Sunday, 17 April 2016

देवनागरी लिपि

देवनागरी लिपि का जन्मदाता कोई एक व्यक्ति नहीं था। इसका विकास भारत की प्राचीन लिपि ब्राहमी से हुआ। ब्राहमी की दो शाखाएँ थीं, उत्तरी और दक्षिणी। देवनागरी का विकास उत्तरी शाखा वाली लिपियों से हुआ, माना जाता है। ब्राहमी की उत्तरी शाखा से गुप्तवंशीय राजाओं के काल में, यानी चौथी पाँचवी शताब्दी में, जिस गुप्तलिपि का विकास हुआ, उसके अक्षरों का लेखन एक विशेष टेढ़े या कुटिल ढंग से किया जाता था, जिससे आगे चलकर कुटिल लिपि का जन्म हुआ।
विद्वानों और भाषा वैज्ञानिकों के मत में नवीं शताब्दी के अंतिम चरण में इसी कुटिल लिपि से देवनागरी का विकास हुआ। जहाँ तक देवनागरी नाम का सवाल है उसे लेकर विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ इसे नागर अपभ्रंश से जोड़ते हैं और कुछ इसके प्राचीन दक्षिणी नाम नंदिनागरी से। यह भी संभव है कि नागर जन द्वारा प्रयुक्त होने के कारण इसका नाम नागरी पड़ा और देवभाषा यानी संस्कृत के लिए अपनाई जाने के कारण इसे देवनागरी कहा जाने लगा।
बरेली का कुटिल अभिलेख कुटिल लिपि में लिखा गया है। इस शिलालेख पर विक्रम संवत 1049 की तिथि अंकित है जो की जुलियन कैलंडर के हिसाब से 992 CE होती है। आगरा के पास मिले इस शिलालेख में ये भी बताया गया है की इसे कन्नौज के एक कुटिल लिपि के विद्वान द्वारा बनाया गया था। इसी कुटिल लिपि से आगे चल कर देवनागरी का जन्म हुआ। कुटिल का संस्कृत अर्थ मुड़ा हुआ होता है, अक्षरों के गोल मुड़े हुए होने के कारण शायद ये नाम इस्तेमाल किया गया।
देवनागरी की विशेषताएँ
• इसे लिखने के तरीके में शब्दों को अलग करने के लिए इस्तेमाल होने वाली Line. इसके कारण इसे विदेशी विद्वानों ने “hanging on the line” भी बुलाया था।
• लिखने की दिशा बायीं तरफ से शुरू होकर दाहिनी तरफ जाना।
• मात्रा लगाकर Consonant अक्षरों के उच्चारण में Vowel के उच्चारण को बढ़ाया या घटाया जा सकता है।
• Vovels को अलग अक्षरों की तरह भी लिखा जा सकता है, मात्रा की तरह इस्तेमाल होते समय इनके चिन्ह प्रयोग किए जाते हैं। (वैसे ये दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया की कई भाषाओँ में होता है।)
• दो अक्षरों को मिलाने की विशेष विधियाँ।
• वर्णमाला में अक्षरों का क्रम Articulatory phonetics पर आधारित है।
इस लिपि का इस्तेमाल अवधी, भोजपुरी, हिंदी, कश्मीरी, कोंकणी, कुरुख, मैथिली, मराठी, मारवाड़ी, मुंदरी, नेपाली, नेवारी, पाली, राजस्थानी, संस्कृत, सरैकी, सिंधी, सुनुवार, स्य्ल्हेती जैसी कई भाषाओँ को लिखने में किया जाता है।
इसमें कुछ अक्षरों को लिखने के दो तरीके नजर आते हैं। 1870 के दशक में जब संस्कृत की किताबें छापने के लिए देवनागरी का इस्तेमाल शुरू हुआ तो Classical या उत्तरी और कालीकाता रूप का इस्तेमाल शुरू हुआ। आज दक्षिणी या मुंबई रूप का इस्तेमाल ज्यादा होता है। भाषा को कंप्यूटर में समायोजित करने के लिए और एक सर्वमान्य रूप देने के लिए देवनागरी के दक्षिणी रूप का ही प्रयोग होता है।
अक्सर ‘अ’ जैसे उच्चारण के लिए रोमन लिपियों में schwa ('ə') का इस्तेमाल होता है। लगभग हरेक Consonant स्वर के अंत में ये जुड़ा हुआ पाया जाता है। इसके उच्चारण को खत्म करने के लिए देवनागरी में हलन्त् का इस्तेमाल किया जाता है। विदेशी विद्वान अक्सर इसे ‘the killer stroke’ भी कहते हैं। यहाँ ‘हलन्त्’ शब्द में ‘त’ के नीचे और ‘विद्वान’ में ‘आधे द’ के उच्चारण के लिए ‘द’ में हलन्त् लगा है।
इस लिपि में Consonants को एक दूसरे से मिलकर करीब 1000 अलग अलग स्वर बनाए जा सकते हैं। कुछ एक बार तो चार या पाँच Consonants को मिला कर स्वर बनाए जाते हैं। कई अक्षरों का मेल देखें तो संख्या लाखों में पहुँचेगी।






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