Monday, 14 November 2016

"आज सामाजिक व्यवस्था ही कुछ ऐसी है की दैनिक जीवन में प्रत्येक व्यक्ति का प्रत्येक काम धन द्वारा शासित है, ऐसा इसलिए क्योंकि जिस धन का औचित्य जीवन के लिए एक संसाधन के रूप में था उसे जीवन ने अपना उद्देश्य मान लिया है।
तभी, आज जो भी होता है उस प्रयास का अंतिम उद्देश्य धन की आकांक्षा ही होती है। अगर धनी और निर्धन के बीच धन का ही अंतर है तो धन की अनुपस्थिति में न कोई धनी होगा और न ही कोई निर्धन , पर ऐसी व्यवस्था व्यावहारिक रूप से संभव ही नहीं, पर व्यवस्था के प्रयास से दैनिक जीवन में धन के महत्व को नियंत्रित तो किया ही जा सकता है। आज सामाजिक जीवन में धन के महत्व को नियंत्रित करने के बजाये धन के व्यवहार को विनियमित करने का प्रयास किया जा रहा है , ऐसे में, जब प्रयास की दिशा ही गलत हो तो परिणाम का सही होना असंभव है।
सामाजिक जीवन आज धन के मूल्य से ही शासित इसलिए है क्योंकि समाज में व्यक्ति आज वैचारिक रूप से इतना निर्धन और नैतिक रूप से इतना दुर्बल है की वह अपने महत्व, प्रभाव, प्रतिष्ठा और शक्ति के लिए धन के मूल्य पर आश्रित है। ऐसे में, यह समझना भी आवश्यक होगा ही धन का प्रयोग उसे सही या गलत बनाता है और इसलिए प्रयोग की गलती के लिए धन के मूल्य के प्रभाव को दोष देना गलत होगा।
सामाजिक समस्या ही नहीं उनके समाधान भी आपस में एक दुसरे से जुड़े हुए हैं, ऐसे में, किसी एक आयाम में प्रयास करने से सामाजिक व्यवस्था का असन्तुलित होना स्वाभाविक है।
परिणाम की सफलता और प्रयास की सार्थकता के लिए चाहिए की प्रयास न केवल योजना बद्ध तरिके से पूरी तैयारी के साथ सामाजिक जीवन के विभिन्न आयामों के समन्वय द्वारा संचालित हो, अगर ऐसा नहीं किया गया तो प्रयास समस्या का समाधान करने के बजाये उसे और जटिल बना देगी। यही तो आज हो रहा है।
अर्जुन भी वीर था और दुर्योधन भी, दोनों के बीच अंतर था तो उनके सलाहकार का। दुर्योधन के सलाहकार धूर्त शकुनि और दुष्ट दुस्साशन थे और अर्जुन श्री कृष्णा से सलाह लेता था, परिणाम क्या हुआ यह सब जानते हैं।
कहने का तात्पर्य केवल इतना है की भ्रस्टाचार जैसे सामाजिक बुराई पर विजय प्राप्त करने के लिए केवल निर्णय की वीरता पर्याप्त नहीं, योजना के क्रियान्वयन की समुचित तैयारी और प्रयास की सही दिशा निर्णायक होगी, अन्यथा परिणाम भी प्रयास की असफलता और समय की व्यर्थता ही सिद्ध करेगा।
किसी भी समस्या के समाधान के लिए समस्या की वास्तविक समझ निर्णायक होगी, अपने सीमित समझ से केवल रणनीति द्वारा समस्या के समाधान का कोई भी प्रयास केवल नेतृत्व की अयोग्यता को ही सिद्ध करता है, ऐसे में, अगर सच की स्वीकृति के बजाये अगर अपनी समझ को ही सही सिद्ध करने का प्रयास किया जाये, तो स्थिति में सुधार और परिस्थिति में परिवर्तन संभव ही नहीं, फिर प्रयास कोई कितना भी कर ले।
अगर देश आज किसी भी नीतिगत प्रयोग के लिए तैयार है तो क्यों न विचारधारा का व्यवस्था तंत्र में व्यावहारिक प्रयोग का प्रयास किया जाए, क्योंकि आज कारन भी है और आवश्यकता भी। कला की रचनात्मकता का शाशन तंत्र की शक्ति के साथ व्यावहारिक प्रयोग कर ही हम संभवनाओं को असीम बना सकते हैं, क्या आपको ऐसा नहीं लगता !"

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