ब्रसेल्स : बेल्जियम की यह राजधानी यूरोप में इस्लामी आतंकवाद की राजधानी कैसे बन गई?
बेल्जियम की राजधानी ब्रसेल्स में हुए तीन बम धमाकों में 34 लोगों की मौत हो गई है और 100 से ज्यादा के घायल होने की खबर है. धमाके एयरपोर्ट और मेट्रो स्टेशन पर हुए. खबरों के मुताबिक आतंकी संगठन आईएस ने हमले की जिम्मेदारी ली है.
बीते साल 13 नवंबर को पेरिस में भी आईएस का आतंकी हमला हुआ था. इसके एक ही सप्ताह बाद ब्रसेल्स में भी वैसे ही हमलों की गंभीर चेतावनी जारी हुई. वहां लगातार चार दिनों तक जनजीवन ठप रहा. सारे किंडरगार्टन और शिक्षा संस्थान, मेट्रो रेलसेवा और व्यापारिक प्रतिष्ठान बंद रहे. पेरिस वाले हमलों के कम से कम तीन आतंकवादी ब्रसेल्स से ही आए थे. इसलिए फ्रांस में ही नहीं, पूरे यूरोप में कहा जा रहा है कि ब्रसेल्स, बेल्जियम और यूरोपीय संघ की राजधानी तो था ही, अब वह यूरोप में इस्लामी आतंकवाद की भी राजधानी बन गया है.
12 लाख की जनसंख्या वाला यह शहर एक करोड़ 10 लाख की आबादी वाले बेल्जियम में इस्लामी आतंकवाद का केंद्र कैसे बन गया? इसके कई कारण हैं. सबकी नज़र में आने वाला एक कारण तो यही है कि लगभग पूरा शहर पिछले 50-60 वर्षों में विभिन्न देशों से आकर बस गए प्रवासियों के मुहल्लों में बंटा हुआ है. वे मुख्यतः उत्तरी अफ्रीका के अरबी देशों से आए हैं, पर पाकिस्तानी, ईरानी व अफ़गान भी काफ़ी संख्या में मिल जायेंगे.
ब्रसेल्स है या मोरक्को का रबात?
यदि कोई ब्रसेल्स के सिटीसेंटर या नगरकेंद्र से शुरू कर 'बुलेवार लेमोनीयेर' सड़क पर चलते हुए शहर के सबसे बड़े रेलवे स्टेशन 'गार दु मिदी' (ब्रसेल्स साउथ) की तरफ निकल पड़े, तो वह सारे समय उलझन में पड़ा रहेगा. उलझन यह कि मैं ब्रसेल्स में हूं या मोरक्को के रबात जैसे किसी ठेठ मुस्लिम शहर में. 'पॉलिटिकल करेक्टनेस' के चश्मेधारियों को यह विरोधाभास सांस्कृतिक समृद्धि का सतरंगी सब्ज़बाग दिखेगा. लेकिन जो लोग राजनीतिक सहीपन की परवाह नहीं करते, उनकी सहज बुद्धि यही कहेगी कि यह तो परदेस में भी अपने देश की तरह रहने की संकीर्ण मानसिकता है. जिस सभ्यता-संस्कृति के बीच आप स्वेच्छा से आकर कमा-खा रहे हैं, उसके साथ समरस होने से परहेज़ की ढिठाई है.
यूरोप में जहां कहीं भी अरब व इस्लामी जगत से आए लोग बड़ी संख्या में बस गए हैं, वहां उनकी पहली पीढ़ी ही नहीं, बाद वाली पीढ़ियां भी स्थानीय समाज से परे रहना ही पसंद करती हैं. उन्हें लगता है कि स्थानीय समाज में घुलने-मिलने से उनकी अपनी धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान के रंग पर स्थानीय समाज का रंग चढ़ने लगेगा. उन्मुक्त जीवन-शैली और लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था वाला स्थानीय ईसाई समाज उनकी नजर में भोग-विलास और स्वच्छंद स्त्री-पुरुष संबंधों वाला एक 'पतित समाज' है. उचित यही है कि वे उसे दूर से ही सलाम करें.
अपनी अलग मानसिकता और धार्मिक संस्कारों की अक्षुण्णता पर कुछ अधिक ही ज़ोर देने का ही परिणाम है कि बेल्जियम ही नहीं, अन्य यूरोपीय देशों के मूल निवासी भी मुसलमानों से कतराने लगे हैं. दोनों ओर एक-दूसरे के प्रति अविश्वास और पूर्वाग्रह पनपने लगे हैं. ध्रुवीकरण होने लगा है.
बेल्जियम का अनोखापन
देश में मुस्लिम जनसंख्या बढ़ते जाने से अब हर सरकार को दो के बदले तीन बेमेल समुदायों के स्वार्थों से जूझना पड़ता है. शांति, सहिष्णुता और सद्भावना बनाए रखने के नाम पर इस या उस समुदाय की धौंस-धमकी झेलने और तुष्टिकरण के लिए भी तैयार रहना पड़ता है.
बेल्जियम में मुसलमानों का आना 1960 वाले दशक में शुरू हुआ था. वह यूरोप में द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के आर्थिक उत्थान और नवनिर्माण का दशक था. श्रमिकों की भारी कमी थी. इसलिए जर्मनी, फ्रांस, नीदरलैंड इत्यादि ने यूरोप के नजदीकी मुस्लिम देशों से श्रमिक बुलाना शुरू किया. बेल्जियम ने पहले मोरक्को और तुर्की से और बाद में अल्जीरिया व ट्यूनीसिया से भी 1974 तक प्रवासी श्रमिक बुलाए. समय के साथ उन्हें अपने परिवार भी बेल्जियम लाने की छूट दे दी गई
धार्मिक कट्टरता का पहला पाठ मस्जिदों में
1974 में इस्लाम को विधिवत एक ऐसे धर्म के रूप में मान्यता दी गई, जिसे सरकारी अनुदान पाने का अधिकार है. मान्यता प्राप्त इस्लामी संगठनों को हर साल लगभग एक करोड़ डॉलर के बराबर अनुदान मिलते हैं. भारत के मेघालय राज्य से कुछ ही बड़े बेल्जियम में लगभग 350 मस्जिदें हैं, जिनमें से 80 अकेले ब्रसेल्स में हैं. उनके इमाम अधिकतर तुर्की या अरब देशों की सरकारों द्वारा प्रायोजित होते हैं. वे अपने प्रवचनों में क्या उपदेश देते हैं, कुरान की आयतों की क्या व्याख्या करते हैं, इसे देश का अधिकारी वर्ग नहीं जानता. संदेह यही है कि मुस्लिम युवा घर के बाहर धार्मिक कट्टरता का पहला पाठ मस्जिदों में ही पढ़ते हैं.
बेल्जियम में सरकारी स्कूलों के मुस्लिम छात्र इच्छानुसार धर्मशिक्षा प्राप्त कर सकते हैं. मुस्लिम बिरादरी ही शिक्षकों की व्यवस्था करती है और सरकार सारा ख़र्च उठाती है. प्राथमिक स्कूलों के 43 प्रतिशत बच्चे इस्लाम की धर्मशिक्षा चुनते हैं. बेल्जियम कैथलिक संप्रदाय की प्रधानता वाला ईसाई देश है, तब भी केवल 23 प्रतिशत बच्चे कैथलिक धर्मशिक्षा का चयन करते हैं. मुस्लिम परिवारों के बच्चे अधिक पढ़ाई-लिखाई नहीं करते, इसलिए अच्छे काम-धंधे भी प्राप्त नहीं कर पाते. युवाओं के बीच अनुशासनहीनता, अपराधवृत्ति और बेरोज़गारी का औसत बहुत ऊंचा है. अपनी कमियां देखने के बदले अपनी दशा को सामाजिक भेदभाव का रंग देने की प्रवृत्ति उनमें उतनी ही प्रखर है.
ब्रसेल्स में मुसलमानों का बहुमत
इस समय देश का हर दसवां निवासी मुसलमान है. यानी मात्र पांच दशकों में उनका अनुपात शून्य से 10 प्रतिशत हो गया है. राजधानी ब्रसेल्स में तो उनका अनुपात 25 से 35 प्रतिशत के बीच माना जाता है. बेल्जियम के प्रतिष्ठित लोएवन विश्वविद्यालय के एक अध्ययन के अनुसार, जो उसने देश के फ्रेंच दैनिक 'लीब्रे बेल्जीक़' के लिए किया था, अगले 15 से 20 साल में ब्रसेल्स में मुसलमानों का बहुमत हो जाएगा. ब्रसेल्स यूरोपीय संघ के 28 देशों के बीच ऐसा पहला राजधानी-नगर बन जाएगा, जहां देश के मूलनिवासी अल्पसंख्यक रह जायेंगे. इस आशंका से बहुत से मूल निवासी ब्रसेल्स छोड़कर जाने लगे हैं.
ब्रसेल्स और बेल्जियम में ही नहीं, पूरे यूरोप में इस्लामी कट्टरपंथियों, अतिवादियों और आतंकवादियों का अजेय गढ़ बन गया है. यहां तक कि पुलिस भी वहां पैर रखने की हिम्मत नहीं कर पाती. 13 नवंबर 2015 को पेरिस में हुए आतंकवादी हमलों के कम से कम तीन आतंकी इसी उपनगर के रहने वाले थे या वहां छिपे हुए थे. एक तो है पेरिस वाले हमलों का सूत्रधार अब्देलहामिद अबाउद, जो पेरिस में मारा गया. दूसरा है सलाह अब्देसलाम, जो अभी भी पकड़ में नहीं आया है और तीसरे की पहचान अभी तक नहीं हो पाई है. कितने और सुप्त आतंकवादी वहां छिपे हैं, कोई नहीं जानता.
आतंकवादी पैदा करने का लंबा इतिहास
अमेरिका में 2001 वाले हवाई हमले के ठीक दो दिन पहले, 9 सितंबर को, अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की बर्बर सरकार के सबसे प्रबल विरोधी अहमदशाह मसूद की हत्या हो गई थी. हत्यारा अब्देस्सतार दहमान ट्यूनीसियाई था और 14 वर्षों से वह मोलनबेक में ही रह रहा था. सीरिया से वापस लौटे मेहदी नेमौउश ने, मई 2014 में, ब्रसेल्स के यहूदी संग्रहालय में घुस कर चार लोगों की हत्या कर दी थी. नेमौउश फ्रांसीसी नागरिक था, लेकिन मोलनबेक में ही रहता था. 2015 के जनवरी महीने में पेरिस में कार्टून पत्रिका 'शार्ली एब्दो' वाले हत्याकांड के बाद बेल्जियम के वेर्वियेर में सुरक्षाबलों से मुठभेड़ में दो संदिग्ध आतंकवादी मारे गए. वे भी मोलनबेक के ही रहने वाले थे. 13 नवंबर के पेरिस हत्याकांड का सूत्रधार अब्देलहामिद अबाउद तो मोलनबेक में ही पैदा हुआ और वहीं पला-बढ़ा था.
बेल्जियम के जो लगभग 500 जिहादी इस समय सीरियाई-इराकी भूमि पर बने इस्लामी ख़लीफत (आईएस) की ख़िदमत कर रहे हैं, उनमें से 30 मोलनबेक से ही वहां गए हैं. जिहादी बन कर इस्लाम के नाम पर मर-मिटने वालों को मोलनबेक के युवा अपना 'हीरो' मानते हैं. वैसे मोलनबेक में ही नहीं, पूरे अरब-इस्लामी जगत में आजकल यही हवा बह रही है. पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ भी हाल में एक टीवी इंटरव्यू में बड़े गर्व से कह चुके हैं कि ओसामा बिन लादेन, अयमान अल-ज़वाहिरी, हाफ़िज़ सईद जैसे आतंकवादी 'हमारे हीरो' हैं.
'सारी दुनिया पर शरियत का ही राज होगा'
बेल्जियम के इस्लामवादियों के बीच मोरक्कन मूल का 33 वर्षीय फ़ऊद बेल्कासेम भी ऐसा ही एक हीरो है. बेल्जियम में शरियत लागू करवाने के लिए उसने 'शरिया 4बेल्जियम' नामक एक आन्दोलनकारी गिरोह बनाया है. यह आईएस के लिए जिहादी भर्ती करता है. उसके 70 जिहादी आईएस की ज़मीन पर लड़ रहे बताए जाते हैं. बेल्कासेम ने अमेरिकी टेलीविज़न चैनल 'सीबीएन न्यूज़' की एक रिपोर्ट में कहा, 'हमारा विश्वास है कि सारी दुनिया पर शरियत का ही राज होगा. इस्लाम और शरियत के बीच कोई अंतर नहीं है. लोकतंत्र शरियत और इस्लाम का उलट है. अल्लाह ही सारे क़ानूनों का निर्माता है. वही हम से कहता है कि किस बात की अनुमति है और क्या वर्जित है... बेल्जियन समाज तो एक घटिया, पतित समाज है... एक दिन यहां हमारा ही राज होगा.'
देश के धर्मनिरपेक्षी कानूनों का लाभ उठाते हुए 'इस्लाम पार्टी' नाम से एक ऐसी नई राजनीतिक पार्टी भी बन गई है, जिसका घोषित लक्ष्य है बेल्जियम में शरियत लागू करवाना. इस पार्टी के निर्वाचित नेताओं के अधिकार सीमित करने के लिए देश की संसद में फ़रवरी 2013 में एक विधेयक पेश किया गया. उस पर बहस के समय देश के फ्रेंच भाषियों की सबसे बड़ी पार्टी एमआर (रिफॉर्मिस्ट पार्टी) के नेता अलां देस्तेक्स ने आरोप लगाया कि 'मुस्लिम नेता देश में अपना अलग समानांतर समाज बनाने में लगे हैं. वे महिलाओं से हाथ तक मिलाने से मना कर देते हैं... शरियत की आड़ लेकर 12 साल की लड़कियों से शादी करने और उन्हें बुर्का पहनाने की वकालत करते हैं.'
आतंकवादी बनने की शास्त्रीय व्याख्याएं दिमाग़ी उपज
धार्मिक उन्माद पाल कर कर हीरो बनने, परपीड़ा सुख पाने के लिए खून बहाने और लगे हाथ कुछ नाम कमा लेने का चस्का ही वह मूल कारण है, जो बेल्जियम जैसे देशों के मुस्लिम युवाओं को अधकचरी आयु में आतंकवादी बनाता है. यह वास्तव में कोई रचनात्मक काम करने की अपनी अयोग्यता को झुठलाने की प्रवृत्ति है, न कि बेरोज़गारी, अवसरों की कमी या नस्ली भेदभाव जैसी शास्त्रीय व्याख्याएं. ये व्याख्याएं सामाजशास्त्रियों, बुद्धिजीवियों और मीडियकर्मियों की दिमाग़ी उपज हैं. एशिया-अफ्रीका के सभी देशों में, जो मुस्लिम नहीं हैं, उससे कहीं अधिक बेरोज़गारी, अवसरों का अभाव और सामाजिक भेदभाव है, जितना यूरोप में हैं. पर कहीं भी वैसा आतंकवाद नहीं पनप रहा है, जैसा स्वयं अरब-इस्लामी जगत में पनप रहा है और वहां से निर्यात हो रहा है.
बेल्जियम सहित यूरोप के सभी देशों में जो अपमान, तिरस्कार, बेरोज़गारी और ग़रीबी रोमा और सिंती कहलाने वाले भारतवंशी बंजारों को सदियों से सहनी पड़ रही है, वैसी किसी और समुदाय ने कभी नहीं भुगती है. पर वे कभी हथियार नहीं उठाते. किसी की जान नहीं लेते. उनकी भी संख्या सवा करोड़ है. चाहते तो वे भी यूरोप को हिला सकते थे.
इस्लामी आतंकवादी भी दिशाहीन युवा ही बनते हैं, न कि अधेड़ आयु के प्रौढ़. वे अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान या फिर इस्लामी ख़लीफ़त में जाकर आतंकवाद के गुर सीखते हैं, न कि यूरोप में रह कर. यूरोप में इतना ही होता है कि वे धर्म के फेर में मस्जिदों में जाते हैं, गलत यार-दोस्तों या इंटरनेट पर मिलने वाली भड़काऊ वेबसाइटों के संपर्क में आते हैं. अधकचरी आयु और विवेकबुद्धि से पैदल होने से जो कुछ पढ़ते-सुनते हैं, उसी लकीर के फ़कीर बन जाते हैं. मान लेते हैं कि अपने साथ 10-20 और लोगों को भी मौत के घाट उतार देने से उन्हें जन्नत मिल जायेगी. शहीद के तौर पर जय-जयकार होगी. इस्लाम विश्वविजयी बनेगा.
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