Friday 6 January 2017

"इतिहास साक्षी है की परिस्थितियों के परिवर्तन के लिए समय सदैव से ही ऐसे युवाओं पर निर्भर करता रहा है जिनकी संवेदनाएं समस्याओं को महसूस कर सकती हों, जो अपनी कल्पनाशक्ति से संभावित संभावनाओं को सोच पाने में सक्षम हों और जो अपने पुर्सार्थ के बल पर, अपने सतत प्रयास से, संभावनाओं को समाधान में रूपांतरित कर सकें; इस तथ्य को सत्यापित करते उदाहरण कई हैं .. फिर कालखंड चाहे जो रहा हो।
समाज में व्यक्ति निर्माण का उद्देश्य भी ऐसे ही उद्यमी, संवेदनशील व् आत्मविश्वासी पीढ़ी का निर्माण करना है, जिससे परिवार, समाज और राष्ट्र के वर्त्तमान और भविष्य की समृद्धि सुनिश्चित की जा सके , फिर व्यक्ति का कार्यक्षेत्र चाहे जो हो।
सामाजिक स्तर पर ऐसे तो यह प्रयास भारत के पराधीनता के समय से ही चल रहा है और भारत जैसे विराट व् विविधता से परिपूर्ण राष्ट्र में यह तब महत्वपूर्ण भी था और आवश्यक भी, पर परिणाम की सफलता के लिए ऐसे प्रयास न ही परिपूर्ण हैं और न ही पर्याप्त।
ऐसा इसलिए क्योंकि स्वाधीनता की प्राप्ति के बाद सामाजिक व्यवस्था को बनाने और सुचारू ढंग से चलाने का अधिकार और दायित्व भारत को प्राप्त हो गया, ऐसे में, समाज में चल रहे व्यक्ति निर्माण के प्रयास के प्रभावी व् व्यापक रूप से सफल होने के लिए शाशन तंत्र का ऐसे सामाजिक प्रयास के साथ समन्वय व् संतुलन सुनिश्चित करना आवश्यक होगा ; जब तक शाशन तंत्र एवं सामाजिक स्तर पर किये जाने वाले ऐसे प्रयास को एक लक्ष्य पर केंद्रित न किया जाए वांछित परिणाम की प्राप्ति कठिन होगी;
हमें विकास के स्वदेशी मॉडल को विश्व के समक्ष प्रस्तुत करना है न की विश्व के मान्यताओं के अनुरूप परिभाषित विकास के ढांचे में अपने को ढालने का प्रयास करना है; एक राष्ट्र के रूप में हमारी अपनी वास्तविकता ही नहीं बल्कि हमारी अपने समस्याएं और विशेषताएं भी है, तो स्वाभाविक है की उनके समाधान की संभावनाएं भी स्वदेशी संसाधनों और सीमिताओं के अनुकूल ही होना चाहिए।
हमारे यहाँ शाशक तो बदले पर शाशन तंत्र की मानसिकता नहीं बदली, और यही कारन है की एक राष्ट्र के रूप में भारत अब तक विकसित नहीं हो सका। दोष नेतृत्व का नहीं तो और किसका ?
ऐसे में, क्यों न समस्या से अधिक संभावनाओं को महत्व देकर समाधान को सरल बनाया जाए !
शाशन तंत्र की शक्तियों को समाज में व्यक्ति निर्माण पर केंद्रित करना होगा और यह किसी कौशल विकास के कार्यक्रम से संभव नहीं, फिर प्रचार के लिए जितना भी खर्च क्यों न कर दिया जाए, परिणाम की सफलता को सुनिश्चित करने के लिए शाशन तंत्र को सामाजिक प्रयास का न केवल पूरक बनना होगा बल्कि अपनी योजनाएं व् नीतियों से ऐसे सभी प्रयासों को प्रेरित व् प्रोत्साहित भी करना पड़ेगा;
यह किसी एक अभियान अथवा कार्यक्रम से नहीं बल्कि इसके लिए सामाजिक जीवन के मूलभूत ढांचे में बुनियादी परिवर्तन करने पड़ेंगे; जीवन के सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक आयामों में संतुलित आवश्यक परिवर्तन कर ही शाशन तंत्र समाज में ऐसी पीढ़ी का निर्माण कर सकता है जो आत्मविश्वासी, आत्मनिर्भर और आत्मबल से परिपूर्ण हों। इसके लिए शाशन तंत्र की शक्तियां पर्याप्त नहीं क्योंकि उनके प्रयोग के निर्णय का अधिकार नेतृत्व का होता है, और इसलिए, नेतृत्व को पता होना चाहिए की इन शक्तियों का आखिर करना क्या है।
चूँकि वर्त्तमान की समस्याएं नयी है इसलिए आज नए समाधान की आवश्यकता होगी और इसके लिए प्रयास को अपना पारंपरिक दृष्टिकोण बदलना पड़ेगा; तभी, कला की रचनात्मकता का व्यावहारिक प्रयोग संभव है।
स्वामी विवेकानंद हों, डॉक्टर केशव बलिराम हेगडेवार जी, गुरु गोलवलकर की बात करें या फिर भगत सिंह या सुभाष चंद्र बोस की, आखिर थे तो युवा ही जिन्होनें अपने जीवन के उदाहरण से न केवल तात्कालीन वर्त्तमान बल्कि आने वाले भविष्य को भी नयी दिशा दी, ऐसे में, आज अगर एक युवा देश के पास अपने नेतृत्व के दायित्व के लिए कोई युवा सोच नहीं, तो इसे क्या कहा जाए ?”

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