Saturday 26 November 2016

"मिथ्या-आत्माभिमान का परित्याग किये बिना सत्य को देख पाना असंभव है।
यथार्थ के रूप में सत्य प्रत्यक्ष है पर उसकी विविधताएं केवल उसके प्रति विविध दृष्टिकोण का परिणाम है, ऐसे में, सत्य की दिव्यता से यदि हम प्रतिरक्षित हैं तो केवल इसलिए क्योंकि अभी तक हमें सत्य की वास्तविकता को बोध ही नहीं; सत्य को जानने के बजाये जब तक हम अपने समझ से सत्य की व्याख्या करते रहेंगे, हम अपने निष्कर्ष से अपने विवेक के स्तर का ही परिचय देंगे।
आखिर ऐसी शिक्षा व्यवस्था का क्या लाभ जो व्यक्ति को उसके सत्य से ही वंचित रखें, फिर चाहे जितने भी डॉक्टर, वकील, इंजीनियर या मेनेजर हम क्यों न बना लें.. जब तक हम अच्छा इंसान बनाना नहीं सीखते, हम राष्ट्र के रूप में अपने परम वैभव को नहीं प्राप्त कर सकते।
दिव्यता के अनुसरण से बेहतर दिव्यता की अनुभूति होगी और यह तभी संभव है जब हम यथार्थ में सत्य का अनुसरण करने के बजाये सत्यनिष्ठ आचरण द्वारा आदर्श का व्यावहारिक उदाहरण बनें।
गलतियां करना मानवीय प्रवृति है पर गलतियों को मान लेने से कोई छोटा नहीं बल्कि बड़ा बनता है क्योंकि तब, न केवल गलतियों के सुधार की सम्भावना भी खुलती है बल्कि अपने अनुभव से ज्ञान के स्तर का भी विकास होता है ; जब तक हम अपनी गलतियों को मानने के बजाये उसे अपने कुतर्कों से सही सिद्ध करने का प्रयास करते रहेंगे, न केवल हम समस्याओं को जटिल बनाते रहेंगे बल्कि अपने प्रयास से अपनी ही मूर्खता को ही सिद्ध करते रहेंगे। फिर सत्य के विषय का सन्दर्भ चाहे जो हो;अगर वर्त्तमान के राष्ट्रीय परिदृश्य की बात करें तो जो हो रहा है, सब के सामने है, फिर भी अगर सत्य की स्वीकृति से बहुमत को समस्या हो तो परिस्थितियों की विषमता के लिए भाग्य को दोष देना व्यर्थ होगा ;
जब समय ने 'इण्डिया' को 'भारत' बनाने का अवसर हमें प्रदान किया तो हम क्या कर रहे हैं... भारत को बाजार और भारतवासियों को उपभोक्ता बनाया जा रहा है; अगर पूंजीवाद का उपनिवेश बनकर ही भारत का विकास होना था तो हमारे स्वतंत्रता और स्वतंत्रता संग्राम का कोई औचित्य ही नहीं । हमें क्या करना था और हम कर क्या रहे हैं यह किसे स्पष्ट नहीं पर अगर मिथ्या आत्माभिमान के प्रभाव में हमें सत्य की स्वीकृति से ही समस्या हो तो इसे देश का दुर्भाग्य ही कहेंगे ;
संघर्ष करने वालों ने तो ब्रिटानिया हुकूमत से लड़कर देश को स्वाधीन करा दिया पर अगर आज हम पूंजीवाद के स्वदेशी संस्करण के अधीन हैं तो इसका यही तात्पर्य है की हमारे राष्ट्र भक्ति को राजनीति ने इतना विकृत कर दिया है की हमारे पौरुष में इतना सामर्थ ही नहीं बचा की हम सत्य के लिए संघर्ष कर सकें, तभी, वर्त्तमान की विवशता को व्यावहारिक मानकर हम स्वयं को उसके अनुकूल करने का प्रयास कर रहे हैं;
सचमुच, व्यक्तिगत आकांक्षा राष्ट्र की आवश्यकता पर इतनी हावी कभी न थी, परिस्थितियों से बेहतर सत्य के सत्यपान की कोई अन्य विधि नहीं; अगर अब भी हम नहीं सम्भले तो बहोत देर हो जायेगी।"

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