Thursday, 19 January 2017

" प्रयोगशाला के भी प्रयोगों के विभिन्न चरणों के ध्यानपूर्वक अध्यन के बिना सही निष्कर्ष तक नहीं पहुंचा जा सकता, ऐसे में, जब तक हम व्यावहारिक जीवन में समय द्वारा परिस्थितियों के षड्यंत्रों के माध्यम से संचालित निरंतर चल रही मानवीय उत्क्रांति के प्रयोग का पूर्वनिर्धारित निष्कर्ष के आधार पर अध्यन करने का प्रयास करेंगे तो निष्कर्ष अध्यन की प्रक्रिया की त्रुटि को ही स्पष्ट रूप से प्रदर्शित करेगा, इसलिए, आज 'ज्ञान के अनुभव' और 'अनुभव के ज्ञान' के बीच का अंतर जानना और समझना समय की आवश्यकता है।
आयु के साथ साथ समय के परिवर्तन के प्रभाव में 'ज्ञान के अनुभव' का कुंठित होना स्वाभाविक है परंतु समय की आवश्यकताओं से उत्प्रेरित प्रयोगों से प्राप्त 'अनुभव का ज्ञान' सदैव ही असीम संभावनाओं से परिपूर्ण और 'नए' का जन्मदाता रहा है।
वर्त्तमान में अगर भारत के सन्दर्भ में बात करें तो जनसांख्यिकी के अनुसार 'युवा' राष्ट्र होते हुए भी आज एक राष्ट्र के रूप में हम नई संभावनाओं से प्रतिरक्षित हैं तो केवल इसलिए क्योंकि 'ज्ञान के अनुभव' से संक्रमित हमारी मानसिकता ने हमें इतना वृद्ध बना दिया है की हम स्वयं अपने निर्णय से 'अनुभव के ज्ञान' से प्रेरित किसी व्यावहारिक प्रयोग ही नहीं बल्कि नई संभावनाओं से भी प्रतिरक्षित हैं।
जिस देश के अतीत ने इसके गौरवशाली इतिहास के अनेक अध्यायों को काल के गर्भ से जन्म लेकर काल चक्र की ही दिशा को बदलते देखा है आज वही अगर परिवर्तन के लिए प्रतीक्षारत है तो केवल इसलिए क्योंकि हमारे 'ज्ञान के अनुभव' ने हमारी मानसिकता को कुंठित कर दिया है, तभी, न तो हमारी संवेदनाएं समय की आवश्यकताओं को महसूस कर पा रही है और न ही हमारे पुर्सार्थ में किसी 'व्यावहारिक प्रयोग' को कर पाने की इक्षा शक्ति, आत्मबल व् सामर्थ बचा है। परिणामस्वरूप, भारतवासी आज कुव्यवस्था के अभ्यस्त और भारत दुर्दशा का पात्र बन गया है।
अगर धर्म ही भारत की राष्ट्रीयता का आधार है तो हमारी संस्कृति ने हमें समय के साथ साथ, परिस्थितियों के अनुसार, तथ्यात्मक तर्कों के आधार पर धर्म को भी पुनः परिभाषित करना सिखाया है, ऐसे में, जब सामाजिक व्यवस्था और राष्ट्र की परिस्थिति ही समय की चिंता का कारन बन जाए तो शाशन तंत्र के प्रयास की दिशा और तथ्यात्मक तर्कों के आधार पर राष्ट्रीय नेतृत्व की समीक्षा भला क्यों नहीं हो सकती ?
तर्कों को सही होने के लिए तथ्यों की आवश्यकता होती है पर जब तक तार्किक तथ्यों की अनदेखी कर निष्कर्ष व्यक्ति के पद, प्रभाव, प्रतिष्ठा, लोकप्रियता अथवा अनुभव पर निर्भर करेगा, वह सही हो ही नहीं सकता; अगर ऐसा नहीं होता तो युवा शंकराचार्य और आचार्य मंडन मिश्र के बीच घटित शास्त्रार्थ का परिणाम भी कुछ और होता !
अधिक समय पुराणी बात नहीं है जब देश के पैंतीस करोड़ लोगों पर दो लाख विदेशी शाशन करते थे और आज स्वाधीनता के लगभग सत्तर वर्षों बाद भी शाशक बदले पर परिस्थितियां नहीं। लगभग सत्तर वर्षों के स्वतंत्रता ने इस प्राचीन राष्ट्र को इतना प्रौढ़ बना दिया है की आज हम एक राष्ट्र के रूप में वृद्ध मानसिकता से संक्रमित हैं, फिर जनसांख्यिकी के आंकड़े हमारी जनसँख्या की आयु के विषय में चाहे जो कहें !
तभी, आज एक सौ तीस करोड़ लोगों पर एक विशेष समूह शाशन कर रहा है ; इस विशेष समूह का एक वर्ग स्वार्थ से शाषित ऐसे पूंजीवाद का है जो अपने लोभ और लाभ को सुनिश्चित करने के लिए सामाजिक व्यवस्था के नियमों तो तोड़ने मरोड़ने के लिए कुछ भी करने को आतुर है, दूसरा वर्ग ऐसे जन प्रतिनिधियों का है जो जनतंत्र की व्यवस्था में पूंजीवाद का प्रतिनिधित्व करते हैं और अपने प्रायोजकों को सुखी और संतुष्ट करने के लिए किसी भी स्तर तक गिरने को तत्पर हैं, तीसरा वर्ग उन लोगों का है जिन्होनें अपनी समझ की सीमितता से अपने संसार को ही सीमित कर लिया है, समाज - राष्ट्र से उन्हें कोई विशेष मतलब नहीं, उनकी प्राथमिकताएं उनके व्यक्तिगत परिधि तक सीमित है और यही मानसिकता उनके समझ से व्यावहारिक भी। चौथा वर्ग उनका है जो सामाजिक जीवन में नीतिगत मूल्यों का संवर्धन व् संरक्षण के प्रति समर्पित व् प्रयासरत हैं, इनके पास परिवर्तन कर पाने की क्षमता भी है और समर्थ भी जिसके लिए वो तथ्यात्मक और तार्किक कारणों पर आश्रित हैं क्योंकि यही निष्कर्ष के सही होने का निर्णायक आधार भी।
जनतांत्रिक व्यवस्था में जब बहुमत ही अपना वैचारिक स्तर खो दे तो जनतंत्र ही किसी भी जनतांत्रिक राष्ट्र की समस्या बन जाती है, ऐसा इसलिए क्योंकि स्तरहीन बहुमत के पास ही निर्णय का अधिकार होता है। परिस्थितियां और भी जटिल तब हो जाती हैं जब अनुकूलन के प्रभाव में अधिकांश कुव्यवस्था से अभ्यस्त होकर उसके आदि हो जाते हैं, क्योंकि तब, परिवर्तन की आवश्यकता ही महसूस नहीं होती फिर वो चाहे जितना भी आवश्यक क्यों न हो .
समस्त संसाधनों की उपलब्धता होते हुए भी राष्ट्रीय नेतृत्व के प्रयास की दिशा ही जब गलत हो तो परिणाम को सफलता प्राप्त हो ही नहीं सकती, उल्टा, सामाजिक समस्याओं का और अधिक जटिल हो जाना स्वाभाविक है, ऐसे में नेतृत्व की समीक्षा से प्रतिरक्षित रहना कितना तर्कसंगत और सही कहा जा सकता है।
आखिर क्यों नहीं समय की आवश्यकता के अनुरूप और व्यक्तिगत योग्यता के अनुसार राष्ट्रीय नेतृत्व के लिए पात्र का चयन हो; राजनीति से विवश होकर राष्ट्रीय हित की उपेक्षा करना क्या सही होगा ? इस विषय में आप की क्या राय है।"

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