Monday, 18 April 2016

दीपा की उपलब्धि

दीपा करमाकर बेहद कड़े मुकाबले में 52.698 अंक हासिल कर ओलंपिक में अपनी दावेदारी तय करने वाली पहली भारतीय जिमनास्ट बन गई हैं।

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 त्रिपुरा की बाईस वर्षीय जिमनास्ट दीपा करमाकर का रियो ओलंपिक के लिए क्वालिफाई 
करना एक बड़ी उम्मीद जगाता है। वे बेहद कड़े मुकाबले में 52.698 अंक हासिल कर 
ओलंपिक में अपनी दावेदारी तय करने वाली पहली भारतीय जिमनास्ट बन गई हैं। यह 
उपलब्धि इस लिहाज से भी गौरवशाली और ऐतिहासिक है कि बावन साल बाद कोई 
भारतीय जिमनास्ट ओलंपिक में हिस्सा लेगा।
 करमाकर से पहले भी हालांकि ग्यारह पुरुष जिमनास्ट- 1952 में दो, 1956 में तीन 
और 1964 में छह- ओलंपिक में भाग ले चुके हैं, लेकिन तब क्वालिफाइंग मुकाबले
 नहीं होते थे और सीधे ओलंपिक में प्रवेश मिल जाता था। जबकि करमाकर ने सबसे
 मुश्किल माने जाने वाले प्रोड्यूनोवा वॉल्ट राउंड में बाकी सभी चौदह दिग्गज प्रतियोगियों
 को पछाड़ कर ओलंपिक में अपनी दावेदारी सुनिश्चित की है। दीपा की सफलता
 रियो डि जनेरियो ओलंपिक की पदक तालिका में भारत का नाम दर्ज करा पाती है
 या नहीं, यह तो भविष्य के गर्भ में है लेकिन वे 2014 के ग्लासगो राष्ट्रमंडल खेलों 
में कांस्य पदक जीत कर अंतरराष्ट्रीय जिमनास्टिक्स स्पर्धाओं में पदक के लिए भारत की 
दावेदारी का पहले ही आगाज कर चुकी हैं। आज जब सानिया मिर्जा से लेकर साइना
 नेहवाल तक भारत की बेटियां विश्व खेल जगत में देश का नाम रोशन कर रही हैं तब
 एक अन्य बेटी की कामयाबी निश्चय ही गर्वित करने वाली है। लेकिन इस गर्व और 
चौतरफा हर्ष के माहौल में हम सुविधापूर्वक क्यों भुला देते हैं कि यह उपलब्धि केवल
 उनके कड़े परिश्रम, सतत अभ्यास और अटूट जज्बे का प्रतिफल है; इसमें सरकार या 
खेल संघों से मिले प्रोत्साहन की भूमिका न्यून क्यों है? दीपा करमाकर को हालांकि अर्जुन
 पुरस्कार से नवाजा जा चुका है, लेकिन क्या महज पुरस्कार से किसी खिलाड़ी की खेल
 संबंधी जरूरतें पूरी हो जाती हैं?
इस संदर्भ में विचारणीय यह भी है कि एक खिलाड़ी को अपना खेल कौशल मांजने के लिए सरकार की तरफ से लगातार जो प्रोत्साहन, सुविधाएं और अवसर मिलने चाहिए वे हमारे यहां अक्सर नदारद क्यों रहते हैं? क्या दीपा की कामयाबी पर जश्न के माहौल में इन सवालों को निरुत्तर छोड़ देना उचित कहा जा सकता है? अफसोसनाक हकीकत यह है कि भारत में उन्माद की हद तक पहुंची क्रिकेट की दीवानगी ने अन्य खेलों, खासकर एथलेटिक्स को पनपने नहीं दिया है। अन्य दर्जनों खेलों के बरक्स क्रिकेट का पलड़ा हमेशा भारी रहा है और उसे खेलों का पर्याय तक बना दिया गया है। क्रिकेट के लिए हमारे यहां अकूत पैसा है, खिलाड़ियों के लिए अनगिनत सुविधाएं हैं, मगर जिमनास्टिक्स व अन्य खेलों में उपलब्धियां हासिल करने के लिए खिलाड़ियों और उनके परिजनों को निजी तौर पर जुटाए संसाधनों-सुविधाओं के भरोसे रहना पड़ता है। दूसरी तरफ अन्य देशों में उनके खिलाड़ियों को उन्नत आधुनिकतम खेल संसाधन और सुविधाएं सहज उपलब्ध रहते हैं। हमारे यहां खिलाड़ियों को बुनियादी सुविधाएं और अपेक्षित पोषण भी नहीं मिल पाता जबकि खेल महकमे और खेल संघों पर काबिज लोग खिलाड़ियों के शोषण से लेकर उनके लिए आबंटित राशि की बंदरबांट के खेल में शामिल पाए जाते रहे हैं। ऐसे परिदृश्य में दीपा करमाकर से ओलंपिक पदक की आस लगाने से पहले हमें उनके लिए विश्वस्तरीय आधुनिक सुविधाओं वाले उच्च प्रशिक्षण की व्यवस्था करने की जरूरत है। क्या दीपा की सफलता पर तालियां बजाते हुए हमें उनके प्रति अपनी इस जिम्मेदारी का जरा भी अहसास है?

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