Sunday, 15 January 2017

संघठन - कृण्वन्तो विश्वमार्यम् !

सघं शरणं गच्छामि कहकर बुध्द ने कोई पहली बार ही संघठन के महत्व को नहीं सामने रखा। वेद मंत्रों में नदी , वायु और पक्षियों के उदाहरण से संघठन अथवा मेल के महत्व को स्पष्ट किया गया है। विज्ञान के नियमों के उचित प्रयोग से ऐसा संघठन सिंचाई , विद्युत उत्पादन और संचार क्रांति का जनक तो बनता ही है साथ में समाज में पशुवृत्ति और चोरी का नाश भी स्वत: कर देता है।धन , संपन्नता प्रदानकर धरती को ही स्वर्ग बना देता है।

अथर्व वेद प्रथम मंडल के पंद्रहवें सूक्त में चार मंत्र हैं जो इस बात को बहुत ही सुन्दरता से स्पष्ट करते हैं।आइये इन मंत्रों पर दृष्टि डालें।

सं सं स्त्रवन्तु सिंधव: सं.वाता: सं पतत्त्रिण: ।
इमं यज्ञं प्रदिवो मे जुषन्तां
संस्त्रावेन हविषा जुहोमि ।।1।।

- नदियां मिलकर बहती रहें।यदि छोटे छोटे स्त्रोत अलग अलग बहेंगे तो शीघ्र ही सूख जायेंगे।मिलकर एक प्रबल वेग वाली नदी बन बहेंगे जिसमें शक्ति होगी।इसी प्रकार वायुएं (वाता:) मिलकर ही वेगवाली हो सकती हैं।यह अलग अलग होकर बहना चाहें तो शायद एक पत्ते को भी न हिला सके। पक्षी भी मिलकर ही शक्ति-संपंन्न बनते हैं।प्रभु कहते हैं कि मेरे इस संघठन के भाव को प्रकृष्ट ज्ञानी पुरूष प्रीति पूर्वक सेवित करें।ज्ञानी ही संघठन के महत्व को समझते हैं और मूर्ख अपना स्वार्थ देखने के कारण संघठित नहीं हो पाता।ज्ञानी पुरूष मिलजुलकर संघठित होकर चलने के लिये निश्चय करता है कि अपनी आय के एक अंश को संघठन के हित के लिये दान की भावना से आहुति के रुप में देता हूँ । दान संघठन को दृढ़ बनाता है।इसलिये हर व्यक्ति संघठन यज्ञ में आहुति देने वाला हो।

इहैव हवमा यात म इह संस्त्रावणा उतेमं वर्धयेता गिर:।
इहैतु सर्वो पशुरस्मिन्तिष्ठतु या रयि:।।2।।

- संघठन प्रमुख कहता है कि यहाँ मेरी पुकार होने पर आओ ही , और यहाँ सभास्थल में आकर हे संघठन करने वाले प्रचारकों ! इस संघठन को बढ़ाओ , लोगों के ह्रृदयों में संघठन की भावना भर दो ताकि जो पाशविक भावना है , स्वार्थ के कारण जो अलग अलग रहने की भावना है वो यहीं सभास्थल की यज्ञाग्नि में भस्म हो जाये। और एकता की भावना से लोग अपने को धन्य बनायें।

ये नदीनां संस्त्रवन्त्युत्सास: सदमक्षिता: । तेभिर्मे सर्वै: संस्त्रावैर्धनं सं स्त्रावयामसि।।3।।

- जो नदियों के प्रवाह संघठन के कारण अक्षीण हुये हुये सदा बहते हैं , प्रभु कहते हैं मेरे उन सब सम्मिलित प्रवाहों से धन को प्राप्त कराते हैं।मिलकर बहने वाली नदियां नावों का मार्ग बनती हैं , बिजली पैदा करती हैं और नहरों द्वारा सिंचाई का साधन बनकर धनवृध्दि का कारण होती हैं।

ये सर्पिष: संस्त्रवन्ति क्षीरस्य चोदकस्य च ।तेभिर्मे सर्वै: संस्त्रावैर्धनं सं स्त्रावयामसि।।4।।

- जो घृत के प्रवाह मिलकर चलते हैं। एक एक बूंद का क्या बहना ? इसीप्रकार जो दूध के प्रवाह बहते हैं और पानी के प्रवाह भी बहते हैं , इनमें भी एक एक बूंद को तो नष्ट ही हो जाना था । इसप्रकार मेरे उन सब मिलकर बहने वाले प्रवाहों धन को संस्त्रुत करते हैं।एक घर को घी , दूध व जल के प्रवाह ही धन्य बनाते हैं घर वही उत्तम है जहां इन वस्तुओं की कमी न हो।इनकी कमी न होने पर मनुष्य सबल , स्वस्थ होकर धन कमाने लायक बनता है।यहां प्रसंगवश यह संकेत भी ध्यान देने योग्य है कि जहां संघठन और मेल होता है वहां घी दूध आदि कि नदियां बहती हैं।मेल अथवा संघठन में ही स्वर्ग है।
- अथर्ववेद भाष्यम्
पं हरिशरण सिध्दान्तालंकार

उपर्युक्त भाष्य से एक महत्वपूर्ण बात उभर कर आती है कि सम्यक ज्ञान के बिना विधायक संघठन संभव नहीं है और विभिन्न इकाइयों के संघठन में संतुलन भी आवश्यक है।प्रकृति का जैसे ही हम दोहन कर यह संतुलन बिगाड़ देते हैं संघठन बिखर जाता है और विज्ञान के प्रयोग से धनधान्य की जगह आपदा ही हाथ लगती है।इसीप्रकार अज्ञान भी विश्वकल्याण के लिये मनुष्य के संघठन.को तोड़कर भीड़तंत्र कायम कर देता है।

कुछ व्यक्ति विशेष की बताई गई बातों को बिना ज्ञान से परखें सर पर मुकुट की तरह पहन कर एकजुट हो जाना संघठन नहीं बल्कि अज्ञानियों का भीड़तंत्र है जहाँ पाशविक प्रवित्तियों का होना और स्वार्थ सिध्दि ही मुख्य प्रयोजन है। लेकिन इन वैदिक मंत्रों के अनुसार मानव मात्र का संघठित हो जाना सबके लिये बिना किसी भेदभाव के कल्याणकारी है।

ऐसा संघठन हर प्रकार के भेदभाव से हटकर विश्व के कल्याण के लिये आर्यों का संघठन है।

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