Saturday, 22 September 2018


संस्कृत में 
हर अक्षर, स्वर और व्यंजन के संयोग से बनता है,
.जैसे कि “क” याने क् (हलन्त) अधिक अ । “स्वर” सूर/लय सूचक है, और “व्यंजन” शृंगार सूचक ।
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संस्कृत वर्णॅ-माला में 13 स्वर, 33 व्यंजन और 2 स्वराश्रित ऐसे कुल मिलाकर के 49 वर्ण हैं । स्वर को ‘अच्’ और ब्यंजन को ‘हल्’ कहते हैं ।
अच् – 14
हल् – 33
स्वराश्रित – 2
14 स्वरों में से 5 शुद्ध स्वर हैं; अ, इ, उ, ऋ, लृ
और 9 अन्य स्वर: आ, ई, ऊ, ऋ, लृ, ए, ऐ, ओ, औ
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मुख के अंदर स्थान-स्थान पर हवा को दबाने से भिन्न-भिन्न वर्णों का उच्चारण होता है । मुख के अंदर पाँच विभाग हैं, जिनको स्थान कहते हैं । इन पाँच विभागों में से प्रत्येक विभाग में एक-एक स्वर उत्पन्न होता है, ये ही पाँच शुद्ध स्वर कहलाते हैं ।
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स्वर उसको कहते हैं, जो एक ही आवाज में बहुत देर तक बोला जा सके ।
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33 व्यंजनों में 25 वर्ण, वर्गीय वर्ण हैं याने कि वे पाँच–पाँच वर्णों के वर्ग में विभाजित किये हुए हैं । बाकी के 8 व्यंजन विशिष्ट व्यंजन हैं, क्यों कि वे वर्ग़ीय व्यंजन की तरह किसी एक वर्ग में नहीं बैठ सकतें । वर्गीय व्यंजनों का विभाजन उनके उच्चारण की समानता के अनुसार किया गया है ।
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* कंठ से आनेवाले वर्ण “कंठव्य” कहलाते हैं उ.दा. क, ख, ग, घ
* तालु की मदत से होनेवाले उच्चार “तालव्य” कहलाते हैं उ.दा. च, छ, ज, झ
* ‘मूर्धा’ से (कंठ के थोडे उपर का स्थान) होनेवाले उच्चार “मूर्धन्य” हैं उ.दा. ट, ठ, ड, ढ, ण
* दांत की मदत से बोले जानेवाले वर्ण “दंतव्य” हैं उ.दा. त, थ, द, ध, न; औ
* होठों से बोले जानेवाले वर्ण “ओष्ठव्य” कहे जाते हैं उ.दा. प, फ, ब, भ, म
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कंठव्य / ‘क’ वर्ग – क् ख् ग् घ् ङ्
तालव्य / ‘च’ वर्ग – च् छ् ज् झ् ञ्
मूर्धन्य / ‘ट’ वर्ग – ट् ठ् ड् ढ् ण्
दंतव्य / ‘त’ वर्ग – त् थ् द् ध् न्
ओष्ठव्य / ‘प’ वर्ग – प् फ् ब् भ् म्
विशिष्ट व्यंजन - य् व् र् ल् श् ष् स् ह्
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स्वर और व्यंजन के अलावा “ं” (अनुस्वार), और ‘ः’ (विसर्ग) ये दो ‘स्वराश्रित’ कहे जाते हैं, और इनके उच्चार कुछ खास नियमों से चलते हैं जो आगे दिये गये हैं ।
इन 49 वर्णों को छोडकर, और भी कुछ वर्ण सामान्य तौर पे प्रयुक्त होते हैं जैसे कि त्र, क्ष, ज्ञ, श्र इत्यादि । पर ये सब किसी न किसी व्यंजनों के संयोग से बने गये होने से उनका अलग अस्तित्व नहि है; और इन्हें संयुक्त वर्ण भी कहा जा सकता है ।
‘य’, ‘व’, ‘र’, और ‘ल’ ये विशिष्ट वर्ण हैं क्यों कि स्वर-जन्य (स्वरों से बने हुए) हैं, ये अन्तःस्थ व्यञ्जन भी कहे जाते हैं । देखिए:
इ / ई + अ = य (तालव्य)
उ / ऊ + अ = व (दंतव्य तथा ओष्ठव्य)
ऋ / ऋ + अ = र (मूर्धन्य)
लृ / लृ + अ = ल (दंतव्य)
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इनके अलावा ‘श’, ‘ष’, और ‘स’ के उच्चारों में बहुधा अशुद्धि पायी जाती है । इनके उच्चार स्थान अगर ध्यान में रहे, तो उनका उच्चारण काफी हद तक सुधारा जा सकता है ।
श = तालव्य
ष = मूर्धन्य
स = दंतव्य
ह = कण्ठ्य
ये चारों ऊष्म व्यंजन होने से विशिष्ट माने गये हैं ।
पञ्चमाक्षर की गलतियाँ
पञ्चमाक्षरों के नियम का सही ज्ञान न होने से बहुधा लोग इनके आधे अक्षरों की जगह अक्सर 'न्' का ही गलत प्रयोग करते हैं जैसे 'पण्डित' के स्थान पर 'पन्डित', 'विण्डोज़' के स्थान पर 'विन्डोज़', 'चञ्चल' के स्थान पर 'चन्चल' आदि। ये अधिकतर अशुद्धियाँ 'ञ्' तथा 'ण्' के स्थान पर 'न्' के प्रयोग की होती हैं।
नियम: वर्णमाला के हर व्यञ्जन वर्ग के पहले चार वर्णों के पहले यदि अनुस्वार की ध्वनि हो तो उस वर्ग का पाँचवा वर्ण आधा (हलन्त) होकर लगता है। अर्थात कवर्ग (क, ख, ग, घ, ङ) के पहले चार वर्णों से पहले आधा ङ (ङ्), चवर्ग (च, छ, ज, झ, ञ) के पहले चार वर्णों से पहले आधा ञ (ञ्), टवर्ग (ट, ठ, ड, ढ, ण) के पहले चार वर्णों से पहले आधा ण (ण्), तवर्ग (त, थ, द, ध, न) के पहले चार वर्णों से पहले आधा न (न्) तथा पवर्ग (प, फ, ब, भ, म) के पहले चार वर्णों से पहले आधा म (म्) आता है। उदाहरण:
कवर्ग - पङ्कज, गङ्गा
चवर्ग - कुञ्जी, चञ्चल
टवर्ग - विण्डोज़, प्रिण्टर
तवर्ग - कुन्ती, शान्ति
पवर्ग - परम्परा, सम्भव
आधुनिक हिन्दी में पञ्चमाक्षरों के स्थान पर सुविधा हेतु केवल अनुस्वार का भी प्रयोग कर लिया जाता है यद्यपि यह देवनागरी की सुन्दरता को कम करता है। जैसे: पञ्कज - पंकज, शान्ति - शांति, परम्परा - परंपरा। विशेषकर ञ तथा ङ् का प्रयोग काफी कम हो गया है।

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