"किसी साइकिल को चलाने के लिए सबसे ज़रूरी क्या है ? सीट, चक्के, चैन, पहिए या हैंडल , नहीं, क्योंकि ये वो महत्वपूर्ण अंग है जो साइकिल की सम्पूर्णता के लिए निर्णायक हैं ; अगर इनमे से एक भी अंग न हो तो साइकिल साइकिल नहीं होता !
साइकिल चलाने के लिए सबसे ज़रूरी 'बैलेंस' (संतुलन) होता है जो साइकिल में उसके किसी अंग की तरह नहीं लगा होता बल्कि उसे प्राप्त करना होता है जो कोई भी साइकिल सवार अपने शरीर और साइकिल के समन्वय से प्राप्त करता है।
साइकिल के सन्दर्भ में जो बैलेंस की भूमिका है इस श्रिष्टि के सन्दर्भ में वही ईश्वर का मह्त्व; वह होता नहीं है, उसे प्राप्त करना होता है।
विज्ञानं के लिए जो संतुलन (एक्विलिब्रियम) है , आस्था के लिए वह ईश्वर और आध्यात्म उसे मन, बुद्धि और शरीर के समन्वय से जीवन को प्राप्त होने वाला सन्तुअलन के रूप में जानता है . दृष्टिकोण के अंतर से भले ही परिदृश्य का प्रारूप बदल जाये पर इससे सत्य के अस्तित्व पर कोई असर नहीं पड़ता ; . सभी को अपने निष्कर्ष के निर्धारण का अधिकार है जो उनके व्यक्तिगत विवेक का परिचायक होता है, ऐसे में, अगर हम निर्णायक बनने के बजाये विचारशील होने का प्रयास करें तो सही निष्कर्ष तक पहुँचने की सम्भावना प्रबल हो जाती हैं; विज्ञानं ने भी अपने प्रयोगों के माध्यम से यही सिखाया है; पढ़ा तो सब ने पर शायद सीखना भूल गए तभी आज यह स्थिति है !.
विश्वास का कोई तर्क नहीं होता और शक का कोई इलाज नहीं पर यह वो शक्तियां हैं जिसके कारन संसार में भगवान् या भूत का अस्तित्व है ; ज्ञान को न ही धर्म के प्रति कोई शंशय है और न ही ईश्वर को लेकर कोई भ्रम, समस्याओं का कारन अज्ञान है जो अपने तर्कों से अपनी समझ को सही सिद्ध करने का प्रयास करता है जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति सोचने और समझने से स्वतः ही प्रतिरक्षित हो जाता है , ऐसे ही लोग न केवल धर्म बल्कि मानवता के भी कुंठा का कारन होते हैं !
महत्वपूर्ण हमेशा रोचक नहीं होता पर कुछ भी रोचक स्वतः ही महत्वपूर्ण हो जाता है, हिंदुत्व के पास यह सामान्य ज्ञान का अनुभव था और शायद यही कारन रहा होगा जिसने हिंदुत्व के महत्वपूर्ण ज्ञान को रोचक कथाओं के रूप में प्रसारित किया;
वास्तव में, हमारा विश्वास ही बाह्य संसार के परिदृश्य को परिभासित करता है, ऐसे में, हमारे पास दो विकल्प होते हैं ; या तो हम जो देखें उस पर विश्वास करें या हम जिस पर विश्वास करें केवल वही देखें। दीर्घकाल में संभव है की समय के घर्षण से जीवन मूल्यों और नैतिकताओं की ऊपरी सतह आलोड़ित हो जाए और यथार्थ का परिदृश्य हमारे विश्वास का खंडन करे, ऐसे में, सत्य पर विश्वास की आस्था बनी रहे इसीलिए भक्ति ने अपने प्रेम से कल्पना का प्रयोग कर ईश्वर्य गुणों को देवताओं के रूप में मूर्त रूप प्रदान किया ; इसमें गलत क्या है ? अब किसी को कल्पना के सौंदर्य से ही समस्या हो तो उसे व्यक्ति का मानसिक विकार नहीं तो और क्या कहेंगे !
वास्तव में आज हम इतने मूर्ख और अहंकारी हो गए हैं की हम जो जानते है वही सही सिद्ध करने पर तुले हैं, न केवल हमारी जिज्ञासा मरगई है बल्कि हमारे समझ की कुंठा ने हमें नए के ज्ञान से भी प्रतिरक्षित कर दिया है तभी आज मनुष्य अपने सीमित समझ के तर्कों से ईश्वर के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह लगा रहा है !
कृत्रिम भाव का कोई मह्त्व नहीं होता इसलिए विश्वास और आस्था जबरदस्ती किसी के अंदर नहीं जगाई जा सकती पर जब लोग स्वयं को सही सिद्ध करने के लिए मनुस्मृति जलाने लगें तो उनकी मूर्खता उन्हें दया का पात्र बना देती है; आखिर हमारे शास्त्रों ने भी कहा है की 'स्मृति' और 'श्रुति' में टकराव की स्थिति में मह्त्व 'श्रुति' को मिलना चाहिए और ऐसा इसलिए क्योंकि 'स्मृति' से भिन्न 'श्रुति' में समय के तर्कों को स्थान जो मिलता है जबकि 'स्मृति' स्थाई है और इसकारण समय के सन्दर्भ के परिवर्तन से प्रतिरक्षित भी; गीता भी तो श्रुति का ही एक प्रारूप है।
आज समस्या यह नहीं की हम मूर्ख और अहंकारी हैं बल्कि समस्या यह है की हमें अपने अज्ञान का आभास ही नहीं और यही कारन है की आज हम इस दुर्दशा के पात्र हैं !
राष्ट्र के लिए परम वैभव प्राप्त कर पाना तभी संभव होगा जब वहां का समाज धार्मिक हो और धार्मिक समाज की स्थापना तभी संभव है जब समाज में व्यक्ति अपने व्यवहारिक जीवन में नैतिक मूल्यों को अपनाए; ये तभी संभव है जब लोगों के बीच सही और गलत का अंतर स्पष्ट हो और इसके लिए शिक्षा का ज्ञान महत्वपूर्ण होगा;
अब समाज में कोई व्यक्ति अथवा संस्था अकेले तो व्यवस्था के नियमों को बदल नहीं सकता, इसीलिए व्यवस्था तंत्र में सामाजिक प्रतिनिधित्व का प्रावधान है पर जब सामाजिक प्रतिनिधि ही सामाजिक प्रतिनिधित्व के योग्य न हो तो व्यवस्था में परिवर्तन भला कैसे संभव होगा ;
आखिर आवश्यकता ने ही तो प्रयोगों को जन्म दिया है और जब आवश्यकता ही महसूस न हो तो प्रयोग कैसा और क्यों ?
आवश्यकता महसूस करने के लिए समझदारी से अधिक संवेदनशीलता निर्णायक होगी पर दुर्भागयवश आज हम इतने समझदार हो गए हैं की अपने स्वार्थ के लिए अपने सिद्धांतों, आदर्शों और नैतिक मूल्यों से समझौता करना सीख लिया है तभी समय की संवेदनाएं जीवन को महसूस नहीं हो रही ;
अगर अब भी हम परिवर्तन को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं तो विश्वास मानिए की यह लाभ और लोभ की मानसिकता द्वारा परिभासित व्यवहारिकता ही हमारे अंत का कारन बनेगा ; जैसा निर्णय, वैसी नियति !"
साइकिल चलाने के लिए सबसे ज़रूरी 'बैलेंस' (संतुलन) होता है जो साइकिल में उसके किसी अंग की तरह नहीं लगा होता बल्कि उसे प्राप्त करना होता है जो कोई भी साइकिल सवार अपने शरीर और साइकिल के समन्वय से प्राप्त करता है।
साइकिल के सन्दर्भ में जो बैलेंस की भूमिका है इस श्रिष्टि के सन्दर्भ में वही ईश्वर का मह्त्व; वह होता नहीं है, उसे प्राप्त करना होता है।
विज्ञानं के लिए जो संतुलन (एक्विलिब्रियम) है , आस्था के लिए वह ईश्वर और आध्यात्म उसे मन, बुद्धि और शरीर के समन्वय से जीवन को प्राप्त होने वाला सन्तुअलन के रूप में जानता है . दृष्टिकोण के अंतर से भले ही परिदृश्य का प्रारूप बदल जाये पर इससे सत्य के अस्तित्व पर कोई असर नहीं पड़ता ; . सभी को अपने निष्कर्ष के निर्धारण का अधिकार है जो उनके व्यक्तिगत विवेक का परिचायक होता है, ऐसे में, अगर हम निर्णायक बनने के बजाये विचारशील होने का प्रयास करें तो सही निष्कर्ष तक पहुँचने की सम्भावना प्रबल हो जाती हैं; विज्ञानं ने भी अपने प्रयोगों के माध्यम से यही सिखाया है; पढ़ा तो सब ने पर शायद सीखना भूल गए तभी आज यह स्थिति है !.
विश्वास का कोई तर्क नहीं होता और शक का कोई इलाज नहीं पर यह वो शक्तियां हैं जिसके कारन संसार में भगवान् या भूत का अस्तित्व है ; ज्ञान को न ही धर्म के प्रति कोई शंशय है और न ही ईश्वर को लेकर कोई भ्रम, समस्याओं का कारन अज्ञान है जो अपने तर्कों से अपनी समझ को सही सिद्ध करने का प्रयास करता है जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति सोचने और समझने से स्वतः ही प्रतिरक्षित हो जाता है , ऐसे ही लोग न केवल धर्म बल्कि मानवता के भी कुंठा का कारन होते हैं !
महत्वपूर्ण हमेशा रोचक नहीं होता पर कुछ भी रोचक स्वतः ही महत्वपूर्ण हो जाता है, हिंदुत्व के पास यह सामान्य ज्ञान का अनुभव था और शायद यही कारन रहा होगा जिसने हिंदुत्व के महत्वपूर्ण ज्ञान को रोचक कथाओं के रूप में प्रसारित किया;
वास्तव में, हमारा विश्वास ही बाह्य संसार के परिदृश्य को परिभासित करता है, ऐसे में, हमारे पास दो विकल्प होते हैं ; या तो हम जो देखें उस पर विश्वास करें या हम जिस पर विश्वास करें केवल वही देखें। दीर्घकाल में संभव है की समय के घर्षण से जीवन मूल्यों और नैतिकताओं की ऊपरी सतह आलोड़ित हो जाए और यथार्थ का परिदृश्य हमारे विश्वास का खंडन करे, ऐसे में, सत्य पर विश्वास की आस्था बनी रहे इसीलिए भक्ति ने अपने प्रेम से कल्पना का प्रयोग कर ईश्वर्य गुणों को देवताओं के रूप में मूर्त रूप प्रदान किया ; इसमें गलत क्या है ? अब किसी को कल्पना के सौंदर्य से ही समस्या हो तो उसे व्यक्ति का मानसिक विकार नहीं तो और क्या कहेंगे !
वास्तव में आज हम इतने मूर्ख और अहंकारी हो गए हैं की हम जो जानते है वही सही सिद्ध करने पर तुले हैं, न केवल हमारी जिज्ञासा मरगई है बल्कि हमारे समझ की कुंठा ने हमें नए के ज्ञान से भी प्रतिरक्षित कर दिया है तभी आज मनुष्य अपने सीमित समझ के तर्कों से ईश्वर के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह लगा रहा है !
कृत्रिम भाव का कोई मह्त्व नहीं होता इसलिए विश्वास और आस्था जबरदस्ती किसी के अंदर नहीं जगाई जा सकती पर जब लोग स्वयं को सही सिद्ध करने के लिए मनुस्मृति जलाने लगें तो उनकी मूर्खता उन्हें दया का पात्र बना देती है; आखिर हमारे शास्त्रों ने भी कहा है की 'स्मृति' और 'श्रुति' में टकराव की स्थिति में मह्त्व 'श्रुति' को मिलना चाहिए और ऐसा इसलिए क्योंकि 'स्मृति' से भिन्न 'श्रुति' में समय के तर्कों को स्थान जो मिलता है जबकि 'स्मृति' स्थाई है और इसकारण समय के सन्दर्भ के परिवर्तन से प्रतिरक्षित भी; गीता भी तो श्रुति का ही एक प्रारूप है।
आज समस्या यह नहीं की हम मूर्ख और अहंकारी हैं बल्कि समस्या यह है की हमें अपने अज्ञान का आभास ही नहीं और यही कारन है की आज हम इस दुर्दशा के पात्र हैं !
राष्ट्र के लिए परम वैभव प्राप्त कर पाना तभी संभव होगा जब वहां का समाज धार्मिक हो और धार्मिक समाज की स्थापना तभी संभव है जब समाज में व्यक्ति अपने व्यवहारिक जीवन में नैतिक मूल्यों को अपनाए; ये तभी संभव है जब लोगों के बीच सही और गलत का अंतर स्पष्ट हो और इसके लिए शिक्षा का ज्ञान महत्वपूर्ण होगा;
अब समाज में कोई व्यक्ति अथवा संस्था अकेले तो व्यवस्था के नियमों को बदल नहीं सकता, इसीलिए व्यवस्था तंत्र में सामाजिक प्रतिनिधित्व का प्रावधान है पर जब सामाजिक प्रतिनिधि ही सामाजिक प्रतिनिधित्व के योग्य न हो तो व्यवस्था में परिवर्तन भला कैसे संभव होगा ;
आखिर आवश्यकता ने ही तो प्रयोगों को जन्म दिया है और जब आवश्यकता ही महसूस न हो तो प्रयोग कैसा और क्यों ?
आवश्यकता महसूस करने के लिए समझदारी से अधिक संवेदनशीलता निर्णायक होगी पर दुर्भागयवश आज हम इतने समझदार हो गए हैं की अपने स्वार्थ के लिए अपने सिद्धांतों, आदर्शों और नैतिक मूल्यों से समझौता करना सीख लिया है तभी समय की संवेदनाएं जीवन को महसूस नहीं हो रही ;
अगर अब भी हम परिवर्तन को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं तो विश्वास मानिए की यह लाभ और लोभ की मानसिकता द्वारा परिभासित व्यवहारिकता ही हमारे अंत का कारन बनेगा ; जैसा निर्णय, वैसी नियति !"
No comments:
Post a Comment