जिंदगी जीने के लिए चाहिए दृढ़ इच्छाशक्ति और कुछ करने का जज्बा यदि ये चीजे आपके पास है तो आप कम पढ़े लिखे होने बावजूद ईश्वर द्वारा प्रदत्त ज्ञान का सही उपयोग कर सफल हो सकते हो और यही किया था मुम्बई के महादेव भवजी बच्ची नाम के एक शख्स ने और उन्होंने ही नीव रखी थी "मुम्बई के डिब्बेवाले"की
मुम्बई की दौड़ती भागती जिंदगी में भाग रहे लोगो को उनके घर का खाना वक्त पर मिले यही अहम् काम करते है मुम्बई में 5000 डिब्बेवाले.पुरे विश्व में इनकी कार्य पद्धति का डंका बज चुका है.
मुंबई में लोगों को गांधी टोपी पहन खाने का डिब्बा पहुंचाते डब्बे वाले। यह भी मुंबई की जनता की एक अहम जरुरत पूरी करने वाले लोग हैं । इन लोगों के बारे में बहुत जगह कुछ न कुछ अच्छा सुनने को मिल जाता है। मगर इन लोगों के बारे में कुछ ऐसे तथ्य हैं जो अपने शायद नहीं सुने होंगे। चलिए आज इन्ही तथ्यों को विश्लेषित करते हैं ।
महादेओ भवजी बच्ची यह पहले डब्बेवाले थे जिन्होंने इस सुविधा की शुरुआत 1890 में की थी। शुरुआत में इनका मुख्य काम ब्रिटिश अफसर और पारसी बैंक वालों को खाना पहुचना था पर बहुत जल्द यह एक बड़े व्यापर में बदल गया। शुरुआत 100 लोगों से की गयी और 1930 तक यह एक मुख्य धरा का उद्योग बन गया। 1956 में नूतन मुंबई टिफ़िन बॉक्स सप्लायर्स ट्रस्ट की स्थापना की गयी।
रघुनाथ मेगडे इसके वर्तमान अध्यक्ष हैं इस संस्था में आजतक सिर्फ एक बार 2011 में हड़ताल हुई है जो की अपने आप में एक कीर्तिमान है। यह भी अन्ना हज़ारे की करप्शन के खिलाफ आंदोलन को समर्थन देने के लिए किया गया था। ये माना जाता है की करीब 5000 डिब्बेवालों ने इस आंदोलन में हिस्सा लिया था। इस बात का शुक्र है की उस दिन मुंबई में अवकाश था वरना लोगों को खासी मुसीबत का सामना करना पड़ता।
इस संस्था को डिब्बा पहुंचाने में महारथ हासिल है इनकी गलती का अनुमान आप इसी बात से निकाल सकते हो की 16 मिलियन में से 1 बार गलती होती है। आप यह जान के हैरान हो जायेंगे की यह संस्था ISO सर्टिफाइड है और इस बात को अभी तक कई व्यापारी समझने की कोशिश कर रहे हैं की बिना किसी कंप्यूटर सिस्टम के कैसे ये लोग इतनी सटीकता से डिब्बे पंहुचा देते है
ये लोग कंप्यूटर का इस्तेमाल नहीं करते मगर इसका मतलब यह बिलकुल नहीं है की इनके पास अपनी कोई तकनीक नहीं है। हर डब्बे पर विशेष रंग लगाया जाता है जो इसके मालिक, रूट और यह निर्धारित करता है की कौनसा डब्बा पहले जायेगा। इसी रंग के आधार पर डब्बे को ट्रैन, बस, साइकिल इत्यादि से अपने गंतव्य तक पहुचाया जाता है
इस संस्था पर कई बार शोध भी हो चुके है 2005 में IIT ने इस संस्था पर किये गए शोध में यह बताया की यह एक उत्तम व्यवस्था का उत्कृष्ट नमूना है। इस संस्था द्वारा किये गए कार्य को हार्वर्ड बिज़नेस स्कूल में भी लोगों के सामने प्रस्तुत किया गए जहाँ इसे बहुत सम्मान मिले
आप को यह जान के हैरानी होगी की यह डब्बेवाले Guinness World Records में भी शुमार हो चुके हैं। बल्य बच्ची नामक डब्बेवाले ने एक साथ 6-7 फ़ीट लम्बे डब्बे के 3 करिअर को उठा कर कई बार डिलिवरी करी जो विश्व में एक कीर्तिमान है।
शेयर माय डब्बा नामक कार्यक्रम के अंतर्गत यह डब्बेवाले गरीब बच्चों को भी मुफ्त में खाना खिलते हैं। यह मानवीय कार्य इन लोगों की सोच और कार्यकारिणी की लगन को दर्शाता है। इस कार्यक्रम में जो खाना कहीं डिलीवर नहीं होता वो इन जरूरत मंद बच्चों को दे दिया जाता है जिससे खाना भी बर्बाद नहीं होता और बच्चों का पेट भी भर जाता है
. इन डब्बेवालों के कई फैन हैं जिनमे प्रिंस चार्ल्स से लेकर कई बड़े बिजनेसमैन हैं जो की इनकी कार्यकुशलता के कायल हैं और हों भी क्योँ ना इन लोगों द्वारा किया गया कार्य है ही तारीफ के काबिल।
मुम्बई की दौड़ती भागती जिंदगी में भाग रहे लोगो को उनके घर का खाना वक्त पर मिले यही अहम् काम करते है मुम्बई में 5000 डिब्बेवाले.पुरे विश्व में इनकी कार्य पद्धति का डंका बज चुका है.
मुंबई में लोगों को गांधी टोपी पहन खाने का डिब्बा पहुंचाते डब्बे वाले। यह भी मुंबई की जनता की एक अहम जरुरत पूरी करने वाले लोग हैं । इन लोगों के बारे में बहुत जगह कुछ न कुछ अच्छा सुनने को मिल जाता है। मगर इन लोगों के बारे में कुछ ऐसे तथ्य हैं जो अपने शायद नहीं सुने होंगे। चलिए आज इन्ही तथ्यों को विश्लेषित करते हैं ।
महादेओ भवजी बच्ची यह पहले डब्बेवाले थे जिन्होंने इस सुविधा की शुरुआत 1890 में की थी। शुरुआत में इनका मुख्य काम ब्रिटिश अफसर और पारसी बैंक वालों को खाना पहुचना था पर बहुत जल्द यह एक बड़े व्यापर में बदल गया। शुरुआत 100 लोगों से की गयी और 1930 तक यह एक मुख्य धरा का उद्योग बन गया। 1956 में नूतन मुंबई टिफ़िन बॉक्स सप्लायर्स ट्रस्ट की स्थापना की गयी।
रघुनाथ मेगडे इसके वर्तमान अध्यक्ष हैं इस संस्था में आजतक सिर्फ एक बार 2011 में हड़ताल हुई है जो की अपने आप में एक कीर्तिमान है। यह भी अन्ना हज़ारे की करप्शन के खिलाफ आंदोलन को समर्थन देने के लिए किया गया था। ये माना जाता है की करीब 5000 डिब्बेवालों ने इस आंदोलन में हिस्सा लिया था। इस बात का शुक्र है की उस दिन मुंबई में अवकाश था वरना लोगों को खासी मुसीबत का सामना करना पड़ता।
इस संस्था को डिब्बा पहुंचाने में महारथ हासिल है इनकी गलती का अनुमान आप इसी बात से निकाल सकते हो की 16 मिलियन में से 1 बार गलती होती है। आप यह जान के हैरान हो जायेंगे की यह संस्था ISO सर्टिफाइड है और इस बात को अभी तक कई व्यापारी समझने की कोशिश कर रहे हैं की बिना किसी कंप्यूटर सिस्टम के कैसे ये लोग इतनी सटीकता से डिब्बे पंहुचा देते है
ये लोग कंप्यूटर का इस्तेमाल नहीं करते मगर इसका मतलब यह बिलकुल नहीं है की इनके पास अपनी कोई तकनीक नहीं है। हर डब्बे पर विशेष रंग लगाया जाता है जो इसके मालिक, रूट और यह निर्धारित करता है की कौनसा डब्बा पहले जायेगा। इसी रंग के आधार पर डब्बे को ट्रैन, बस, साइकिल इत्यादि से अपने गंतव्य तक पहुचाया जाता है
इस संस्था पर कई बार शोध भी हो चुके है 2005 में IIT ने इस संस्था पर किये गए शोध में यह बताया की यह एक उत्तम व्यवस्था का उत्कृष्ट नमूना है। इस संस्था द्वारा किये गए कार्य को हार्वर्ड बिज़नेस स्कूल में भी लोगों के सामने प्रस्तुत किया गए जहाँ इसे बहुत सम्मान मिले
आप को यह जान के हैरानी होगी की यह डब्बेवाले Guinness World Records में भी शुमार हो चुके हैं। बल्य बच्ची नामक डब्बेवाले ने एक साथ 6-7 फ़ीट लम्बे डब्बे के 3 करिअर को उठा कर कई बार डिलिवरी करी जो विश्व में एक कीर्तिमान है।
शेयर माय डब्बा नामक कार्यक्रम के अंतर्गत यह डब्बेवाले गरीब बच्चों को भी मुफ्त में खाना खिलते हैं। यह मानवीय कार्य इन लोगों की सोच और कार्यकारिणी की लगन को दर्शाता है। इस कार्यक्रम में जो खाना कहीं डिलीवर नहीं होता वो इन जरूरत मंद बच्चों को दे दिया जाता है जिससे खाना भी बर्बाद नहीं होता और बच्चों का पेट भी भर जाता है
. इन डब्बेवालों के कई फैन हैं जिनमे प्रिंस चार्ल्स से लेकर कई बड़े बिजनेसमैन हैं जो की इनकी कार्यकुशलता के कायल हैं और हों भी क्योँ ना इन लोगों द्वारा किया गया कार्य है ही तारीफ के काबिल।
No comments:
Post a Comment