Wednesday, 2 November 2016

"बात हिन्दू - मुसलमान की नहीं, बात सही और गलत की है; जब तक हम अपराध को हिन्दू- मुसलमान के आधार पर वर्गीकृत करते रहेंगे, हम अच्छे इंसान नहीं बन सकेंगे ; और अगर अच्छा इंसान बनाना ही किसी भी धर्म का अंतिम उद्देश्य है तो क्या आज हम अपने आचरण से सही अर्थों में धार्मिक हैं, यह सभी के लिए सोचने का विषय है, फिर जिसका धर्म चाहे जो हो।
बात राजनीति की नहीं राष्ट्रधर्म की है, बात सत्य, धर्म और न्याय की है जो हमारे हिन्दू संस्कृति का मूल आधार है, फिर कालखंड चाहे जो हो।
प्रक्रिया का प्रभाव परिणाम के निष्कर्ष पर स्वाभाविक है और यही किसी भी क्रिया के सन्दर्भ में प्रक्रिया का महत्व भी ; जब तक हमारा प्रयास परिणाम की आकांक्षा द्वारा शाषित होगा आवश्यक नहीं की प्रयास धर्म निष्ठ व् नियम सम्मत हो ; यहाँ धर्म और नियम की समझ महत्वपूर्ण है जो समय द्वारा परिस्थितियों के सापेक्ष तय होता है।
जब तक परिस्थितियों की प्रतिक्रिया के आधार पर प्रयास निर्धारित किये जाएंगे प्रयास की निष्ठां में परिपूर्णता का आभाव रहेगा, ऐसा इसलिए, क्योंकि आदर्श परिस्थिति में कर्म के प्रयास को अपने नियति के परिणाम को निर्धारित करने का अधिकार प्राप्त होता है। इसलिए प्रतिक्रिया के आधार पर क्रिया निर्धारित करने का कोई भी प्रयास राजनीतिक भले हो पर आवश्यक नहीं की नीतिगत भी होगा।
कौन क्या सोचता है और किसकी क्या प्रतिक्रिया है यह तब महत्वपूर्ण होता है जब आप स्वयं अपने प्रयास के प्रति आस्वश्त न हों, फिर प्रयास का विषय चाहे जो हो।
किसका पक्ष कौन सा है और किस पक्ष के लोग क्या कहते हैं यह भी तभी महत्वपूर्ण होता है जब विषय के लिए राजनीति का महत्व नीति से अधिक हो ; अब आप बताएं की आदर्श परिस्थिति में राजनीति नीति द्व्रारा शासित होना चाहिए या नीति के निर्धारण का अधिकार भी राजनीति को दे देना चाहिए?
अगर अधर्म, अन्याय और अनीति को कोई समाज जीवन शैली के रूप में केवल इसलिए स्वीकार कर ले क्योंकि वह उसे व्यावहारिक मानता हो और बहुमत उससे केवल इसलिए प्रतिरक्षित हो जाए क्योंकि वह उसके उत्पीडन का पात्र नहीं, तो विश्वास मानिये, की ऐसे समाज में कोई भी सुरक्षित नहीं हो सकता।
गलत गलत है और उसका विरोध होना ही चाहिए, अगर सही और गलत में अंतर करने के लिए भी पक्ष और पात्र निर्णायक हो जाएँ तो यही सिद्ध होगा को समाज ने राजनीति को ही नीति निर्धारण का अधिकार सौंप दिया है।
आखिर कब तक हम राष्ट्र की आवश्यकता से अधिक राजनीतिक आकांक्षा को महत्वपूर्ण मानते रहेंगे क्योंकि अगर ऐसा ही चलता रहा तो संभव है की राजनीति ही राष्ट्र के पतन का कारन बनें ;
आज यह हमें तय करना है की हमारे लिए महत्वपूर्ण क्या है, नीतिगत विधि-व्यवस्था जो न्याय को सुनिश्चित करे और धर्म की रक्षा कर आदर्श समाज की स्थापना करे, या राजनीति द्वारा शाषित ऐसा समाज जहाँ बहुमत को गलत को भी सही सिद्ध करने का अधिकार प्राप्त हो।
भविष्य के सन्दर्भ में वर्त्तमान की परिस्थिति निर्णायक है जिसमें हमारी भूमिका ही हमारे पात्र का महत्व भी निर्धारित करेगी; यह हमें निर्णय करना है की आज हम कैसी प्रवृति व् मानसिकता को सामाजिक आचरण में अपनाकर प्रेरित व् प्रोत्साहित करेंगे क्योंकि व्यावहारिक अभ्यास से यही व्यवहार भविष्य की संस्कृति बन जायेगी ;
सही और गलत के अंतर को जानने के लिए धर्म का ज्ञान नहीं बल्कि स्वाभाविक मानवीय संवेदनाएं ही पर्याप्त है; अगर आज राजनीति के गणनात्मक दृष्टिकोण के प्रभाव ने हमें जीवन के गुणवत्ता के प्रति भी संवेदनहीन बना दिया है तो क्या हम मनुष्य भी कहलाने के योग्य हैं ? समय मिले तो इस विषय पर विचार कीजियेगा !"

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