिगाड़ने से पहले 100 बार सोचती है. (अगर दूसरे शब्दों में कहैं तो मधुमक्खी हम इंसानों का कुछ नहीं बिगड़ती पर अगर उनको छेड़ दिया तो फिर छोड़ती भी नहीं)
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अब जब से एकल परिवार का concept आया है, तब से हम सब असंगठित होने शुरू हो गए है और असुरक्षित भी. ... कुछ बातें बहुत ही गौर करने वाली है जिससे हम "असंगठित" होते हुए भी अपने आप "संगठित" हो जायेंगे :-

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1) अगर पति पत्नी, माँ-बाप और बच्चों, भाई बहन और रिस्तेदारी में झगड़ा हो तो किसी भी हालत में किसी भी बाहर वाले को दखल मत देने दो.
2) अगर झगड़ा अपने पड़ोसी से हो तो कभी भी दूसरे कॉलोनी वालों को झगडे में शामिल मत करिये।
3) अगर झगड़ा अपने गांव या शहर वाले से है तो कभी भी दूसरे शहर वाले को झगडे में शामिल मत करो.
4) अगर झगड़ा अपने प्रदेश वाले से है तो कभी भी दूसरे प्रदेश वालों को झगडे में शामिल मत करो.
5) अगर झगड़ा अपने देश वाले से है तो कभी भी विदेशियों को झगडे में शामिल मत करो, जो गलती हम लोगों ने अंग्रेजों का गुलाम बनते समय की थी.
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अगर हम अपने झगड़ों को अपनों तक ही सीमित रखेंगे तो हम अलग अलग रहते हुए भी संगठित रहेंगे. आपस में बैठिए - कुछ उनकी सुनिए, कुछ अपनी सुनाइए, किसी से माफ़ी मांगिये, किसी को माफ़ करिये. "हम सभी तभी संगठित हो सकते है जब हम अपनी अपनी गलती पर झुक जाएँ"
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हमें अगर आगे बढ़ना है तो हमें किसी भी हाल में संगठित होना होगा, नहीं तो हमारी स्थिति भी गुलामों जैसी हो जाएगी. जिस तरह अंग्रेजों के आने के बाद उन्होंने हमारे ऊपर शासन किया ..जबकि 1000 भारतीयों के पीछे 1 अंग्रेज था और फिर भी हम गुलाम हो गए क्योँकि हम "असंगठित" थे, सिर्फ अपने लिए सोच रहे थे, अपने आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए नहीं.
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वक़्त आ गया है कि अब हम इस "मैं" की सोच से बड़कर "हम भारतीयों" वाली सोच में आ जाएँ नहीं तो हमें फिर से गुलाम होने से कोई नहीं रोक सकता. हम सगे भाई या रिस्तेदार होते हुए अलग अलग घरों में रहें, ये आज की जरुरत है, पर हम किसी भी हाल में सिर्फ और सिर्फ विचारों तक ही "मतभेद" रखें उसे कभी भी "मनभेद" में न बदलें.
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कितनी भी लड़ाई हो जाये खून के रिस्तों में अगर हम थोड़ा सा झुकना सीख जाएँ तो सारे मामले निपट सकते हैं. ....होता क्या है कि हम अपने खून के रिस्तों के आगे तो झुकते नहीं पर दूसरे बाहर वालों के आगे हमेशा झुक जाते है. दूसरा हमारा फायदा उठाए तो उठाए, पर अपना फायदा नहीं उठाना चाहिए-- इसी मानसिकता ने हमें अंग्रेजों का गुलाम बनाया था
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अगर हमारा अपने किसी रिस्तेदार से पैसों का झगड़ा हुआ और चलो मान लिया हम झुक गए तो पैसा गया तो हमारे अपने रिस्तेदार के पास ही, अपनी फैमिली से बाहर थोड़े ही गया, ये बात हमें समझनी पड़ेगी. "फुट डालो और शासन करो" में होता क्या है कि हम अपना या अपने रिस्तेदारों का नुकसान करा कर दूसरों का फायदा करा रहे होते हैं.
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अगर हमारे आदर्शों और राष्ट्रहित के बीच में टकराव की स्तिथि पैदा हो तो हमेशा आदर्शों से पहले राष्ट्रहित को ही चुनें... हम भारतीय 'न्यायसंगत' थे, हम 'शांतिप्रिय' थे, हम मानवता में विश्वास करते थे, परन्तु इतिहास ने हमें सजा दी, सजा इस बात की कि हमने अपनी शक्तियों का प्रयोग नहीं किया और हम "असंगठित" थे. .. "फुट डालो और शासन करो" की नीति हर उस जगह सफल होगी जहाँ हम "असंगठित" होते चले जायेंगे, चाहे हमारा घर हो, कॉलोनी हो, गावों हो, शहर हो, राज्य हो या देश हो.
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--- Self Motivation -
"इतिहास ने कभी उसका साथ नहीं दिया जो 'न्याय संगत' था, जो 'शांतिप्रिय' था, इतिहास की अदालत में सदैव वही विजयी हुआ है जो "शक्तिशाली (संगठित)" था."
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