Wednesday 23 March 2016

‘कोई व्यक्ति देशभक्त कैसे बन सकता है?’

गुजराती राजनेता और लेखक केएम मुंशी ने 1905 में अरबिंदो घोष से एक सवाल पूछा था – ‘कोई व्यक्ति देशभक्त कैसे बन सकता है?’ तकरीबन एक शताब्दी बाद आज यह सवाल और इसका जवाब काफी महत्वपूर्ण हो गए हैं. भारत में हिंदू राष्ट्रवाद के जनक समझे जानेवाले व्यक्तियों में से एक घोष ने दीवार पर टंगे ब्रितानी भारत के मानचित्र की ओर इशारा करते हुए मुंशी से कहा – ‘क्या तुम यह मानचित्र देख रहे हो? यह मानचित्र नहीं है बल्कि भारत माता का चित्र है : इसके शहर, पर्वत, नदियां और जंगल माता के भौतिक शरीर का निर्माण करते हैं. सभी बच्चे उसकी छोटी-बड़ी शिराएं हैं... भारत को एक जीती-जागती मां के स्वरूप में समझा जाए... उसकी नव-विधा (नौ प्रकार से) भक्ति की जाए.’
अरबिंदो घोष ने 1905 में कहा था कि भारत माता की नवविधा भक्ति होनी चाहिए. यह तथ्य बताता है कि भारत माता का विचार बीज उसी समय बोया गया था
यह सवाल-जवाब महाराष्ट्र विधानसभा में परसों हुई घटना से भी जुड़ता है
बीते बुधवार को महाराष्ट्र विधानसभा में तीखी बहसबाजी चल रही थी. इसी दौरान भाजपा विधायक राम कदम ने मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एमआईएम) के विधायक वारिस पठान को भारत माता की जय बोलने के लिए कहा. एमआईएम का हैदराबाद में तगड़ा जनाधार है और मुसलमान इसका मुख्य वोटबैंक है. मुसलमानों के एक बड़े तबके का मानना है कि ‘भारत माता’ नाम की किसी देवी की जय बोलना एकेश्वरवादी इस्लाम की धार्मिक मान्यता के खिलाफ है. उस दिन वारिस पठान ने यह नारा लगाने से इनकार कर दिया.
विधानसभा में चल रही भारी उठा-पठक के बीच सदन के तमाम सदस्य इस मुद्दे पर अचानक एकसुर हो गए. भारतीय जनता पार्टी, शिवसेना, कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के विधायकों ने विधानसभा अध्यक्ष से मांग की कि पठान को तुरंत सदन से निलंबित कर दिया जाए. यह मांग तत्काल मान ली गई. ‘भारत माता की जय’ न बोलने पर पठान को बजट सत्र की शेष अवधि के लिए निलंबित कर दिया गया.
अरबिंदो ने 1905 में ही कहा था कि भारत माता की नवविधा भक्ति होनी चाहिए. यह तथ्य बताता है कि भारत माता का विचार बीज उसी समय बोया गया था. लेकिन 2016 में एक मुसलमान विधायक को भारत माता की जय न बोलने पर सदन से निलंबित किया जाना बताता है कि इस समय यह लोकप्रिय हिंदू राष्ट्रवाद कहां तक आ पहुंचा है.
अविंद्रनाथ टैगोर, जो रविंद्रनाथ टैगोर के भतीजे थे और जिन्हें आधुनिक भारतीय चित्रकला का जनक माना जाता है, ने 1905 में भारत माता का पहला चित्र बनाया था
भारत माता के विचार की जड़ें बंगाल से निकली हैं
धरती को माता की तरह पूजना हिंदू धर्म का अभिन्न हिस्सा रहा है. लेकिन राष्ट्र को देवी मां मानने की आधुनिक अवधारणा सबसे पहले बंगाल में स्थापित हुई. भारत के इस हिस्से में शक्ति पूजा का चलन रहा है. काली मां, दुर्गा मां, मनसा देवी, चंडी देवी आदि उन देवियों के नाम हैं जिनकी यहां खूब धार्मिक मान्यता है. जन्मभूमि को देवी के रूप में निरूपित करने का शुरुआती मौलिक विचार हमें बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास आनंद मठ में मिलता है. इस किताब को बंगाली साहित्य और राजनीतिक दर्शन का बीजग्रंथ कहा जा सकता है.
समाज विज्ञानी कार्ल ओल्सन इस बारे में लिखते हैं : ‘हालांकि यह पहली बार नहीं था कि किसी लेखक ने मां को राजनीतिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किया हो, लेकिन बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय (1838-94) ने भारत माता को पूर्ण रूप से हिंदू देवी में रूपांतरित कर दिया और उस भारत का प्रतीक बना दिया जो तब मुश्किल दौर में था; जिसके बच्चे उसकी पीड़ा के प्रति उदासीन थे और उन्हें उसकी बुरी स्थिति को समझने और उससे छुटकारा दिलाने के लिए जागृत करने की जरूरत थी. 1857 में बंकिमचंद्रने एक सौम्य लगने वाली देवी के लिए वंदे मातरम गीत की रचना की थी. यह गीत बाद में अंग्रेजीराज से मुक्ति के संघर्ष में भारतीय राष्ट्रवादियों का गीत बन गया.’
हिंदू राष्ट्रवाद का बुनियादी स्वरूप गढ़ने में आनंद मठ का बहुत योगदान है. इस उपन्यास में जो मुख्य खलनायक हैं वे मुसलमान हैं जिन्होंने भारत पर शासन किया है. उपन्यास में भारत माता की छवि दस हाथों वाली देवी की है जो संगमरमर से बने मंदिर में स्थापित हैं. यहां वंदे मातरम देवी दुर्गा की आरती है. इसपर रविंद्रनाथ टैगोर ने लिखा है कि बंकिमचंद्र अंत में जोर देकर यह दिखाते हैं कि दुर्गा और बंगाल में ऐसा एका है कि इन्हें अलग नहीं किया जा सकता.
देशों को स्त्रीरूप में प्रस्तुत करना सिर्फ भारत में ही नहीं हुआ. इतिहासकार एरिक होब्सवाम के मुताबिक मेक्सिको की वर्जिन ऑफ गुआडालुपे और कैटेलेनिया की वर्जिन ऑफ मोंसेराट भी इसी विचार से जन्मी देवियां हैं
आम जनता के बीच भारत माता का प्रचार
स्वदेसी आंदोलन और 1905 में बंगाल के विभाजन को रद्द करवाने के लिए हुए आंदोलनों के प्रचार में भारत और बंगाल को देवी मानने का विचार इस्तेमाल किया गया था. जनमानस में इसके जड़ें जमाने के साथ ही वंदे मातरम गीत भी उस समय काफी लोकप्रिय हुआ. अविंद्रनाथ टैगोर, जो रविंद्रनाथ टैगोर के भतीजे थे और जिन्हें आधुनिक भारतीय चित्रकला का जनक माना जाता है, ने 1905 में भारत माता का पहला चित्र बनाया था. शायद यह पहली बार था जब किसी ने भारत माता का चित्र बनाया. स्वदेसी आंदोलन के दौरान इस इस चित्र को खूब छापा गया और आंदोलन के प्रचार के लिए इस्तेमाल किया गया.
राष्ट्रवाद और दैवीय शक्ति के इस मेल ने स्वतंत्रता आंदोलन के हिंसक स्वरूपों को काफी बढ़ावा दिया. अनुशीलन समिति जो उपनिवेशवादी ताकतों के खिलाफ हिंसा को जायज मानती थी, के लिए आनंद मठ एक महत्वपूर्ण प्रेरक किताब रही. समिति के जो दीक्षा कार्यक्रम होते थे उनमें देवी दुर्गा की प्रतिमा के सामने शस्त्र पूजा की जाती थी. समिति के बड़े तबके ने मुसलमानों को इसमें शामिल करने पर पाबंदी लगाई हुई थी (हालांकि इस समूह के स्पष्ट हिंदू धार्मिक झुकाव के चलते इसमें मुसलमानों के शामिल होने का कोई सवाल ही नहीं था).
अरबिंदो घोष समिति के संस्थापक सदस्यों में से थे. उन्हें 1908 में राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. जेल में रहते हुए घोष का हृदय परिवर्तन हो गया. वे रहस्यवादी बन गए और पांडिचेरी को अपना ठिकाना बना लिया जहां उन्होंने अपना एक आश्रम खोला.
1937 में रविंद्रनाथ टैगोर ने तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सुभाषचंद्र बोस को पत्र लिखकर दलीलें दी थीं कि अपने धार्मिक झुकाव की वजह से वंदे मातरम को भारत का राष्ट्रगान नहीं बनाया जा सकता
सांप्रदायिक बंटवारे की शुरुआत
देशों को स्त्रीरूप में प्रस्तुत करना सिर्फ भारत में ही नहीं हुआ. इतिहासकार एरिक होब्सवाम के मुताबिक मेक्सिको की वर्जिन ऑफ गुआडालुपे और कैटेलेनिया की वर्जिन ऑफ मोंसेराट भी इसी विचार से जन्मी देवियां हैं. एरिक बताते हैं कि किसी देश को इन ‘पवित्र प्रतीकों’ के रूप में देखने और भावनात्मक रूप से महसूस करना जनता में एकता की भावना मजबूत करने मदद करता है.
लेकिन भारत में धर्मसत्ता की तरह भारत माता की छवि ने सांप्रदायिक एकता की जगह भेद पैदा किया है. समय-समय पर इसको रोकने की भी कोशिशें हुईं. 1937 में रविंद्रनाथ टैगोर ने तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सुभाषचंद्र बोस को पत्र लिखकर दलीलें दी थीं कि अपने धार्मिक झुकाव की वजह से वंदे मातरम को भारत का राष्ट्रगान नहीं बनाया जा सकता. इस पत्र में टैगोर लिखते हैं, ‘वंदे मातरम मूल रूप से देवी दुर्गा की आरती है : यह इतनी स्पष्ट बात है कि इसपर कोई तर्क-वितर्क नहीं हो सकता... किसी भी मुसलमान से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि देशभक्ति के लिए वह स्वदेश के रूप दर्शाई गई दस-भुजाधारी देवी की पूजा करे... आनंद मठ एक साहित्यक कृति है और इसलिए उसमें यह गीत उचित है. लेकिन संसद सभी धार्मिक समूहों के मिलने का स्थान है और इसलिए यह गीत उचित नहीं हो सकता...’
कांग्रेस ने टैगोर के इस विचार से सहमत होते हुए वंदे मातरम के उस हिस्से को हटा दिया जिसमें देवी दुर्गा की सीधी तुलना देश से की गई थी.
विनायक सावरकर की भूमिका
उस दौर में कुछ राजनीतिक विचारधाराओं को यह बात स्वीकार्य नहीं थी. वे देश को हिंदू देवत्व से जोड़ने वाली बंकिमचंद्र की परंपरा को फिर से वापस लाने की कोशिश में थीं. विनायक सावरकर इस विचार के प्रमुख समर्थकों में से थे. सावरकर भी अरविंदो घोष की तरह एक समय हिंसक क्रांति के समर्थक हुआ करते थे. अंग्रेजों ने घोष की तरह उन्हें भी जेल भेजा. यहां से निकलने के बाद वे भी एक बदले हुए व्यक्ति थे जिसे अब अंग्रेजों के खिलाफ हिंसा से परहेज था.
सावरकर के बारे में एक दिलचस्प बात यह है कि वे खुद नास्तिक थे लेकिन ‘हिंद’ को धन-धान्य से परिपूर्ण ईश्वर की पुत्री मानते थे
सावरकर ने 1923 में एक किताब लिखी थी– हिंदुत्व. इसमें उन्होंने धार्मिक पहचान के आधार पर राष्ट्रवाद के विकास की रूपरेखा बनाई थी. भारतभूमि को पवित्र मानते हुए उनकी राष्ट्रीयता की परिभाषा में वे धार्मिक समूह शामिल थे जिनकी मुख्य पूजा स्थली भारतीय प्रायद्वीप में स्थित हो. इस्लाम और ईसाई जैसे धर्म जो मध्य-पूर्व में पैदा हुए, वे गैरभारतीय थे. सावरकर के बारे में एक दिलचस्प बात यह है कि वे खुद नास्तिक थे लेकिन ‘हिंद’ को धन-धान्य से परिपूर्ण ईश्वर की पुत्री मानते थे.
उसके बाद से हिंदुत्व बंकिमचंद्र के भारत माता का विचार अपनाकर इसे और बड़े स्तर पर स्थापित कर चुका है. आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हर कार्यक्रम में भारत माता की चमकती तस्वीर सजी होती है जिसके हाथ में तिरंगे की जगह भगवा झंडा होता है. भारत माता देवी दुर्गा के वाहन माने जाने वाले सिंह पर सवार दिखाई जाती हैं.
भारत माता के मंदिर
धर्म आधारित राजनीति के अलावा भारत माता को देवी के रूप में मंदिरों में भी स्थापित किया गया है. बनारस में 1936 में एक मंदिर बनाया गया था जहां देवी को एक ब्रितानी-भारत के एक उभारदार नक्शे (जिसमें पहाड़, नदी आदि को उभारकर दिखाया जाता है) की तरह दिखाया गया था. बनारस के अलावा महाराष्ट्र के दौलताबाद किले में भी एक भारत माता मंदिर है. हरिद्वार में 1983 में भारत माता मंदिर बना था और इसका उद्घाटन इंदिरा गांधी ने किया था.
महाराष्ट्र विधानसभा में एक विधायक को भारत माता की जय न बोलने पर निलंबित करने की घटना बताती है कि हिंदुत्व के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में भारत माता किस तरह एक ताकतवर प्रतीक है
हिंदू राष्ट्र और भारत माता
विधानसभा से निलंबन के बाद एमआईएम के विधायक वारिस पठान ने सफाई देते हुए कहा था, ‘मैं जय हिंद कहने को तैयार हूं. मैं अपने देश से प्यार करता हूं लेकिन मेरी आपत्ति बस इस बात पर थी कि वे मुझसे जबर्दस्ती भारत माता की जय बुलवाना चाहते थे.’
इस पूरे घटनाक्रम को देखें तो इस बात के कोई विशेष मायने नहीं हैं कि वारिस पठान खुद को देशभक्त मानते हैं या नहीं. देशभक्ति को तय करना दरअसल एक बेहूदा विचार है. लेकिन यह पूरा प्रकरण यह जरूर दिखाता है कि हिंदुत्व के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में भारत माता किस तरह एक ताकतवर प्रतीक है. यह सिर्फ एक हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना को ही और मजबूत नहीं करता बल्कि मुसलमान को भी उस समुदाय के तौर पर पेश करता है जो इस तरह की देशभक्ति का हिस्सा बनने लायक नहीं है.
तीन मार्च को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने यह कहकर राजनीतिक विवाद खड़ा कर दिया था कि अब नई पीढ़ी को भारत माता की जय कहने के लिए भी बोलना पड़ता है और यह दुर्भाग्य की बात है कि उन्हें युवाओं को राष्ट्र वाद सिखाना पड़ रहा है. धार्मिक सत्ता वाला हिंदू राष्ट्र हमेशा से संघ का लक्ष्य रहा है. बंकिमचंद्र ने जो बुनियाद रखी थी, इस समय ऐसा लग रहा है कि संघ ‘भारत माता’ का इस्तेमाल और इसमें छिपे संदेश के जरिए उस बुनियाद पर ‘हिंदू राष्ट्र’ की इमारत खड़ी करना चाहता है.

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