दीपा की उपलब्धि
दीपा करमाकर बेहद कड़े मुकाबले में 52.698 अंक हासिल कर ओलंपिक में अपनी दावेदारी तय करने वाली पहली भारतीय जिमनास्ट बन गई हैं।
इस संदर्भ में विचारणीय यह भी है कि एक खिलाड़ी को अपना खेल कौशल मांजने के लिए सरकार की तरफ से लगातार जो प्रोत्साहन, सुविधाएं और अवसर मिलने चाहिए वे हमारे यहां अक्सर नदारद क्यों रहते हैं? क्या दीपा की कामयाबी पर जश्न के माहौल में इन सवालों को निरुत्तर छोड़ देना उचित कहा जा सकता है? अफसोसनाक हकीकत यह है कि भारत में उन्माद की हद तक पहुंची क्रिकेट की दीवानगी ने अन्य खेलों, खासकर एथलेटिक्स को पनपने नहीं दिया है। अन्य दर्जनों खेलों के बरक्स क्रिकेट का पलड़ा हमेशा भारी रहा है और उसे खेलों का पर्याय तक बना दिया गया है। क्रिकेट के लिए हमारे यहां अकूत पैसा है, खिलाड़ियों के लिए अनगिनत सुविधाएं हैं, मगर जिमनास्टिक्स व अन्य खेलों में उपलब्धियां हासिल करने के लिए खिलाड़ियों और उनके परिजनों को निजी तौर पर जुटाए संसाधनों-सुविधाओं के भरोसे रहना पड़ता है। दूसरी तरफ अन्य देशों में उनके खिलाड़ियों को उन्नत आधुनिकतम खेल संसाधन और सुविधाएं सहज उपलब्ध रहते हैं। हमारे यहां खिलाड़ियों को बुनियादी सुविधाएं और अपेक्षित पोषण भी नहीं मिल पाता जबकि खेल महकमे और खेल संघों पर काबिज लोग खिलाड़ियों के शोषण से लेकर उनके लिए आबंटित राशि की बंदरबांट के खेल में शामिल पाए जाते रहे हैं। ऐसे परिदृश्य में दीपा करमाकर से ओलंपिक पदक की आस लगाने से पहले हमें उनके लिए विश्वस्तरीय आधुनिक सुविधाओं वाले उच्च प्रशिक्षण की व्यवस्था करने की जरूरत है। क्या दीपा की सफलता पर तालियां बजाते हुए हमें उनके प्रति अपनी इस जिम्मेदारी का जरा भी अहसास है?
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