कठुआ नाम सुना है?
वही जम्मू-कश्मीर वाला जो बलात्कारों की जांच अनोखे तरीकों से दबाने के लिए कुख्यात है! वहां एक होस्टल बनाकर चर्च के नाम पर एक पादरी कई बच्चों का यौन शोषण करता पकड़ा गया है। ये हाल का ही मामला है। यानि जिस वक्त कठुआ के नाम पर चर्च प्रायोजित मोमबत्तियां जलाई जा रही थीं, ठीक उसी वक्त चर्च का एक पादरी, उसी कठुआ में, बच्चों का यौन शोषण कर रहा था।
ये सब ठीक उसी वक्त हो रहा था जब Apostolic Alliance of Churches, Utkal Christian Council और Trust God Ministries नाम के चर्च के संगठन धारा 377 को न हटाने के लिए दिल्ली के सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा लड़ रहे थे। ये तब हो रहा था जब केरल के (निर्दलीय) विधायक पी.सी. जोर्ज कह रहे थे कि पहले तो बारह बार नन चुप रही, तेरहवीं बार में वो पादरी के खिलाफ शिकायत कर रही है। इसलिए जलंधर का बलात्कारी बिशप फ्रेंको मुलाक्कल निर्दोष है! उसपर आरोप लगाने वाली नन ही बदचलन है।
आपको कोई बच्चा या बच्ची लगता है तो इससे हमलावरों को क्या लेना देना? अट्ठारह साल से कम का कोई बच्चा-बच्ची होगा, ये आपके संविधान में लिखा है। उनकी किताबों में ऐसी कोई बात नहीं लिखी। यकीन न हो तो सेमेंटिक मजहबों वाले किसी मुल्क का कानून उठा कर देख लीजिये (शरियत वाले या वेटिकन सिटी ही नहीं अमेरिका के कई मुल्क भी देख सकते हैं)। सनातनियों वाली अवधारणाओं पर चल रहे हैं तो खतरा आपके बच्चों के सर पर ही मंडरा रहा है। जो खुद को लिबरल/प्रगतिशील कहते हैं, उनके हिसाब से बच्चों के प्रति ऐसे विचार बिलकुल भी गलत नहीं होते।
भेड़िये पिंजड़ों में नहीं हैं, वो शहरों में आपके हमारे बीच टहल रहे हैं। इसके लिए भेड़ियों को तो दोष नहीं दिया जा सकता, उनका तो काम ही “शिकार” करना है। कुछ हद तक निकम्मी सरकार को दोषी ठहराया जा सकता है, लेकिन सवाल है कि ये सरकार चुनता कौन है? कम उम्र में आकर्षण स्वाभाविक है, इसके लिए भी बच्चों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। सही दिशा दिखाना जिनकी जिम्मेदारी थी, वो लोग अपनी जिम्मेदारियों से मूंह छुपाकर भाग गए। पहली गलती उन्हीं की है।
अघोषित रूप से खुद को हिन्दुत्ववादी और घोषित रूप से राष्ट्रवादी कहने वाले एन.जी.ओ. से जुड़े लोगों की कामचोरी और निकम्मापन तो साफ़ तौर पर नजर आ जाता है। गाली-गलौच करने वालों के पास कौन बैठना चाहता है? हर बात में फूफाजी बनने वालों के पास बच्चे जाते हैं या प्यार से बात करने वालों के पास? माँ-बहन की गालियाँ बकते रहने वालों को कौन अपने घर बुलाता है? हाल में जब इन्टरनेट पर #MeToo कैम्पेन चला था तो उससे लम्पटों का नाम ढूंढकर, ऐसे लफंगों से दूर रहने की सलाह देना, सावधानी बरतना किसकी जिम्मेदारी थी? पड़ोसी की होगी शायद।
बाकी फिल्मों-साहित्य के जरिये जिन्हें शराफत का नकाब कई दशक में पहनाया गया है, उनकी समाज में पहचान करना तो ऐसे भी मुश्किल था, लेकिन अपने पास से धकेल कर बच्चों को भगाने में कौन सी समझदारी है, ये समझना थोड़ा मुश्किल तो जरूर है।
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