इसे पूरा पढ़ा जाए और खातूनों का असली समर्थन किया जाए...
तृप्ति देसाई टाईप नकली समर्थन नहीं...
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Zoya G Ansari
े तीन हिस्से हैं A.... B और C हो सकता है जिन दोस्तों को सब पता हो उन्हें गैरज़रूरी लगें , लेकिन बाकी दोस्तों को तीनो भाग से परिचित कराना जरूरी था . तीनो भाग एक दूसरे को Compliment करते हैं हो सकता है आपको इनमे disconnect लगे ...
★★★★★★★★★★★★★★★
A〕मेरा उद्देश्य शरीयत को नकारना या जायज़ ठहराना नही है , वो सकता है वो भी प्रभावी होती , लेकिन शरीयत पे कुछ कट्टरपंथी, और मध्यकालीन सोच वाले क़ाज़ी, उलेमा काबिज़ हैं . जो अपनी सुविधा के हिसाब से हदीस की व्याख्या करते हैं ! महिलाओं के मामले जैसे तलाक, मैहर की रकम, गुजारा , मार पीट आदि मामलों में फैसले उनके खिलाफ ही जाते हैं . उदाहरण के लिए .....
1-कुरआन में कहीं भी बुर्के का ज़िक्र पह्नावे के रूप में नही है , वहाँ बुर्के से मुराद है शालीनता और अपनी नजरो पे नियंत्रण , मर्दों के लिए भी बुर्के की हिदायत है ...लेकिन एक आम मुस्लिम यही बोलेगा के कुरआन में औरतों को बुर्के का हुक्म दिया गया है , क्यों के कम पढ़े ,कट्टर मौलवियों ने उन्हें यही तर्जुमा समझाया है .
2- हज़रात खदीजा (पैगम्बर मुहम्मद की पहली पत्नी )entrepreneur थीं खुद व्यापर करती थी लेकिन आम मुस्लिम को मौलवी समझाते हैं के औरत को घर की चाहर दीवारी से बाहर नही निकलना चाहिए .
3- हजरत आइशा के चरित्र पे कुछ लोगों ने सवाल उठाये थे तो पैगम्बर ने उनको चार चश्मदीदों को लाने को कहा जो आयशा पे लगे आरोपों को साबित कर सकें .(Necklace Incident ) लेकिन आज अगर कोई रेप का मामला शरिया अदालत में आता है तो पीडिता को खुद चार गवाह लाने को कहा जाता है, ना लाने पर पीडिता को ही 100 कोड़ों की सजा दी जाती है .
4-मेहर की रकम के बारे में भी कुरआन में उदारता से देने का हुक्म है , लेकिन होता क्या है , मेहर की रकम कुछ हज़ार रूपये मात्र !!
5-तीन बार मौखिक तलाक की कुरआन में कोई व्यवस्था नही है . कुरआन के हिसाब से तलाक एक लम्बी प्रक्रिया है जिसमे औरत को उसके हुकूक दिए बगैर छोड़ा नही जा सकता . लेकिन भरष्ट लालची क़ाज़ी मौलवी जुबानी तलाक ,यहाँ तक के SMS से हुए तलाक को भी जायज़ करार देकर कुरआन का मखौल उड़ा रहे हैं .
6-शरिया में बलात्कारी के लिए कड़ी सजा का प्रावधान है . लेकिन मेरठ के पास एक महिला जिसके साथ उसके ससुर ने रेप किया , शरिया अदालत ने पीडिता को उसी ससुर के साथ शादी करने का फैसला सुना दिया . याने कि दरिन्दे ससुर को ईनाम और सजा पीडिता को .
7- हदीस के हिसाब से औरत को तलाक के मामले में मर्दों से बड़ा हक हासिल है . एक शब्द है " खुला" जिसका मतलब है के औरत मरद को कभी भी तलाक दे सकती है और मर्द को इसपे सवाल उठाने का हक नही.
शरीयत को अगर आज से 1400 साल पुरानी व्यवस्था के हिसाब से देखा जाये तो वो प्रभावी थी . लेकिन आज भी उतनी ही प्रासंगिक हो ये ज़रूरी नही .
जबकि भारतीय न्याय व्यवस्था में तमाम कमजोरियों के बावजूद संशोधनों का प्रावधान है जो इसकी आत्मा को जीवित रखती है .
★★★★★★★★★★★★★★
B〕आज़ादी से पहले भारत में हिन्दू महिलाओं की स्थिति मुस्लिम महिलाओं के मुकाबले अधिक बुरी थी. उस समय से हिसाब से समाज और कार्यस्थल पे हिन्दू महिलाओं की स्थिति कमोबेश एक जैसी थी . सच तो ये है के सामाजिक प्रतिबंध हिन्दू महिलाओं पे अधिक थे . दकियानूसी, अंधविश्वास, आडम्बर और पाखंड की ज्यादा शिकार हिन्दू महिलायें थी. बाल विवाह, अशिक्षा, सती, विधवाओं की दुर्दशा किसी से छिपी नही थी . हिन्दू समाज में महिलाओं की दशा अपनी मुस्लिम बहनों के मुकाबले बदतर थी .
लेकिन तत्कालीन हिन्दू नेताओं (जिनमे पगतिशील और धर्मनिरपेक्ष सोच वाले अधिक थे) ने व्यावहारिकता का परिचय देते हुए हिन्दू समाज को संविधान के हवाले कर दिया . वैसे इसका कट्टरपंथी हिन्दूवादियों द्वारा इसका छिटपुट विरोध भी हुआ लेकिन सुधारवादियों की जीत हुई . जबकी मुसलमानों को उनके नेताओं ने धोखा दिया, वो मुसलमानों के लिए मुस्लिम पर्सनल लॉ की माग पे अड़ गये , प्रगतिशील हिन्दू नेता भी उनकी मांग के आगे झुक गये या यूँ मान लीजिये उन्होंने सोचा मुसलमानों का मामला है रहने दो !! संविधान के प्रभाव में आते ही कुछ वर्षों में असर दिखने लगा हिन्दू महिलाओं और दलितों के हालात सुधरने लगे , उनकी शिक्षा और आर्थिकी में सुधार हुआ , उनको हक मिले सत्ता और नौकरियों में उनकी भागीदारी बढ़ी . सच कहा जाए तो भारत के संविधान ने हिन्दुओं को बचा लिया .!
लेकिन दूसरी ओर मुस्लिम अपने मजहबी गुरूर और 1400 वर्ष पुरानी पुरुषवादी जिद से बाहर नही निकल पाए , दकियानूसी सोच वाले मुल्ला-मौलवीयों के हाथों में मुस्ल्मांनो की रहनुमाई आ गयी . दिनों दिन सत्ता , शिक्षा, राजनीति , व्यापार और नौकरियों में उनकी भागीदारी घटती गयी. 80 और 90 के दशक में तो मुसलमान की हैसियत सिर्फ "वोट बैंक" तक महदूद रह गयी. उनके नेता सत्ता से सौदेबाजी करते रहे और मुसलमानों के धार्मिक भावनात्मक मामलो को उठाकर उनको बेवकूफ बनाते रहे .
★★★★★★★★★★★★★★★
C〕 आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (AIMPLB)जाहिलों और कट्टरपंथियो का जमावड़ा है . ये धूर्त सियासतदां हैं या सियासी पार्टियों के एजेंट हैं जिनका आम मुसलमानों से कोई सरोकार नही . 1986 में शाहबानो मामले में इन्होने कांग्रेस को ब्लैकमेल करके सुप्रीम कोर्ट के फैसले को ही बदलवा दिया . तत्कालीन प्रधान्मन्त्री राजीव ने तब वोटों की खातिर मुसलिम महिलाओं के साथ धोखा किया था . सच तो ये है के मुसलमानों के नाम पे सियासत करने वाले कुछ मक्कार नेताओं ने पूरी मुस्लिम कौम के साथ धोखा किया और कांग्रेस इस गुनाह में बराबर हिस्सेदार थी . यहीं से गैर मुस्लिमो खासतौर पे कट्टरपंथी हिन्दू संगठनों को ये बात फैलाने का मौका मिल गया के सरकार मुस्लिमो का तुष्टीकरण कर रही है और उनको विशेषाधिकार देने के लिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ जा सकती है . जबकी सच तो ये था के "शाहबानो केस" में कांग्रेस और AIMPLB की मिलीभगत का नुक्सान मुसलमानों को ही हुआ . मुसलमान बदनाम हुए के वो महिला विरोधी हैं , दकियानूस हैं , धर्मांध हैं , उनका भारत के संविधान में विश्वास नही हैं !
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A〕मेरा उद्देश्य शरीयत को नकारना या जायज़ ठहराना नही है , वो सकता है वो भी प्रभावी होती , लेकिन शरीयत पे कुछ कट्टरपंथी, और मध्यकालीन सोच वाले क़ाज़ी, उलेमा काबिज़ हैं . जो अपनी सुविधा के हिसाब से हदीस की व्याख्या करते हैं ! महिलाओं के मामले जैसे तलाक, मैहर की रकम, गुजारा , मार पीट आदि मामलों में फैसले उनके खिलाफ ही जाते हैं . उदाहरण के लिए .....
1-कुरआन में कहीं भी बुर्के का ज़िक्र पह्नावे के रूप में नही है , वहाँ बुर्के से मुराद है शालीनता और अपनी नजरो पे नियंत्रण , मर्दों के लिए भी बुर्के की हिदायत है ...लेकिन एक आम मुस्लिम यही बोलेगा के कुरआन में औरतों को बुर्के का हुक्म दिया गया है , क्यों के कम पढ़े ,कट्टर मौलवियों ने उन्हें यही तर्जुमा समझाया है .
2- हज़रात खदीजा (पैगम्बर मुहम्मद की पहली पत्नी )entrepreneur थीं खुद व्यापर करती थी लेकिन आम मुस्लिम को मौलवी समझाते हैं के औरत को घर की चाहर दीवारी से बाहर नही निकलना चाहिए .
3- हजरत आइशा के चरित्र पे कुछ लोगों ने सवाल उठाये थे तो पैगम्बर ने उनको चार चश्मदीदों को लाने को कहा जो आयशा पे लगे आरोपों को साबित कर सकें .(Necklace Incident ) लेकिन आज अगर कोई रेप का मामला शरिया अदालत में आता है तो पीडिता को खुद चार गवाह लाने को कहा जाता है, ना लाने पर पीडिता को ही 100 कोड़ों की सजा दी जाती है .
4-मेहर की रकम के बारे में भी कुरआन में उदारता से देने का हुक्म है , लेकिन होता क्या है , मेहर की रकम कुछ हज़ार रूपये मात्र !!
5-तीन बार मौखिक तलाक की कुरआन में कोई व्यवस्था नही है . कुरआन के हिसाब से तलाक एक लम्बी प्रक्रिया है जिसमे औरत को उसके हुकूक दिए बगैर छोड़ा नही जा सकता . लेकिन भरष्ट लालची क़ाज़ी मौलवी जुबानी तलाक ,यहाँ तक के SMS से हुए तलाक को भी जायज़ करार देकर कुरआन का मखौल उड़ा रहे हैं .
6-शरिया में बलात्कारी के लिए कड़ी सजा का प्रावधान है . लेकिन मेरठ के पास एक महिला जिसके साथ उसके ससुर ने रेप किया , शरिया अदालत ने पीडिता को उसी ससुर के साथ शादी करने का फैसला सुना दिया . याने कि दरिन्दे ससुर को ईनाम और सजा पीडिता को .
7- हदीस के हिसाब से औरत को तलाक के मामले में मर्दों से बड़ा हक हासिल है . एक शब्द है " खुला" जिसका मतलब है के औरत मरद को कभी भी तलाक दे सकती है और मर्द को इसपे सवाल उठाने का हक नही.
शरीयत को अगर आज से 1400 साल पुरानी व्यवस्था के हिसाब से देखा जाये तो वो प्रभावी थी . लेकिन आज भी उतनी ही प्रासंगिक हो ये ज़रूरी नही .
जबकि भारतीय न्याय व्यवस्था में तमाम कमजोरियों के बावजूद संशोधनों का प्रावधान है जो इसकी आत्मा को जीवित रखती है .
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B〕आज़ादी से पहले भारत में हिन्दू महिलाओं की स्थिति मुस्लिम महिलाओं के मुकाबले अधिक बुरी थी. उस समय से हिसाब से समाज और कार्यस्थल पे हिन्दू महिलाओं की स्थिति कमोबेश एक जैसी थी . सच तो ये है के सामाजिक प्रतिबंध हिन्दू महिलाओं पे अधिक थे . दकियानूसी, अंधविश्वास, आडम्बर और पाखंड की ज्यादा शिकार हिन्दू महिलायें थी. बाल विवाह, अशिक्षा, सती, विधवाओं की दुर्दशा किसी से छिपी नही थी . हिन्दू समाज में महिलाओं की दशा अपनी मुस्लिम बहनों के मुकाबले बदतर थी .
लेकिन तत्कालीन हिन्दू नेताओं (जिनमे पगतिशील और धर्मनिरपेक्ष सोच वाले अधिक थे) ने व्यावहारिकता का परिचय देते हुए हिन्दू समाज को संविधान के हवाले कर दिया . वैसे इसका कट्टरपंथी हिन्दूवादियों द्वारा इसका छिटपुट विरोध भी हुआ लेकिन सुधारवादियों की जीत हुई . जबकी मुसलमानों को उनके नेताओं ने धोखा दिया, वो मुसलमानों के लिए मुस्लिम पर्सनल लॉ की माग पे अड़ गये , प्रगतिशील हिन्दू नेता भी उनकी मांग के आगे झुक गये या यूँ मान लीजिये उन्होंने सोचा मुसलमानों का मामला है रहने दो !! संविधान के प्रभाव में आते ही कुछ वर्षों में असर दिखने लगा हिन्दू महिलाओं और दलितों के हालात सुधरने लगे , उनकी शिक्षा और आर्थिकी में सुधार हुआ , उनको हक मिले सत्ता और नौकरियों में उनकी भागीदारी बढ़ी . सच कहा जाए तो भारत के संविधान ने हिन्दुओं को बचा लिया .!
लेकिन दूसरी ओर मुस्लिम अपने मजहबी गुरूर और 1400 वर्ष पुरानी पुरुषवादी जिद से बाहर नही निकल पाए , दकियानूसी सोच वाले मुल्ला-मौलवीयों के हाथों में मुस्ल्मांनो की रहनुमाई आ गयी . दिनों दिन सत्ता , शिक्षा, राजनीति , व्यापार और नौकरियों में उनकी भागीदारी घटती गयी. 80 और 90 के दशक में तो मुसलमान की हैसियत सिर्फ "वोट बैंक" तक महदूद रह गयी. उनके नेता सत्ता से सौदेबाजी करते रहे और मुसलमानों के धार्मिक भावनात्मक मामलो को उठाकर उनको बेवकूफ बनाते रहे .
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C〕 आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (AIMPLB)जाहिलों और कट्टरपंथियो का जमावड़ा है . ये धूर्त सियासतदां हैं या सियासी पार्टियों के एजेंट हैं जिनका आम मुसलमानों से कोई सरोकार नही . 1986 में शाहबानो मामले में इन्होने कांग्रेस को ब्लैकमेल करके सुप्रीम कोर्ट के फैसले को ही बदलवा दिया . तत्कालीन प्रधान्मन्त्री राजीव ने तब वोटों की खातिर मुसलिम महिलाओं के साथ धोखा किया था . सच तो ये है के मुसलमानों के नाम पे सियासत करने वाले कुछ मक्कार नेताओं ने पूरी मुस्लिम कौम के साथ धोखा किया और कांग्रेस इस गुनाह में बराबर हिस्सेदार थी . यहीं से गैर मुस्लिमो खासतौर पे कट्टरपंथी हिन्दू संगठनों को ये बात फैलाने का मौका मिल गया के सरकार मुस्लिमो का तुष्टीकरण कर रही है और उनको विशेषाधिकार देने के लिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ जा सकती है . जबकी सच तो ये था के "शाहबानो केस" में कांग्रेस और AIMPLB की मिलीभगत का नुक्सान मुसलमानों को ही हुआ . मुसलमान बदनाम हुए के वो महिला विरोधी हैं , दकियानूस हैं , धर्मांध हैं , उनका भारत के संविधान में विश्वास नही हैं !
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