Saturday, 29 September 2018





डाटा बेचकर पैसा बनाता फेसबुक..
दुनिया में तकरीबन 220 करोड़ लोग फेसबुक के एक्टिव यूजर्स हैं, लेकिन ये यूजर्स फेसबुक को एक रुपये का भुगतान नहीं करते. ऐसे में सवाल उठता है कि फेसबुक कंपनी चलाने के लिए पैसा कहां से लाती है. जानते हैं फेसबुक की कमाई का राज
आइडिया बनी कंपनी
होस्टल से कमरे से शुरू हुआ एक छोटा आइडिया आज एक ग्लोबल प्रोजेक्ट बन गया है, दुनिया की लगभग एक चौथाई जनसंख्या आज फेसबुक की रजिस्टर्ड यूजर में शामिल है.रोजाना तकरीबन 200 करोड़ लोग फेसबुक पर लाइक, कमेंट के साथ-साथ तस्वीरें भी डालते हैं.
कंपनी की आय
मोटा-मोटी फेसबुक पर औसतन हर एक यूजर दिन के करीब 42 मिनट बिताता है. पिछले कुछ सालों में कंपनी की कुल आय, तीन गुना तक बढ़ी है और आज की तारीख में इसकी नेट इनकम करीब 1500 करोड़ यूरो तक पहुंच गई है.
मुफ्त सेवायें
अब सवाल है कि जब फेसबुक की सारी सुविधायें यूजर्स के लिए फ्री हैं तो पैसा कहां से आता है. सीधे तौर पर बेशक फेसबुक अपने यूजर्स से पैसा नहीं लेता लेकिन ये यूजर्स के डाटा बेस को इकट्ठा करता है और उन्हें कारोबारी कंपनियों को बेचता है. आपका हर एक क्लिक आपको किसी न किसी कंपनी से जोड़ता है.
डाटा के बदले पैसा
फेसबुक अपने यूजर डाटा बेचकर कंपनियों से पैसे कमाता है. मसलन कई बार आपसे किसी साइट या किसी कंपनी में रजिस्टर होने से पहले पूछा जाता है कि क्या आप बतौर फेसबुक यूजर ही आगे जाना चाहते हैं और अगर आप हां करते हैं तो वह साइट या कंपनी आपकी सारी जानकारी फेसबुक से ले लेती है.
विज्ञापनों का खेल
दूसरा तरीका है विज्ञापन, अपने गौर किया होगा कि आपको अपने पसंदीदा उत्पादों से जुड़े विज्ञापन ही फेसबुक पर नजर आते होंगे. मसलन अगर आपने पसंदीदा जानवर में बिल्ली डाला तो आपके पास बिल्लियों के खाने से लेकर उनके स्वास्थ्य से जुड़े तमाम विज्ञापन आयेंगे
ऑडियंस टारगेटिंग
सारा खेल इन विज्ञापनों की प्लेसिंग का है. इस प्रक्रिया को टारगेटिंग कहते हैं. फेसबुक मानवीय व्यवहार से जुड़ा ये डाटा न सिर्फ कंपनियों को उपलब्ध कराता है बल्कि तमाम राजनीतिक समूहों को भी उपलब्ध कराता है. मसलन ब्रेक्जिट के दौरान उन लोगों की टारगेटिंग की गई थी जो मत्स्य उद्योग से जुड़े हुए हैं.
कौन होता प्रभावित
इन सब के बीच ये अब तक साफ नहीं हुआ है कि कौन किसको कितना प्रभावित कर रहा है और कंपनियों को फेसबुक के साथ विज्ञापन प्रक्रिया में शामिल होकर कितना लाभ मिल रहा है. साथ ही डाटा खरीदने-बेचने की इस प्रक्रिया में कितने पैसे का लेन-देन होता है।
कोई जिम्मेदारी नहीं
फेसबुक किसी डाटा की जिम्मेदारी नहीं लेती और न ही इसकी सत्यता की गारंटी देता हैं. डिजिटल स्पेस की यह कंपनी अब तक दुनिया का पांचवा सबसे कीमती ब्रांड बन गया है. कंपनी ने कई छोटी कंपनियों को खरीद कर बाजार में अपनी एक धाकड़ छवि बना ली है.


#Reuters,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
‘मेक इन इंडिया’ को समर्पित
फिल्म ‘सुई-धागा’!
 2014 में नई सरकार आने के बाद हथकरघा उद्योग में एक नया सूर्य उदय हुआ। प्रधानमंत्री की मेक इन इंडिया योजना के तहत हथकरघा उद्योग के नव उदय के लिए भागीरथी प्रयास किये गए। यशराज फिल्म्स की ‘सुई-धागा’ मेक इन इंडिया अभियान को समर्पित की गई है।
मौजी एक सेठ के यहाँ दर्जी का काम करता है। एक दिन सेठ उसे धक्के मारकर नौकरी से निकाल देता है। ठीक वैसे ही जैसे अंग्रेज़ों ने हमारे फलते-फूलते हथकरघा उद्योग को लात मारकर बाहर कर दिया था। है तो वह कहानी का पात्र  लेकिन देशभर के हथकरघा उद्योग के मजबूर कामगार का ‘प्रतीक’ है।
 कहानी ‘ढाका की मलमल’ से शुरू हुई। ये इतनी महीन होती थी कि आप ढाका की मलमल वाली चादर को एक अंगूठी से निकाल सकते थे। इस मलमल की मांग विश्व के कोने-कोने में हुआ करती थी। ब्रिटिश शासन ने इस उद्योग का गला ही घोंट दिया। उन्होंने सत्ता सँभालते ही हथकरघा उद्योग को बंद करने का निर्णय ले लिया। भारत की कपास ढाका की जगह ब्रिटेन भेजी जाने लगी। वहां से मशीनों का आया सस्ता कपडा स्वीकार कर लिया गया। हमने अंग्रेज़ी कपड़ा पहनना स्वीकार किया और हमारे बुनकर भाइयों को खाने के लाले पड़ने लगे। देश की अधिकांश जनता ये नहीं जानती कि 2015 से ही हर साल के 7 अगस्त को राष्ट्रीय हथकरघा दिवस मनाने की शुरुआत कर दी गई है।
हमें सिनेमा को ‘लार्जर देन लाइफ’ देखने की लत इतनी भारी पड़ी है कि आम आदमी का किरदार फिल्म में देखते ही हम नाक भौ सिकोड़ लेते हैं। परदे पर साइकिल चलाते आम आदमी की जद्दोज़हद हमारे महंगे कोक और पॉपकॉर्न का लुत्फ़ बिगाड़ देती है। इसमें तो वास्तविकता की पथरीली ज़मीन पर उग आए सपने की कहानी है।
मौजी एक प्रतिभावान दर्जी है। मौजी के दादा सिलाई का काम करते थे मगर आर्थिक हालात बिगड़ने से काम बंद हो गया। इस कारण मौजी और उसके पिता को नौकरी करनी पड़ती है। मौजी की पत्नी उसे खुद का व्यापार करने के लिए प्रेरित करती है। जब मौजी अपनी सिलाई मशीन लेकर बाहर निकलता है तो हालात और बिगड़ते हैं। नौबत यहाँ तक आ जाती है कि मौजी की अपनी सिलाई मशीन भी उससे छीन ली जाती है। विपरीत परिस्थितियों में मौजी और ममता कैसे कामयाब होते हैं, यही सुई धागा की कहानी है। लेखक और निर्देशक शरत कटारिया ने अपनी कहानी के रेशे वास्तविकता के महीन धागों से बुने हैं। इस कहानी में कोई ‘उलटफेर’ नहीं है, कोई ‘ट्विस्ट’ नहीं है। ये आम कहानी है जो सीधी पगडण्डी पर चलकर अपने घर पहुँच जाती है, बिना किसी आडंबर, बिना किसी लाग-लपेट के।
अनुष्का शर्मा ने सामाजिक सरोकार वाली इस फिल्म को अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ दिया है। ममता के चरित्र को उन्होंने इस कदर अपने भीतर ढाला है कि कोई चूक, कोई कसर बाकी नहीं रहती। उनका ‘अंडरप्ले’ कमाल का रहा है। एक गंवई महिला की भूमिका निभाते हुए वे ओवरएक्ट का शिकार नहीं होती। वे आँखों से बोलती हैं। वे चलती हैं तो अनुष्का नहीं ‘ममता’ होती हैं। इस बार अभिनय का राष्ट्रपति पुरस्कार और फिल्म फेयर उन्हें नज़रअंदाज़ कर पाए, ये मुश्किल लगता है।
 एक दर्जी कैंची कैसे पकड़ेगा, मशीन कैसे चलाएगा, कैसे कपडा काटेगा, इसके लिए वरुण धवन ने बाकायदा प्रशिक्षण लिया है। वरुण धवन इस फिल्म में अनुष्का से कुछ पीछे रह गए हैं लेकिन फिर भी प्रभावित करते हैं। मौजी के पिता की भूमिका में रघुवीर यादव कमाल करते हैं। नामित दास और गोविन्द पांडेय ने भी अपने पात्रों  के साथ पूरा न्याय किया है।
निर्देशक शरत कटारिया बधाई के पात्र हैं। उन्होंने ये फिल्म प्रधानमंत्री के महत्वाकांक्षी ‘मेक इन इंडिया’ अभियान को समर्पित की है। सुई धागा गहराई से बताती है कि इस देश में एक गरीब आदमी को स्टार्टअप खड़े करने के लिए आग का दरिया पार करना पड़ता है। फिल्म का सकारात्मक पक्ष ये है कि ये बेहद सच्चाई के साथ आम आदमी की कहानी को दर्शक के सामने रखती है। फिल्म देखकर निकले दर्शक अच्छी प्रतिक्रिया दे रहे हैं। इससे समझ आता है कि फिल्म को दर्शक ने स्वीकार कर लिया है, ख़ास तौर से युवा दर्शकों ने।
सच्चाई के धागों से बुनी ये फिल्म आपको आनंद के निर्मल आनंद में जरूर डूबा देगी। आप न देखें तो भी ये एक बेहतरीन फिल्म है और जबरदस्त ढंग से हिट है।





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