50,000 भारतीय सैनिक प्रथम विश्व युद्ध के दौरान विदेशी तटों पर मर गये थे …
लगभग 1.5 मिलियन भारतीय प्रथम विश्व युद्ध में शामिल हुये थे। युद्ध के अंत पर, लगभग 50,000 भारतीय सैनिक मर गये थे, और 10,000 को खोया हुआ सूचित किया गया था, जबकि 98 भारतीय सेना नर्सों की मृत्यु हुयी थी। भारत के योद्धाओं ने 11 विक्टोरिया क्रास को जीत लिया था, जिसमें ब्रिटिश भारतीय सेना सैनिक-खुदाड़ खान, एक मशीन गन चलाने वाला का सम्मान भी शामिल था।
फिर भी, भारतीय इतिहास की किताबें बहुत मुश्किल से इन लाखों बहादुर सैनिकों के बलिदान के बारे में चर्चा करती हैं। ब्रिटिशों ने भी, इस मुद्धे को जानबूझकर भुलाया दिखाया, युद्ध में भारत और उसके लोगों के सहयोग को सुविधाजनक तरीके से छोड़ दिया गया है।
जहाँ तक ब्रिटेन की बात रही, उन्होंने बहुत कम ध्यान दिया कि भूरी चमड़ी वाले लोग एक अंजानी जगह पर न्यूनतम खाद्य और सुविधा के साथ लड़ रहे थे। भारतीय रेजीमेंट्स को यूरोप में उनके उष्णकटिबंधीय सूती कपड़ों में अभ्यास के लिये भेजा गया था; सर्दियों की किट, बड़े कोटों के साथ, तब तक नहीं पहुंची जब तक कि दर्जनों ठंड और शीतदंश से मरे जा चुके थे। लेकिन भारत ने इतिहास के इस हिस्से से अपनी कलम को क्योंखींच लिया था जिसने विश्व पर बहुत बड़ा प्रभाव छोड़ा था?
भारत उस समय पर ब्रिटिशों के विरूद्ध अपनी लड़ाई के लिये अपनी पकड़ को ढ़ूढ़ रहा था। स्वतंत्रता उस समय हर किसी का कारण था जो सभी से सम्बंधित था; दूसरा सबकुछ गौड़ था। प्रथम विश्व युद्ध, स्वतंत्रता आंदोलन के साथ पेचींदा तरीके समाप्त हुआ था। युद्ध शुरू होने के पहले, जर्मनी ने भारत को ब्रिटेन के विरूद्ध प्रचंड युद्ध के लिये प्रभावित करने की कोशिश किया था।
और एक बार युद्ध शुरू हो जाता, तो यह उम्मीद की जा रही थी कि भारत इस मौके का उपयोग आंदोलन को तेज करने के लिये करेगा, जबकि ब्रिटेन कहीं अन्य जगह व्यस्त रहेगा। राष्ट्रीय नेता, जैसे महात्मा गांधी, मुहम्मद अली जिन्ना उम्मीद लगाये हुथे कि इस प्रकार की उदारता का कार्य भारत के हितों में निश्चित रूप से काम करेगा, और सम्भवत: ब्रिटिश राज की मन:स्थिति बदल जायेगी।
अविभाजित भारत का सहयोग युद्ध के लिये वित्तीय रूप से भी था। बहुत से शाही राज्यों ने बहुत बड़ा दान भी सम्बद्ध कम्पेन को समर्थन देने के लिये उपलब्ध कराया था और कोष बढ़ाने के प्रयासों जैसे चिट्ठी और उत्सव का आयोजन किया था। भारत ने 170,000 जानवर, 3.7 मिलियन टन, बालू के थैले के लिये जूट, और एक बड़ा कर्ज (जो आज के 2 बिलियन पाउंड के लगभग बराबर होगा) ब्रिटिश सरकार के लिये उपलब्ध कराया था।
एक मिलियन से भी ज्यादा मुसलमान, सिख और हिंदू आदमी अविभाजित भारत- पंजाब, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और बिहार- के विभिन्न भागों से आकर इंडियन एक्स्पिडिसनरी सेना में शामिल हुये थे, जिन्हों पश्चिमी छोर पर, पूर्वी अफ्रीका, मेसोपोटामिया, इजिप्ट और गैलीपोली में युद्ध को देखा था। कई ने युद्ध को चुना था क्योंकि वेतन अच्छा था, और यह ‘अस्पृश्यों’ को ‘योद्धा’ की श्रेणी में ऊपर उठाता था, एक अच्छी स्थिति में जो समाज में उन्हें प्राप्त नहीं थी।
जब युद्ध समाप्त हुआ, और स्वस्थ और अपंग दोनों, बहुत बहादुरी की कहानियों के साथ घर वापस आये, भारत की उम्मीदों को बल मिला। लेकिन उनकी उम्मीदें तब टूटी जब ब्रिटिशों ने कड़ाई के साथ अनुदेशों को शुरू किया। इस क्रम में, गांधी ने अपना पहला भारत व्यापी आंदोलन सविनय अवज्ञा आंदोलन ब्रिटिशों के विरूद्ध फरवरी 1919 में शुरू किया।
जैसे जैसे आंदोलन की तीव्रता बढ़ती जा रही थी, विश्व युद्ध के नायक पीछे होते गये। इसके अलावा, वे दुख:दायी बिंदु और भारतीय योजना की डरावनी याद के समान थे जो नष्ट करने के लिये तैयार अपने गोरे मालिक को खुश किये हुये थे। इसके परिणामत: भारतीय राष्ट्रवादी नेताओं का अधिक महिमा मंडन हुआ जो ज्यादा उत्तेजक मुद्रा में स्वतंत्रता के लिये लड़ रहे थे। भारतीय राष्ट्रवादियों ने महसूस किया कि देश के पास अपने सैनिकों को धन्यवाद देने के लिये कुछ भी नहीं है। वे मात्र अपने विदेशी मालिकों की सेवा करने के लिये विदेश गये हुये थे।
यद्यपि भारत ने अपने युद्ध नायकों के लिये कोई गीत नहीं गाया था, लेकिन ब्रिटिश राज ने सम्पूर्ण भारत युद्ध स्मारक को वायसराय लार्ड इर्विन के समय 12 फरवरी 1931 को बनवाया था। इस विशालकाय स्मारक को आज इंडिया गेट के नाम से जाना जाता है जो दिल्ली के केंद्र में स्थित है।
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