Sunday 29 January 2017

आज तक भारत के भाग्योदय की प्रतीक्षा का रहा हैं ; आखिर क्यों ?

"साधना को अवसर का संयोग ही अगर भाग्योदय कहलाता है, तो कितने ही दशकों से एक राष्ट्र के रूप में हम साधनारत हैं और हमारी स्वाधीनता से हमें स्वशाशन का अधिकार भी प्राप्त है, पर फिर भी, समय आज तक भारत के भाग्योदय की प्रतीक्षा का रहा हैं ; आखिर क्यों ?
इस संसार में बिना कारन तो कुछ नहीं होता पर उत्पत्ति के रहस्यों को जानने के लिए हमें प्रभाव से कारन तक सोच पाने की मानसिकता को विकसित करनी पड़ेगी और विषय के प्रति अपने दृष्टिकोण को बदलना पड़ेगा।
इतने दशकों में इस देश के कितनी पीढ़ियों ने अपने जीवन के प्रत्येक दिन व्यक्तिगत स्तर पर यथासंभव प्रयास तो किया ही है क्योंकि जीवन के पास अकर्मण्यता का विकल्प जो नहीं.. पर भारत ने एक राष्ट्र के रूप में अब तक अपने परम वैभव को प्राप्त नहीं किया; आखिर क्यों ?
मैं ये नहीं कहता की इतने वर्षों में देश में कुछ नहीं हुआ, बहोत कुछ हुआ है पर अब तक भारत अपने वास्तविक स्तर को प्राप्त नहीं कर सका है जबकि लगभग इससे कहीं कम समय में चीन, जापान, जर्मनी जैसे राष्ट्रों ने अपने आप को विकास के शिखर पर पहुंचा लिया, आखिर भारत इस प्रयास में अब तक सफल क्यों नहीं हो पाया, यह आज हम सभी को सोचना चाहिए।
आखिर कब तक स्टैंड पर खड़ी साइकिल पर पेडल मारकर अपने प्रयास की औपचारिकता पूरी करते रहेंगे , फिर पेडल चाहे जितनी मार लें, स्टैंड पर खड़ी साइकिल कहाँ आगे बढ़ने वाली है। शायद अब तक सब पेडल मारने में इतने व्यस्त थे की किसी को सोचने की फुरसत ही नहीं मिली, तभी, स्थिति ऐसी है।
एक राष्ट्र के रूप में क्या कुछ नहीं है हमारे पास, फिर भी अगर भारत आज विकसित नहीं तो केवल इसलिए क्योंकि हमारे प्रयास की दिशा ही नहीं बल्कि विकास की समझ भी गलत रही।
ऐसा नहीं की इतने वर्षों में कुछ भी नहीं हुआ पर जो हो सकता था और जितना हो सकता था वैसा कुछ भी न हो सका। अब इसे व्यक्तिगत स्तर पर उद्देश्य का भ्रम कह सकते हैं जिसके चलते प्रयास का प्रभाव व् व्यापकता एक परिधि तक सीमित रह गया और प्रयास अपनी उपयोगिता सिद्ध कर पाने में असमर्थ रही। अन्यथा क्या कारन हो सकता है की जिस देश में इतने धनाड्यों को जन्म देने की क्षमता हो वह स्वयं आज निर्धनता का दंश झेल रहा है। व्यक्ति तो यहाँ कई धनी बनें पर देश हर संसाधन से धनी होते हुए आज धन के आभाव को यथार्थ में जी रहा है .
भविष्य कल्पना और अतीत एक सीख है और इसलिए हम अतीत और भविष्य का कुछ नहीं कर सकते, प्रयास की सम्भावना केवल वर्त्तमान को प्राप्त है, ऐसे में, भविष्य के परिणाम की आकांक्षा से शाषित प्रयास से क्या बेहतर विकल्प ये नहीं होगा की वर्त्तमान अपने प्रयास की निष्ठा और दृढ़ता से भविष्य के परिणाम को सुनिश्चित करे क्योंकि ऐसा करने से प्रयास की असफलता का कोई कारन ही नहीं बचेगा; जब भाग्य निर्धारण का सामर्थ हो तो भाग्य के भरोसे क्यों बैठना !!
यह एक राष्ट्र के रूप में हमारे उत्क्रांति की प्रक्रिया के चरण में परिवर्तन का समय है जिसके चलते सामाजिक प्रयास के स्तर में परिवर्तन ही आज समय की आवश्यकता है; प्रयास की सफलता के लिए उसका संगठित व् एक उद्देश्य के प्रति केंद्रित होना आवश्यक है।
व्यावहारिक जीवन के 'तथाकथित' समझदारों के लिए संवेदनशीलता भी सुविधा का विषय होता है और इसलिए उनकी निष्ठा भी स्वार्थ द्वारा शाषित होती है। ऐसे में, सामाजिक प्रयास का उद्देश्य क्या है यह महत्वपूर्ण प्रश्न है ; सत्ता की प्राप्ति या व्यवस्था परिवर्तन, राजनीति या राष्ट्रहित ?
एक राष्ट्र के प्रयास की दिशा को सुनिश्चित करने का अधिकार राष्ट्रीय नेतृत्व का होता है, ऐसे में, अगर राष्ट्र के प्रयास की दिशा ही गलत हो जाए तो क्या करना चाहिए ? जिनके लिए राजनीति का महत्व राष्ट्रहित से अधिक हो उन्हें नेतृत्व परिवर्तन से शिकायत हो सकती है पर जिनके लिए राष्ट्र सर्वोपरि हैं उनके लिए आज राष्ट्रहित को सुनिश्चित करने के लिए नेतृत्व परिवर्तन की आवश्यकता को महसूस कर पाना बिलकुल भी कठिन नहीं ;
जब बहुमत अपना वैचारिक स्तर खो दे तो बहुमत का अधिकार ही जनतंत्र की सबसे बड़ी समस्या बन जाती है, ऐसे में, परिस्थितियों में परिवर्तन के लिए निर्णय का अधिकार बहुमत को नहीं बल्कि नैतिक मूल्यों को मिलना चाहिए।
यह इसलिए भी उचित होगा क्योंकि कोई भी व्यवस्था का उद्देश्य समाज को सुचारू व् व्यवस्थित रूप से चलाने का होता है, पर जब व्यवस्था के प्रावधान ही सामाजिक समस्या का कारन बन जाए तो नियमों का निर्धारण व्यवस्था के प्रावधान के अनुसार नहीं बल्कि सामाजिक हित के अनुरूप होना चाहिए।
नीतिगत जीवन के लिए बहुमत की गणनात्मक बल से अधिक नैतिकमूल्यों की गुणात्मक बल का महत्व होता है और होना भी चाहिए , फिर बात चाहे राष्ट्रीय नेतृत्व के परिवर्तन की ही क्यों न हो !"

.................................................................

" धर्म ही भारत के अस्तित्व का आधार रहा है, ऐसे में, आज अगर हम एक राष्ट्र के रूप में धर्मनिष्ट होने के बदले धर्मनिरपेक्ष हैं तो केवल इसलिए क्योंकि संभवतः आज हमें धर्म का उचित बोध न रहा या फिर राजनीतिक तुष्टिकरण के प्रभाव में हमें आज अपने राष्ट्र की वास्तविकता का ही बोध नहीं, तभी, भारत की विशिष्टता ही आज इसके परिचय के लिए समस्या बन गयी है ;
आज भारत धर्मनिरपेक्ष है तो केवल इसलिए क्योंकि संविधान में समय के परिवर्तन के अनुसार और आवश्यकता अनुरूप संसोधन का प्रावधान है।
इसलिए, अगर कभी ऐसी कोई आवश्यकता हुई थी जिसके चलते भारत जैसे धार्मिक राष्ट्र को धर्म निरपेक्ष बनना पड़ा तो आज व्यावहारिक जीवन में धर्म की पुनर्स्थापना के लिए भारत का हिन्दुराष्ट्र बनना उतना ही अनिवार्य है ;
सामाजिक जीवन में नैतिक मूल्यों को सिद्धांत से व्यव्हार में रूपांतरित करने के लिए भारत को मानवता के समक्ष आदर्श का उदाहरण बनना ही पड़ेगा।
आखिर अगर तर्कों के आधार पर हमारी संस्कृति ने हमें धर्म को पारिभाषित करना सिखाया है, ऐसे में, आज जब भारत को अपने विशिष्ट परिचय की आवश्यकता है, क्या हम निष्क्रिय व् प्रतिरक्षित रह सकते हैं ?
आखिर उदाहरण से बेहतर किसी भी सिद्धांत की व्याख्या क्या होगी , ऐसे में, जिन भारतीय जीवन मूल्यों, आदर्शों और दर्शन पर हम गर्व करते हैं क्यों न उसे अपने विचार तक सीमित न रखकर व्यवहार में अपनाने का प्रयास करें।
भारत को हिन्दुराष्ट्र बनाने के लिए बात तर्कों पर होगी और सभी के संशय के समाधान के उपरान्त ही अंतिम निर्णय लिया जाएगा।
पर इसके लिए भारत की जनता को संसद में अपने लिए ऐसी प्रतिनिधियों को चुन कर भेजना होगा जिनका वैचारिक स्तर संसद के योग्य हो; यह इतना कठिन भी नहीं।
जो समाज अपने लिए उचित प्रतिनिधित्व कोसुनिश्चित न कर सके वह स्वाभाविकतः कुव्यवस्था का ही पात्र होगी।
समय भी है, स्वशाशन का अधिकार भी और सरकार भी हमारी, ऐसे में, अगर भारत के विकास के प्रयास की दिशा को अब नहीं सही किया जायेगा तो और कब ?
क्या अवसर की इस व्यर्थता को हम अपने किसी भी तर्क से कभी भी सही सिद्ध कर सकेंगे, अगर नहीं, तो विश्वास मानिये की अतीत के बलिदान और भविष्य की संभावनाओं के साथ हम धोका करेंगे, ऐसे में , आप ही बताइये की क्या ऐसा होने दिया जा सकता है ?"






No comments:

Post a Comment