गुरूदीक्षा का महत्व
गुरु के पास जो श्रेष्ठ ज्ञान होता है, वह अपने शिष्य को प्रदान करने और उस ज्ञान में उसे पूरी तरह से पारंगत करने की प्रक्रिया की गुरु दीक्षा कहलाती है। गुरु दीक्षा गुरू की असीम कृपा और शिष्य की असीम श्रद्धा के संगम से ही सुलभ होती है। शास्त्रों में लिखा है- जैसे जिस व्यक्ति के मुख में गुरु मंत्र है, उसके सभी कार्य सहज ही सिद्ध हो जाते हैं।
गुरु के कारण सर्वकार्य सिद्धि का मंत्र प्राप्त कर लेता है। आध्यात्मिकता में गुरु की आवश्यकता होती है | बिना किसी रास्ते के आप आध्यात्मिकता में सफल नहीं हो सकते हो| बिना गुरु के आप आध्यात्मिकता का रास्ता नहीं जान सकते हो | गुरु सभी आध्यात्मिकता में सफल हुए सभी लोगों के पास थे | गुरु का मतलब होता है :- ग का मतलब ज्ञान,उर का मतलब उर्जा,उ का मतलब उत्पन्न मतलब ज्ञान-उर्जा को उत्पन्न करने वाला होता है गुरु| अगर आप किसी से मिलते हैं और उससे मिलने पर आप को लगता है की आपके अन्दर उर्जा का संचार हो रहा है और आप उसके साथ और समय बिताना चाहते हैं वह गुरु है | हम गुरु से दीक्षा लेते हैं,दीक्षा का मतलब होता है दमन करना इच्छाओं का, क्यूंकि आध्यात्मिकता में इच्छायेए सबसे बड़ी बाधक होती हैं | हम इन इच्छाओं की उपेक्षा करना चाहते हैं परन्तु हम सही रास्ता नहीं जानते हैं, गुरु की सेवा करो तो ही ज्ञान मिलता है | किताबों से ज्ञान नहीं मिलता है| किताबों से तो जानकारी मिलती है पर बिना गुरु सेवा के ज्ञान कहीं नहीं मिलता है| भगवान् श्रीकृष्ण ने भी तो गुरु संदीपनी की सेवा की थी| भगवान् राम ने भी तो विश्वामित्र की की सेवा की थी | कर्ण ने भी तो परशुराम की सेवा की थी|
असली ज्ञान तो सेवा से ही मिलता है| मोक्ष की साधना का पहला रास्ता और आखरी रास्ता गुरु जी के सेवा है| गुरु तो उस परम तत्त्व को जानते हैं और वही परम तत्त्व को जो जानता है वही परम तत्त्व हो जाता है| इसलिए गुरु और परमात्मा एक है दोनों में कोई भेद नहीं है | गुरु ही परमात्मा है और परमात्मा ही गुरु है| गुरु के साथ रहने से गुरु की सेवा करने से ही हम उस परमात्मा के पास होते हैं| गुरु का व्याख्यान मौन होता है और शिष्य उसको समझ लेता है| गुरु के साथ-साथ रहने से वह भी एक दिन गुरु हो जाता है यही तो गुरु परम्परा है| किताबों के जानकारी लेकर और फिर उस पर गुमान करना कहाँ तक उचित है|
वह तो किसी और का ज्ञान है हमारा ज्ञान तो नहीं है और उसने वह ज्ञान कैसे पाया पता नहीं तो फिर उसके ज्ञान को हम किस तरह प्रयोग कर रहे हैं और जरूरी नहीं की किताबों में जो ज्ञान है वह पूरा है | किताब से अगर सीखेंगे तो कभी भी मैंदान में नहीं उतरेंगे| जबकि आध्यात्मिकता की शुरुवात है मैंदान में उतरने से शुरू होती है, आध्यात्मिकता बड़ी ही उल्टी होती है, इसमें किताबी ज्ञान नहीं इसमें तो शास्वत ज्ञान चाहिए |
गुरु के पास जो श्रेष्ठ ज्ञान होता है, वह अपने शिष्य को प्रदान करने और उस ज्ञान में उसे पूरी तरह से पारंगत करने की प्रक्रिया की गुरु दीक्षा कहलाती है। गुरु दीक्षा गुरू की असीम कृपा और शिष्य की असीम श्रद्धा के संगम से ही सुलभ होती है। शास्त्रों में लिखा है- जैसे जिस व्यक्ति के मुख में गुरु मंत्र है, उसके सभी कार्य सहज ही सिद्ध हो जाते हैं।
गुरु के कारण सर्वकार्य सिद्धि का मंत्र प्राप्त कर लेता है। आध्यात्मिकता में गुरु की आवश्यकता होती है | बिना किसी रास्ते के आप आध्यात्मिकता में सफल नहीं हो सकते हो| बिना गुरु के आप आध्यात्मिकता का रास्ता नहीं जान सकते हो | गुरु सभी आध्यात्मिकता में सफल हुए सभी लोगों के पास थे | गुरु का मतलब होता है :- ग का मतलब ज्ञान,उर का मतलब उर्जा,उ का मतलब उत्पन्न मतलब ज्ञान-उर्जा को उत्पन्न करने वाला होता है गुरु| अगर आप किसी से मिलते हैं और उससे मिलने पर आप को लगता है की आपके अन्दर उर्जा का संचार हो रहा है और आप उसके साथ और समय बिताना चाहते हैं वह गुरु है | हम गुरु से दीक्षा लेते हैं,दीक्षा का मतलब होता है दमन करना इच्छाओं का, क्यूंकि आध्यात्मिकता में इच्छायेए सबसे बड़ी बाधक होती हैं | हम इन इच्छाओं की उपेक्षा करना चाहते हैं परन्तु हम सही रास्ता नहीं जानते हैं, गुरु की सेवा करो तो ही ज्ञान मिलता है | किताबों से ज्ञान नहीं मिलता है| किताबों से तो जानकारी मिलती है पर बिना गुरु सेवा के ज्ञान कहीं नहीं मिलता है| भगवान् श्रीकृष्ण ने भी तो गुरु संदीपनी की सेवा की थी| भगवान् राम ने भी तो विश्वामित्र की की सेवा की थी | कर्ण ने भी तो परशुराम की सेवा की थी|
असली ज्ञान तो सेवा से ही मिलता है| मोक्ष की साधना का पहला रास्ता और आखरी रास्ता गुरु जी के सेवा है| गुरु तो उस परम तत्त्व को जानते हैं और वही परम तत्त्व को जो जानता है वही परम तत्त्व हो जाता है| इसलिए गुरु और परमात्मा एक है दोनों में कोई भेद नहीं है | गुरु ही परमात्मा है और परमात्मा ही गुरु है| गुरु के साथ रहने से गुरु की सेवा करने से ही हम उस परमात्मा के पास होते हैं| गुरु का व्याख्यान मौन होता है और शिष्य उसको समझ लेता है| गुरु के साथ-साथ रहने से वह भी एक दिन गुरु हो जाता है यही तो गुरु परम्परा है| किताबों के जानकारी लेकर और फिर उस पर गुमान करना कहाँ तक उचित है|
वह तो किसी और का ज्ञान है हमारा ज्ञान तो नहीं है और उसने वह ज्ञान कैसे पाया पता नहीं तो फिर उसके ज्ञान को हम किस तरह प्रयोग कर रहे हैं और जरूरी नहीं की किताबों में जो ज्ञान है वह पूरा है | किताब से अगर सीखेंगे तो कभी भी मैंदान में नहीं उतरेंगे| जबकि आध्यात्मिकता की शुरुवात है मैंदान में उतरने से शुरू होती है, आध्यात्मिकता बड़ी ही उल्टी होती है, इसमें किताबी ज्ञान नहीं इसमें तो शास्वत ज्ञान चाहिए |
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