500 और 1000 रुपये के पुराने नोटों को अमान्य करने और 1000 रुपये की जगह 2000 रुपये मूल्य के नए नोटों को लाए जाने से आम जनता को थोड़ी असुविधा तो निश्चित तौर पर हुई है, लेकिन इस बात से असहमत नहीं हुआ जा सकता है कि सरकार द्वारा कालाधन को निकाल बाहर करने के उपलब्ध विकल्पों में से यह एक महत्वपूर्ण विकल्प है और किसी भी दूसरे विकल्प में इसी प्रकार के प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रभाव होंगे। कुछ लोगों ने यहां तक कहा कि ऐसा करके सरकार ने छोटे कारोबारियों, आम जनता को नाखुश कर दिया है, लेकिन सवाल यह है कि क्या कालाधन के खिलाफ कार्रवाई का कोई ऐसा फॉर्मूला हो सकता है, जिसमें आम जनता को भागीदारी न करनी पड़े?
चुनावों में कालेधन के इस्तेमाल की सुनी-साबित कहानियों को लेकर हमारी चिंताएं जायज हैं, तो करेंसी नोटों में 86 प्रतिशत हिस्सा 500-1000 रुपये के नोटों का होने का असर चुनावों के प्रबंधन पर पड़ना लाजिमी है। हमें बतौर नागरिक यह स्वीकारना होगा कि भारत में कालाधन और भ्रष्टाचार को हम नागरिकों के संज्ञानता में ही यह आकार-सत्कार हासिल हुआ है जिससे निपटने के लिए हमारे पास चुनाव रूपी लोकतांत्रिक विकल्प मौजूद रहे हैं, सरकार और नौकरशाही के दोषों के लिए जनता की गैरजिम्मेदारी को खारिज नहीं किया जा सकता है, भले उसकी सीमाएं हों। लेकिन कालाधन पर सरकार की मौजूदा पहल पर बीते दो दिनों में अनुभव यही रहा है कि आम लेन-देन को लेकर भले ही थोड़ी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा हो, लेकिन आम आदमी यह समझ रहा है कि इस पहल से असर पड़ने वाला है। यह लोकतंत्र और जनमत में आ रहे गुणात्मक बदलावों का प्रमाण है और इस रूप में हम एक परिपक्व हो रहे लोकतंत्र की ओर बढ़ रहे हैं।
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