Wednesday, 4 January 2017

हमारे ऋषि-मुनि जानते थे विज्ञान को तकनीक में बदलने के दुष्परिणाम...

आश्रमों का नाम तो सबने सुना होगा किन्तु कभी यह सोचा कि उनमें होता क्या था?
किस्से-कहानियों में जो आश्रम होते हैं, उनमें हवनकुण्ड के चारों ओर बैठे ऋषिगण यज्ञोपासना करते दिखाए जाते हैं. वास्तव में वे क्या उपासना करते थे, किसकी उपासना करते थे? इस विषय में सामान्यजन को कोई जानकारी नहीं.
हम भूल चुके हैं कि इन आश्रमों में सृष्टि के रहस्यों पर विचार होता था, वैज्ञानिक सिद्धांत आविष्कृत होते थे. इस परम्परा का आरम्भ हुआ ऋक् के सिद्धांत से. अर्थात् यह जानना कि ऋतुएँ क्यों बदलती हैं, दिन-रात क्यों होते है? विद् का अर्थ हम सभी को पता है, ‘जानने वाला’. ऋक् और विद्, जानना. इसी से ही प्रथम वेद का नाम पड़ा ऋग्वेद. अनुसंधान की यह परम्परा भारतवर्ष में सुदीर्घ काल तक निरंतर चलती रही.
देश पर आर्येतर सभ्यताओं के आक्रमणों के फलस्वरूप इसमें विघ्न पड़ना आरम्भ हुआ. राक्षसों द्वारा आश्रमों को अपवित्र करने की कथाऐं सबने सुनी होंगी. रावण की राक्षस सभ्यता से लेकर हूण, शक, यवन, मुस्लिम आक्रान्ताओं और अभी कुछ सौ साल पूर्व से शुरू हुए ईसाई हमलों तक आश्रमों, हमारे इन ज्ञान-विज्ञान केन्द्रों को नष्ट करने का यह योजनाबद्ध प्रयास चलता रहा है. ईस्ट इंडिया कं. के दिनों में भारत भ्रमण पर आए एक यूरोपियन ने आश्चर्यचकित हो यह लिखा था कि अकेले बंगाल में जितनी पाठशालाएं है, उतने स्कूल तो पूरे यूरोप में भी नहीं होंगे.
विज्ञान और तकनीक दोनों बिलकुल अलग चीजें हैं. विज्ञान हमें कुछ होने या न होने के कारण बताता है. उस वैज्ञानिक सिद्धांत के आधार पर अपनी सुविधा के लिए कोई युक्ति बनाना ही तकनीक है.
हम लोग प्राय: विज्ञान और तकनीक में अंतर नहीं कर पाते. ध्वनि हो या प्रकाश! दोनों ही तरंगों के सहारे चलते हैं, यह वैज्ञानिक सिद्धांत है. उन तरंगों के नियंत्रित उपयोग से फोन या टीवी बना लेना, यह उस वैज्ञानिक सिद्धांत के उपयोग की तकनीक है.
गत् दो-ढाई सौ सालों से हम यूरोपियन तकनीक से चमत्कृत, भयंकर हीनभावना से ग्रस्त हैं. ऊपर से मैकाले छाप पढ़ाई ने हमें अपने अतीत से पूर्णत: काट छोड़ा है.
ऐसे में जब आर्यसमाजी प्रचारकों के मुँह से जब सुनते कि जर्मन हमारे वेद चुरा ले गए और उन्हें पढ़ कर हवाईजहाज जैसी चीजें बना लीं. तो लोग हँसते, अन्य लोग ही क्यों, हम सभी हँसते थे. किन्तु हवाईजहाज जैसी वस्तुनिष्ठ बात को छोड़ दें, तो इसमें गलत क्या कहा गया है?
पहिये का आविष्कार, ऋतुपरिवर्तन के नियम, शून्य एवं दशमलव युक्त गणना प्रणाली, खगोल और गणित ज्योतिष, कणाद का अणु सिद्धांत, गुरुत्व का नियम, पाई का अतिशुद्ध मान, आयुर्विज्ञान आदि असंख्य बहुपयोगी आविष्कारों का श्रेय भारत को है.
इतनी उन्नत सभ्यता, तो फिर गड़बड़ कहाँ हुई?
कलयुग के प्रभाव में आकर हम जिसे अपना पिछडापन समझ रहे हैं, वह ऋषियों द्वारा निश्चित किया गया अनुशासन था. किसी आश्रम में सम्राट भी निशस्त्र, नंगे सिर ही प्रवेश कर सकता है, यह नियम सोच-समझ कर ही बनाया गया था.
आश्रमों में होने वाली खोजों और उनके उपयोग पर ऋषियों का नियंत्रण रहता था, राजसत्ता का नहीं. उन आविष्कारों को तकनीक में बदलने से पहले ऋषिगण अर्थात् तत्कालीन वैज्ञानिक उस खोज के हानि-लाभ का आकलन करते थे.
पश्चिमी विश्व में ऋषियों का राजसत्ता पर नियंत्रण न था. वहाँ के ऋषि/वैज्ञानिक सत्ता के अधीन थे. कोई भी सत्ता हो, उसमें शक्ति की भूख सदा ही प्रबल रही है. कोई अंकुश न होने के कारण पश्चिम में इस ज्ञान-विज्ञान का उपयोग मुख्यरूप से संहार और लघुरूप से मनुष्य की सुविधाओं के लिए किया गया.
अन्यथा जिन दिनों भारत में कोणार्क जैसे चमत्कार घट रहे थे, उस काल में आधे से अधिक यूरोपवासी खाल लपेट कर गुफाओं में रहते थे. भारतीय विज्ञान यहाँ से रिस-रिस कर अरबों के माध्यम से यूनानियों, यवनों तक पहुँचने लगा. प्रसंगवश: अरब लोग इन अंकों को आज भी हिन्दसे कहते हैं. इन्हीं हिन्दसों को यूरोप अरेबियन अंक कहता है. हाहाहा!
भारतीय कपड़े और मसालों के अरबी व्यापारियों की मुनाफाखोरी से तंग आकर यूरोप ने भारत आने का मार्ग खोजना शुरू किया. बस, यहीं से यूरोप के भौतिक वैभव की नींव पड़ी. भारत और अमेरिका से प्राप्त संपदा इतनी अधिक थी कि असीम विलासिता के बाद भी वह धन खत्म नहीं होता था.
उसी अतिरिक्त धन का उपयोग और अधिक धन कमाने की नित नयी तकनीक खोजने में किया गया. यह बात अजीब लग सकती है, किन्तु आज भी सर्वोत्तम मानवीय संसाधनों का सर्वाधिक उपयोग दूसरों को गुलाम बनाने के लिए विनाशकारी वस्तुओं के निर्माण/विकास में ही होता है.
पश्चिमी विश्व की लिप्सा के फलस्वरूप पूंजी नाम का एक नया दानव उत्पन्न हो गया. वहाँ की सत्ता और वैज्ञानिक अर्थात आधुनिक ऋषि इस दानव के दास मात्र हैं. इसी लिप्सा की देन है कि आज भूजल पीने योग्य नहीं रहा, हवा साँस लेने योग्य नहीं.
बिजली की भूख ने सदानीरा नदियों को विषैले नालों में बदल दिया. जल, वायु, ध्वनि और सूक्ष्म तरंगों के विकिरण से उत्पन्न प्रदूषण ने समस्त जीव जगत का जीना कठिन कर दिया है.
धरती से निकला कोयला, खनिज तेल या परमाणु ऊर्जा कितने विनाशकारी हैं, इसका अनुमान आज सबको हो रहा है. तो भी दुर्भाग्यवश इस अंधी दौड़ में शामिल होने को पूरी मानव जाति अभिशप्त है. प्राचीन ऋषियों के अनुशासन को आज मानें, तो हमारा अस्तित्व ही न रहेगा.
फिर दो घंटे में दिल्ली से गोहाटी जाना है तो हवाई जहाज सबको चाहिए. मनुष्य इतना “विकसित” हो गया है कि ज़िंदा रहने के लिए दूसरे के शरीर के अंग तक खरीद रहा है. इस वैज्ञानिक अवनति से बचने का आज कोई उपाय नहीं.
प्राय: प्रश्न उठता रहता है कि तकनीक का ऐसा विकास भारत में क्यों नहीं हुआ. सीधी सी बात है कि भारतीय मनीषी यह जानते थे कि यह विकास नहीं, मुर्गी के सारे अंडे एक बारगी निकाल लेना है.
इसीलिए पहिये के आविष्कार के बाद भी उन्होंने तकनीक को मानवशक्ति और पशुशक्ति से आगे नहीं बढ़ने दिया. पृथ्वी में संचित ऊर्जा के बेलगाम उपयोग से होने वाले दुष्परिणाम वे जानते थे.
पश्चिम ने इस क्षेत्र में आगे बढ़ना शुरू किया, तब हम उनके दास थे, क्या कर सकते थे? अंग्रेजों के जाने के बाद भी वही दास बनाए रखने वाली शासन प्रणाली चल रही है. अंग्रेजों की तर्ज पर विकसित नौकरशाही, असंतोष का शमन करने के लिए अनाप-शनाप सरकारी नौकरियां, नौकरी में, पदोन्नति में आरक्षण. लोकतंत्र के नाम पर सिर पर सवार गधे.
इनके चलते भारत में कुछ रचनात्मक कर दिखाने की गुंजाइश ही कहाँ रह जाती है. इस व्यवस्था से खिन्न प्रतिभाएँ देश छोड़ जाती हैं. वही लोग बाहर देशों में जाकर चमत्कृत करने वाले कार्य कर दिखाते हैं.
इधर हम प्रश्न करते हैं कि भारत में तकनीकी विकास क्यों नहीं हो रहा है?

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