Sunday, 20 March 2016

जानिए, क्या था भारत का स्वाभिमानी अतीत 
: Rajiv Dixit

भारत देश का भूतकाल कैसा था, अतीत कैसा था, इसके बारे में मुझे आपसे कुछ बात कहनी है. पूज्य स्वामी जी का उसके लिए निर्देश है. मैं उसके लिए आपके सामने कुछ प्रमाण प्रस्तुत करूंगा, उन प्रमाणों के आधार पर हम सब उस बात का अंदाजा लगा लेंगे, आकलन कर लेंगे की भारत का अतीत कैसा था? 
भारत का एक अतीत तो है जो बहुत पुराना है वेदों के समय का है, वेद कालीन है और वह दसवीं शताब्दी तक चलता है,मैं आपको भारत के उस अतीत के बारे में बात करूंगा जो अभी हाल में हमारे सामने रहा  १५० – २०० साल पहले तक अठारहवीं शताब्दी तक सत्रहवीं शताब्दी तक सोलहवीं शताब्दी तक, पंद्रहवीं शताब्दी तक ... दुनिया भर के ये २०० से ज्यादा विद्वान शोधकर्ता इतिहास के विशेषज्ञ भारत के बारे में क्या कहते रहे है, उसमें से जो  मुख्य है वैसे ८ – १० विशेषज्ञों की बात आपके सामने रखूंगा, और ये सारे विशेषज्ञ भारत से बहार के है कुछ अंग्रेज है, कुछ सकोटीश है, कुछ अमरीकन है कुछ फ्रेंच है, कुछ जर्मन है. ऐसे दुनिया के अलग अलग देशों के विशेषज्ञों ने भारत के बारे में जो कुछ कहा है, लिखा है और उसके जो प्रमाण दिए है उन पर बात मुझे कहनी है।
थामस बेव मैकाले, टी. बी. मैकाले जिसको हम कहते है. ये भारत में आया करीब १७ वर्ष देश में रहा सबसे ज्यादा जो अंग्रेज अधिकारी इस भारत में रहें उनमें से इसकी गिनती होती है मैकाले की और जब वह भारत में रहा तो भारत का काफी उसने प्रवास किया, यात्रा  की, उत्तर भारत में गया, दक्षिण भारत में गया, पूर्वी भारत में गया पश्चिमी भारत में गया और अपने सत्रह साल के भारत के प्रवास के बाद वह इंग्लैंड गया और इंग्लैंड की पार्लियामेंट में हाउस ऑफ कॉमन्स उसने इक लम्बा भाषण दिया  “आई हेव ट्रावेल्ड लेंथ एंड ब्रेथ ऑफ दिस कंट्री इंडिया बट आई हेव नेवर सीन ए बेगर एंड थीफ इन दिस कंट्री इंडिया”. इसका मतलब क्या है ?  

वह ये कह रहा है की मैं सम्पूर्ण भारत में प्रवास कर चूका हु, उत्तर से दक्षिण, पूरब से पश्चिम में मैं जा चूका हु, लेकिन मैंने कभी भी अपनी आँखों से भारत में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं देखा – जो चोर हो, एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं देखा – जो बेरोजगार हो, एक भी व्यक्ति मैंने ऐसा नहीं देखा – जो गरीब हो, ये बात आप ध्यान दीजिएगा, वह २ फरवरी सन १८३५ को कह रहा है माने आज से अगर ये हम जोड़ेंगे तो लगभग १६०, १७० साल पहले वह ये बोल रहा है, कि एक भी व्यक्ति भारत में गरीब नहीं है, बेरोजगार नहीं है, चोर नहीं है. वह यह कह रहा है इसका माने की भारत में गरीबी नहीं थी बेरोजगारी नहीं थी और चोरी कोई क्यों करेगा जब कोई गरीब नहीं है, बेरोजगार नहीं है, फिर आगे के वाक्य में वह और बड़ी बात कह रहा है वह कह रहा है “आई हवे सीन सच वेल्थ इन दिस कंट्री इंडिया देट वी कैन नोट इमेजिन टू कोंक्वेर्ड टू दिस कंट्री इंडिया. वह कहता है की भारत में इतना धन और इतनी संपत्ति और इतना वैभव मैंने देखा है कि इन भारतवासियों को गुलाम बनाना बहुत मुश्किल काम है. ये आसन नहीं है.
इसी भाषण के अंत में मैकाले एक वाक्य और कहता है उसको मैं सीधे सुनाता हु, वह कहता है कि भारत में जिस व्यक्ति के घर में भी मैं कभी गया तो मैंने देखा कि वहां सोने के सिक्कों का ढेर ऐसे लगा रहता है जैसे की चने का या गेहूँ का ढेर किसानों के घरों में रखा जाता है माने सामान्य घरों से ले कर विशिष्ट घरों तक सबके पास सोने के सिक्के इतनी अधिक मात्रा में होते है कि वह ढेर लगा कर उन सिक्को को रखते है. और वह कह रहा है कि भारतवासी कभी इन सिक्कों को गिन नहीं पाते क्योंकि गिनने की फुर्सत नहीं होती है इसलिए वह तराजू में तोल कर रखते है. किसी के घर में १०० किलो सोना होता है किसी के घर में २०० किलो होता है किसी के घर में ५०० किलो होता है इस तरह से सोने का हमारे भारत के घरों में भंडार भरा हुआ है, ये एक प्रमाण मैकाले का भाषण ब्रिटेन की संसद में २ फरवरी १८३५ को.
इसके बाद इससे भी बड़ा एक दूसरा प्रमाण मैं आपको देता हु, एक अंग्रेज इतिहासकार हुआ उसका नाम है विलियम डिग्बी,  ना सिर्फ अंग्रेज इसका सन्मान करते है इज्जत करते है बल्कि  यूरोप के सभी देशों में विलियम डिग्बी का बहुत सन्मान है बहुत इज्जत है, अमरीका में भी इसकी बहुत सन्मान और बहुत इज्जत है कारण क्या है, विलियम डिग्बी के बारे में कहा जाता है की वह बिना प्रमाण के कोई बात नहीं कहता और बिना दस्तावेज के बिना सबूत के वह कुछ लिखता नहीं है. इसलिए इसकी इज्जत पूरे यूरोप और अमरीका में है.वह विलियम डिग्बी भारत के बारे में एक बड़ी पुस्तक लिखा है उस पुस्तक का एक थोड़ा सा अंश मैं सुनाता हु विलियम डिग्बी कहता है की अंग्रेजो के पहले का भारत विश्व का सर्व सम्पन्न कृषि प्रधान देश ही नहीं बल्कि ये सर्वश्रेष्ठ औद्योगिक और व्यापारिक देश भी था उसके शब्द पर गौर कीजिएगा वह कह रहा है सर्वश्रेष्ठ माने दुनिया में भारत के मुकाबले उस ज़माने में कोई भी देश नहीं था.भारत की भूमि इतनी उपजाऊ है जितनी दुनिया के किसी देश में नहीं फिर आगे कहता है  कि भारत के व्यापारी इतने ज्यादा होशियार है जो दुनिया के किसी देश में नहीं फिर वह आगे कहता है की भारत जो के कारीगर हाथ से जो कपड़ा बनाते है उनका बनाया हुआ कपड़ा रेशम का तथा अन्य कई वस्तुए पूरे विश्व के बाजार में बिक रही है और इन वस्तुओ को भारत के व्यापारी जब बेचते है तो बदले में इन वस्तुओ के वह सोना और चांदी की मांग करते है जो सारी दुनिया के दूसरे व्यापारी आसानी के साथ भारतवासिओ के व्यापारियो को दे देते है.सोने के बदले में ही भारत के व्यापारी इन वस्तुओ का विनिमय दूसरों से करते है. क्योंकि ये वस्तुए सर्वश्रेष्ठ है और दुनिया में कोई भी दूसरा देश इनको बना नहीं सकता क्यों की इसकी कारीगरी और इनका हुनर सिर्फ भारत और भारत के ही पास है. फिर वह इसी में आगे कहता है कि भारत देश में इन वस्तुओ की उत्पादन के बाद की जो बिक्री की जो प्रक्रिया है वह दुनिया के दूसरे बाज़ारों पर निर्भर है.और ये वस्तुए जब दूसरे देशों के बाज़ारों में जब बिकती है तब भारत में सोना और चांदी ऐसे प्रवाहित होता है जैसे नदियों में पानी प्रवाहित होता है. और भारत की नदियों में पानी प्रवाहित हो कर जैसे महासागर में गिर जाता है वैसे ही दुनिया की तमाम नदियों का सोना चांदी भारत में प्रवाहित हो कर भारत के महासागर में आकर गिर जाता है. और वह अपनी पुस्तक में कहता है कि दुनिया के देशों का सोना चांदी भारत में आता तो है लेकिन भारत के बाहर १ ग्राम सोना और चांदी कभी जाता नहीं है. कारण क्या है ? वह कहता है की भारतवासी दुनिया में सारी वस्तुओ का उत्पादन करते है लेकिन वह कभी किसी से खरीदते कुछ नहीं है. मतलब सीधा सा ये है कि भारत आयात कुछ नहीं करता है इम्पोर्ट कुछ नहीं करता है जो भी कुछ है भारत वह सिर्फ एक्सपोर्ट और एक्सपोर्ट और निर्यात ही निर्यात करता है. इसका मतलब बहुत साफ है कि आज से ३०० साल पहले का भारत निर्यात प्रधान देश था एक भी वस्तु हम विदेशों से नहीं खरीदते थे. और वस्तुओ को बेच कर हम सोना चांदी सारी दुनिया से ले कर आते थे.
विलियम डिग्बी जैसा एक बड़ा इतिहासकार हुआ वह फ़्रांस का हुआ उसका नाम है फ्रांस्वा पेरार्ड. फ्रांस्वा पेरार्ड ने १७११ में भारत के बारे में एक बहुत बड़ा ग्रंथ लिखा है. और उसमें उसने सेकड़ो प्रमाण दिए है. उस ग्रंथ में से एक छोटा सा प्रमाण मैं आपको प्रस्तुत करना चाहता हु. फ्रांस्वा पेरार्ड  अपनी पुस्तक में कहता है कि भारत देश में मेरी जानकारी में ३६ तरह के ऐसे उद्योग चलते है जिसमे उत्पादित होनेवाली हर वस्तु विदेशों में निर्यात होती है फिर वह आगे लिखता है कि भारत के सभी शिल्प एवं उद्योग उत्पादन में सबसे उत्कृष्ट, कलापूर्ण और कीमत में सबसे सस्ते है. सोना, चांदी, लोहा, इस्पात, तम्बा अन्य धातुए जवाहरात लकड़ी के सामान मूल्यवान दुर्लभ प्रदार्थ ये सब इतनी ज्यादा विविधता के साथ भारत में बनती है जिनके वर्णन का कोई अंत नहीं हो सकता.
फिर उसके बाद एक स्कोटिश है, जिसका नाम है मार्टिन वह इतिहास की पुस्तक में भारत के बारे में कहता है, की  ब्रिटेन के निवासी, इंग्लैंड के निवासी जब बर्बर और जंगली जानवरों की तरह से जीवन बिताते रहे तब भारत में दुनिया का सबसे बेहतरीन कपड़ा बनता था और सारी दुनिया के देशों में बिकता था. और ये मार्टिन नाम का जो स्कोटिश हिस्टोरियन है ये कहता है कि मुझे ये स्वीकार करने में कोई शर्म नहीं है की भारतवासियों ने सारी दुनिया को कपड़ा बनाना और कपड़ा पहनना सिखाया है. और वह कहता है हम अंग्रेजो ने और अंग्रेजो के सहयोगी जातियों के लोगों ने भारत से ही कपड़ा बनाना सीखा है और पहनना भी सीखा है. फिर वह कहता है कि रोमन साम्राज्य में जितने भी राजा और रानी हुए है वह सभी भारत से कपड़े मँगवाते रहे है पहनते रहे है और उन्हीं से उनका जीवन चलता रहा है.
एक फ़्रांसीसी इतिहासकार है १७५० में उसका नाम है टेवोर्निस वह क्या कह रहा है वह कह रहा है भारत के वस्त्र इतने सुन्दर और इतने हल्के है कि हाथ पर रखो तो पता ही नहीं चलता कि उसका वजन कितना है. सूत की महीन कताई मुश्किल से नजर आती है, भारत में कालीकट, ढाका, सूरत, मालवा में इतना महीन कपड़ा बनता है कि पहनने वाले का शरीर ऐसा दिखता है कि मनो वह एकदम नग्न है, माने कपड़े की बुनाई इतनी बारीक़ है कि अन्दर का शरीर भी उसमे से दिखाई देता है. वह कहता है इतनी अदभुत बुनाई भारत के कारीगर जो हाथ से कर सकते है वह दुनिया के किसी भी देश में कल्पना करना संभव नहीं है.
 आपने बहूत बार इतिहास में एक वाक्य सुना होगा कि भारत में बनाया हुआ कपड़ा एक छोटे से अंगूठी से रिंग में से खिंच कर बाहर निकला जा सकता था.वो १३ – १४ मीटर का लम्बा थान होता था. वो वाक्य इसी इतिहासकार ने लिखा है जिसका नाम है विलियम बांड, फिर वो कहता है  चोदह मीटर लम्बा थान या १५ गज का लम्बा थान  उसका वजन सौ ग्राम से भी कम होता है. अब आप कल्पना करिए १५ गज का इतना बड़ा थान उसका वजन सौ ग्राम से भी कम होता है, वो कह रहा है कि मैंने बार बार भारत के कई थानों का वजन किया है हर एक थान का वजन सौ ग्राम से भी कम निकलता है. और कुछ थान का वजन तो ग्रेन में उसने तौला है, ग्रेन एकअंग्रेजी इकाई है. जैसे सुनार सोने को तौलता है  जो १० ग्राम की होती है और एक तौल १० ग्राम से भी कम की होती हैजिसको रत्ती कहते है रत्ती, तो रत्ती १० ग्राम से भी छोटी होती है. तो वो विलियम बांड ये कह रहा है कि भारत के बहूत सारे थानों को मैंने तौला तो पता चला कि उनका कुल वजन लगभग १५ से २० रत्ती के आसपास है इतने कम वजन के भी कपड़े भारत में बनते है. और इतनी बारीक़ बुनाई भी होती है और कहता है विलियम बांड कि अंग्रेजो ने तो कपड़ा बनाना सन १७८० के बाद शुरु किया है भारत में तो पिछले ३००० साल से कपड़े का उत्पादन होता रहा है और सारी दुनिया में बिकता रहा है.
थॉमस मुनरो नाम का एक अंग्रेज अधिकारी है वो मद्रास में गवर्नर रहा है,  गवर्नर रहते समय किसी राजा ने उसको एक शाल भेंट में दे दिया और जब उसकी नौकरी पूरी हो गयी थॉमस मुनरो की तो वो भारत से वापस लंदन चला गया. लंदन की संसद में उसने एक दिन अपना बयान दिया सन १८१३ में और वो कह रहा है कि भारत से मै एक शाल ले के आया, उस शाल को मै सात वर्षो से उपयोग कर रहा हु, उसको कई बार धोया है और प्रयोग किया है उसके बाद भी उसकी क्वालिटी एकदम बरक़रार है और उसमे कहीं कोई सिकुडन नहीं है, मैंने पुरे यूरोप में प्रवास किया है एक भी देश ऐसा नहीं है जो भारत की ऐसी क्वालिटी की शाल बना कर दे सके. भारत ने अपने वस्त्र उद्योग में सारी दुनिया का दिल जीत लिया है. भारत के वस्त्र अतुलित और अनुपमेय मानदंड के है, जिसमे सारे भारतवासी रोजगार पा रहे है और इस तरह से लगभग २०० इतिहासकार है सभी का बताना थोड़ा मुश्किल है.आप अंदाजा लगा सकते है कि फ़्रांसिसी इतिहासकार हो तो, स्कोटिश इतिहासकार हो तो, अंग्रेज इतिहासकार हो तो या इसके अलावा जर्मन का कोई या अमेरिका का कोई सारे इतिहासकार जो भारत के बारे में शोध करते है वो ये कहते है कि भारत के उद्योगों का और भारत की कृषि व्यवस्था का भारत के व्यापार  का सारी दुनिया में कोई मुकाबला नहीं है.
अंग्रेजो की संसद में बहस हो रही है कि भाई भारत की आर्थिक स्थिति  के बारे में कहा जा रहा है कि सारी दुनिया में जो कुल उत्पादन होता है उसका ४३ प्रतिशत  उत्पादन अकेले भारत में होता है. ये आंकड़ा सबसे पहली बार अंग्रेजो की संसद में सन १८१३ में कोट किया गया बाद में इसी आंकड़े को अंग्रेजो ने १८३५ में quote कोट किया और १८४० में भी कोट किया 



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