"इस संसार की वास्तविकता बस एक अवधारणा मात्र है; यथार्थ के पास बस दो ही विकल्प हैं ,
हम जो देखते हैं उसे ही वास्तविकता का सत्य मानकर उस पर विश्वास करें या फिर, हम जिस अवधारणा पर विश्वास करते हैं वो विश्वास इतना सघन व् तीव्र हो जिससे मनो दृष्टि ही यथार्थ के दृश्य में रूपांतरित हो जाए, यह भी हम पर निर्भर करता है।
समय के परिवर्तन के साथ साथ घर्षण से जीवन मूल्यों की ऊपरी सतह आलोड़ित हो जाती और तब उनमें परिवर्तन अनिवार्य हो जाता है, ऐसे में, यह हम पर है की हम व्यवहारिकता के रूप में क्या और क्यों अपनाते हैं।
व्यावहारिक क्या है और क्यों यह निर्धारण करने का अधिकार समय ने जीवन को दिया है, ऐसे में, अगर तात्कालीन जीवन अपना वैचारिक स्तर ही खो दे तो उसमें व्यवहारिकता को निर्धारित करने का सामर्थ ही नहीं रहता और तब, अपने इसी दुर्बलता के कारन वह व्यावहारिक जीवन की विवशताओं के नाम पर जीवन के सिद्धांतों से समझौता करने को विवश हो जाता है।
अगर हिंदुत्व में प्रचलित मूर्तिपूजा की ही बात करें तो वह भी उपर्युक्त उल्लिखित तथ्य का उदाहरण मात्र है, समझाता हूँ की कैसे !
जब परिवर्तन के प्रभाव में परिस्थितियां ऐसी हो जाएँ की वास्तविकता के सत्य में कुछ भी अच्छा व् अनुकरणीय न बचे तो उन परिस्थितियों में सामाजिक जीवन के विकारों को व्यावहारिक मानकर उसे अपनाने और विश्वास करने से बचने के लिए हिंदुत्व ने अपनी कला की रचनात्मकता के प्रयोग द्वारा अपनी भक्ति को प्रदर्शित करते हुए ईश्वरीय तत्व को मूर्त रूप प्रदान किया जिससे विषम परिस्थितियों में भी न केवल हमारा विश्वास अच्छाई पर बना रहे बल्कि इस तरह प्रतिकूल परिस्थितियों के अनुकल में परिवर्तित होने की सम्भावना भी बनी रहे। महत्वपूर्ण संदेशों को रोचक कथाओं के रूप में भी इसी लिए प्रचारित व् प्रसारित किया गया जिससे पुर्सार्थ को धर्म का पोषण भी सुनिश्चित होता रहे, फिर कालखंड चाहे जो हो।
किसी भी विषय में अपने निष्कर्ष द्वारा कोई भी व्यक्ति न केवल अपने समझ के स्तर बल्कि विषय के ज्ञान को भी प्रतिबिंबित करता है, ऐसे में, अगर व्यक्तिगत निष्कर्ष से अधिक तथ्यों पर आधारित तर्कों को महत्वपूर्ण माना जाए तो न केवल अध्यन की प्रक्रिया बल्कि निष्कर्ष भी सही सिद्ध होगा।
वर्त्तमान के सन्दर्भ में अगर बात करें तो आज हमारे सामने सबसे बड़ा प्रश्न यह है की आज आखिर व्यावहारिक क्या है और क्यों ?
यथार्थ की परिस्थियां वास्तविकता के जिस वीभत्स परिदृश्य को चित्रित कर रही हैं वह आज हम सभी के समक्ष है, जो न केवल नीतिगत जीवन के हमारे विश्वास के विरुद्ध है बल्कि व्यवहार द्वार उन नीतिगत सिद्धांतों का खंडन भी करती है, ऐसे में, यह हमें सोचना है की हम परिदृश्य के आधार पर यथार्थ को स्वीकार करें या अपने विश्वास के बल पर यथार्थ की परिस्थितियों को बदलकर उसे नीतिगत व् युगानुकूल बनाने का प्रयास करें।
समय की आवश्यकताओं ने जब कभी भी प्रयास को प्रयोग के लिए प्रेरित किया है, उसे नए की प्राप्ति हुई है, फिर वो अनुभव हो चाहे परिणाम की उपलब्धि; विज्ञानं के खोज इसी तथ्य को सत्यापित करते उदाहरण मात्र हैं। ऐसे में, आज अगर सामाजिक जीवन में इस देश को अपने वास्तविक विचारधारा के व्यावहारिक प्रयोग की आवश्यकता महसूस नहीं हो रही तो इसका अर्थ यही है की या तो हमें व्यवहारिकता ने इतना समझदार बना दिया है की हम संवेदनहीन हो चुके हैं या फिर, हम में विचारधारा के व्यावहारिक प्रयोग का पुर्सार्थ ही नहीं बचा, तभी, परिस्थितियां ऐसी है;
सामाजिक जीवन में हमारी नैतिक दुर्बलता के कारन ही आज भारत विवश है, आखिर कब तक हम अपनी विवशता के कारन राष्ट्र के दुर्दशा का कारन बने रहेंगे ;
परिस्थितियों को बदलने के लिए जो कुछ भी किया जाना होगा वह किया जाना चाहिए फिर बात राजनीति के स्तर के परिवर्तन की करें, सामाजिक व्यवस्था के परिवर्तन की करें या राष्ट्र के नेतृत्व के परिवर्तन की करें ;
क्यों न सामाजिक जीवन में परिस्थितियों की आवश्यकतानुरूप प्रयोग का प्रयास करें, शायद इसी से नयी संभावनाओं को जीवन मिलेगा; आज आवश्यकता भी है, अवसर भी, कारन भी और सम्भावना भी, वर्त्तमान के परिदृश्य को बदलने का आज हमारे पास यही एक मात्र विकल्प है... अगर अब नहीं तो कब ?"
हम जो देखते हैं उसे ही वास्तविकता का सत्य मानकर उस पर विश्वास करें या फिर, हम जिस अवधारणा पर विश्वास करते हैं वो विश्वास इतना सघन व् तीव्र हो जिससे मनो दृष्टि ही यथार्थ के दृश्य में रूपांतरित हो जाए, यह भी हम पर निर्भर करता है।
समय के परिवर्तन के साथ साथ घर्षण से जीवन मूल्यों की ऊपरी सतह आलोड़ित हो जाती और तब उनमें परिवर्तन अनिवार्य हो जाता है, ऐसे में, यह हम पर है की हम व्यवहारिकता के रूप में क्या और क्यों अपनाते हैं।
व्यावहारिक क्या है और क्यों यह निर्धारण करने का अधिकार समय ने जीवन को दिया है, ऐसे में, अगर तात्कालीन जीवन अपना वैचारिक स्तर ही खो दे तो उसमें व्यवहारिकता को निर्धारित करने का सामर्थ ही नहीं रहता और तब, अपने इसी दुर्बलता के कारन वह व्यावहारिक जीवन की विवशताओं के नाम पर जीवन के सिद्धांतों से समझौता करने को विवश हो जाता है।
अगर हिंदुत्व में प्रचलित मूर्तिपूजा की ही बात करें तो वह भी उपर्युक्त उल्लिखित तथ्य का उदाहरण मात्र है, समझाता हूँ की कैसे !
जब परिवर्तन के प्रभाव में परिस्थितियां ऐसी हो जाएँ की वास्तविकता के सत्य में कुछ भी अच्छा व् अनुकरणीय न बचे तो उन परिस्थितियों में सामाजिक जीवन के विकारों को व्यावहारिक मानकर उसे अपनाने और विश्वास करने से बचने के लिए हिंदुत्व ने अपनी कला की रचनात्मकता के प्रयोग द्वारा अपनी भक्ति को प्रदर्शित करते हुए ईश्वरीय तत्व को मूर्त रूप प्रदान किया जिससे विषम परिस्थितियों में भी न केवल हमारा विश्वास अच्छाई पर बना रहे बल्कि इस तरह प्रतिकूल परिस्थितियों के अनुकल में परिवर्तित होने की सम्भावना भी बनी रहे। महत्वपूर्ण संदेशों को रोचक कथाओं के रूप में भी इसी लिए प्रचारित व् प्रसारित किया गया जिससे पुर्सार्थ को धर्म का पोषण भी सुनिश्चित होता रहे, फिर कालखंड चाहे जो हो।
किसी भी विषय में अपने निष्कर्ष द्वारा कोई भी व्यक्ति न केवल अपने समझ के स्तर बल्कि विषय के ज्ञान को भी प्रतिबिंबित करता है, ऐसे में, अगर व्यक्तिगत निष्कर्ष से अधिक तथ्यों पर आधारित तर्कों को महत्वपूर्ण माना जाए तो न केवल अध्यन की प्रक्रिया बल्कि निष्कर्ष भी सही सिद्ध होगा।
वर्त्तमान के सन्दर्भ में अगर बात करें तो आज हमारे सामने सबसे बड़ा प्रश्न यह है की आज आखिर व्यावहारिक क्या है और क्यों ?
यथार्थ की परिस्थियां वास्तविकता के जिस वीभत्स परिदृश्य को चित्रित कर रही हैं वह आज हम सभी के समक्ष है, जो न केवल नीतिगत जीवन के हमारे विश्वास के विरुद्ध है बल्कि व्यवहार द्वार उन नीतिगत सिद्धांतों का खंडन भी करती है, ऐसे में, यह हमें सोचना है की हम परिदृश्य के आधार पर यथार्थ को स्वीकार करें या अपने विश्वास के बल पर यथार्थ की परिस्थितियों को बदलकर उसे नीतिगत व् युगानुकूल बनाने का प्रयास करें।
समय की आवश्यकताओं ने जब कभी भी प्रयास को प्रयोग के लिए प्रेरित किया है, उसे नए की प्राप्ति हुई है, फिर वो अनुभव हो चाहे परिणाम की उपलब्धि; विज्ञानं के खोज इसी तथ्य को सत्यापित करते उदाहरण मात्र हैं। ऐसे में, आज अगर सामाजिक जीवन में इस देश को अपने वास्तविक विचारधारा के व्यावहारिक प्रयोग की आवश्यकता महसूस नहीं हो रही तो इसका अर्थ यही है की या तो हमें व्यवहारिकता ने इतना समझदार बना दिया है की हम संवेदनहीन हो चुके हैं या फिर, हम में विचारधारा के व्यावहारिक प्रयोग का पुर्सार्थ ही नहीं बचा, तभी, परिस्थितियां ऐसी है;
सामाजिक जीवन में हमारी नैतिक दुर्बलता के कारन ही आज भारत विवश है, आखिर कब तक हम अपनी विवशता के कारन राष्ट्र के दुर्दशा का कारन बने रहेंगे ;
परिस्थितियों को बदलने के लिए जो कुछ भी किया जाना होगा वह किया जाना चाहिए फिर बात राजनीति के स्तर के परिवर्तन की करें, सामाजिक व्यवस्था के परिवर्तन की करें या राष्ट्र के नेतृत्व के परिवर्तन की करें ;
क्यों न सामाजिक जीवन में परिस्थितियों की आवश्यकतानुरूप प्रयोग का प्रयास करें, शायद इसी से नयी संभावनाओं को जीवन मिलेगा; आज आवश्यकता भी है, अवसर भी, कारन भी और सम्भावना भी, वर्त्तमान के परिदृश्य को बदलने का आज हमारे पास यही एक मात्र विकल्प है... अगर अब नहीं तो कब ?"
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