Monday, 4 April 2016

“आर्यों का आदि देश भारत”

भारत पर आर्यों के आक्रमण का सिद्धांत ब्रिटिश साम्राज्यवादी षड्यंत्र था
"आर्य जाती" का अविष्कार १८५० के दशक में अंग्रेज सैनिक कनिंघम ने किया था जो भारतीय पुरातत्व विभाग का प्रथम अध्यक्ष था. उसके पहले भारतवर्ष के इतिहास, पुराण और वेदों में कहीं भी आर्य जाती का कोई उल्लेख नहीं है क्योंकि आर्य जाती का कोई अस्तित्व ही नहीं था. आर्य शब्द वास्तव में जाती सूचक नहीं "श्रेष्ठता" सूचक था "सम्मान" सूचक था औरभारतवर्ष के लोग सम्मान देने के लिए आर्य शब्द का प्रयोग करते थे. भारतीयों के पत्नियाँ अपने पतियों को सम्मान देने के लिए आर्य सम्बोधन करती थी. आप रामायण, महाभारत, कालिदास, वाराहमिहिर, शूद्रक, चाणक्य या किसी को भी पढ़ लें यही सत्य है. आर्य जाती अंग्रेजों के कुटिल मष्तिष्क की उपज थी. वास्तव में भारतवर्ष, आर्यावर्त, ब्रह्मदेश, स्प्तसैन्धव के मूल निवासी जो इरान की सीमा से लगे मकरान तट और बलूचिस्तान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, जम्मूकश्मीर, तिब्बत, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान में रहते थे उन्हें ही अंग्रेजों ने कुटिलता से आर्य जाती घोषित कर दुहरी चाल चली थी. एक तरफ तो वह अखंड भारत को आर्य और द्रविड़ जाती में बांटकर कमजोर करने में सफल हुआ तो दूसरी ओर उसने इस सिद्धांत को बल दिया की इस देवभूमि भारतवर्ष में रहने वाले लोग भी उनके तरह ही विदेशी है इसी मिटटी से जुड़े हुए नहीं ताकि लोगों को भ्रमित किया जा सके की जिस प्रकार आक्रमणकारी आर्य और मुस्लिम भारत पर शासन कर सकते हैं वैसे ही अंग्रेज भी भारतवर्ष के वैध शासक बनने की योग्यता रखते हैं. और इसी को ध्यान में रखकर उसने सारे काल्पनिक साक्ष्य और कहानी गढ़ लिए जिसे परजीवी मानसिकता के शिकार इतिहासकारों और वामपंथी बुद्धिजीवियों ने अलौकिक ज्ञान मानकर ज्यों का त्यों ग्रहण कर लिया और हमे भी वही कुत्सित पाठ पढाते आ रहे हैं.
दरअसल १८५७ के विद्रोह के बाद अंग्रेजी सत्ता ने महसूस किया की यदि भारत में अंग्रेजी शासन बरक़रार रखना है तो फिर तिन सिद्धांत अपनाना पड़ेगा-१.भारत पर अंग्रेजी सत्ता को वैध साबित करना होगा, २. फूट डालो राज करो की निति अपनाना होगा और ३. अंग्रेजी शासन का समर्थक पैदा करना होगा. कनिंघम के आर्य जाती का आविष्कार और आर्यों के आक्रमण के सिद्धांत को संस्थागत रूप देना भारत पर अंग्रेजी सत्ता को यह दिखाकर वैध साबित करने का प्रयास था की भारत के लोग वास्तव में भारतीय मूल के हैं ही नहीं बल्कि वे खुद अपने ही देश भारत पर आक्रमणकारी है. इसे संस्थागत रूप देने पर फूट डालो राज करो की निति का भी आधार बन गया. क्योंकि सबसे पहले तो उन्होंने भारत को दो प्रजातियों-आर्य और द्रविड़ में बाँट दिया परन्तु द्रविड़ तो दक्षिण भारत में थे और आर्य उत्तर भारत में. अतः आर्य आक्रमण को साबित करने के लिए एक आक्रमित वर्ग का होना भी आवश्यक था. इसलिए उन्होंने ब्राह्मणवाद से उत्पन्न कुछ अछूत हिंदू जातियों और गौरवशाली हिंदू इतिहास वाले वे जातियां जो मुस्लिम शासन में शोषित, वंचित, पीड़ित और निम्न कार्य करने को वाध्य हुई थी को मिलाकर एक नया वर्ग बनाया और कुछ ऐसे लोगों को नियुक्त किया जो उन्हें यह समझा सके की तुम भारत के मूल निवासी हो और आर्यों ने तुम पर ही आक्रमण किया था.
अपने तीसरे उद्देश्य की पूर्ति का काम अंग्रेज वायसराय ने बहुत पहले ही प्रारम्भ कर दिया था. एक धर्मान्ध प्रोटेस्टेन्ट मेकाले जो विश्वास करता था की भारत में ब्रिटिश राज के संकट का समाधान भारतीयों को स्थायी या मानसिक रूप से ईसाई में रूपांतरण में है को भारत का शिक्षाविद नियुक्त किया. १८३६ में इसने अपने पिता को लिखा था "Our English schools are flourishing wonderfully. The effect of this education on the Hindus is prodigious... It is my belief that if our plans of education are followed up, there will not be a single idolater among the respectable classes in Bengal thirty years hence. And this will be effected without any efforts to proselytise, without the smallest interference with religious liberty, by natural operation of knowledge and reflection. I heartily rejoice in the project."
पत्रकार एवं इतिहासकार स्टेफिन नैप ने मेकाले के शिक्षा निति के उद्देशों पर प्रकाश डालते हुए लिखा है, “The purpose was to turn the strength of Hindu intellectuals against their own kind by utilizing their commitment to scholarship in uprooting their own tradition, which Macaulay viewed as nothing more than superstitions. His plan was to educate the Hindus to become Christians and turn them into collaborators.”
अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए उसे एक ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता थी जो उसके उद्देश्यों को पूरा कर सके और उसकी खोज जर्मन-ब्रिटिश मैक्समुलर पर समाप्त हुई और उसको उसने काम पर लगाया. वह बड़ी तन्मयता से इस उद्देश्य की पूर्ति में लग गया. उसके लक्ष्य कितना खतरनाक था यह १८६६ में अपनी पत्नी को लिखे पत्र से पता चलता है. वह लिखता है, "It [the Rig Veda] is the root of their religion and to show them what the root is, I feel sure, is the only way of uprooting all that has sprung from it during the last three thousand years."
दुर्भाग्य से भारत में अभी भी संस्कृत के विद्यार्थियों और शोधार्थियों को मैक्स मूलर का ही खतरनाक भाषांतरण पढाया जा रहा है. मैक्स मूलर ने आर्यों के आक्रमण के ब्रिटिश षड्यंत्र को संस्थागत रूप देने के लिए एक मैजिक फिगर दिया की ऋग्वेद की रचना १२०० ईस्वी पूर्व के आस पास हुई थी, हालाँकि, बाद में उनके कुतर्कों की काफी आलोचना हुई जिसके बाद अपने इन कुतर्कों का खुद ही खंडन कर दिया. उन्होंने लिखा, "If now we ask how we can fix the dates of these periods, it is quite clear that we cannot hope to fix a terminum a qua. Whether the Vedic hymns were composed [in] 1000 or 1500 or 2000 or 3000 BC, no power on earth will ever determine." (B. B. Lal, Origin of Indian Civilization, Edited by Bal Ram Singh, Center for Indic Studies, Dartmouth, USA, 2010. p. 23-24).
१९८८ में उन्होंने स्पष्ट स्वीकार किया की, "I have declared again and again that if I say Aryan, I mean neither blood nor bones, nor skull nor hair; I mean simply those who speak the Aryan language... To me an ethnologist who speaks of Aryan blood, Aryan race, Aryan eyes and hair is as great a sinner as a linguist who speaks of a dolicocephalic dictionary or of brachycephalic grammar." (Max Muller, Biographies of Words and the Home of the Aryas, by London, 1888, p. 120).
उपर्युक्त बातों से स्पष्ट है की मैक्स मूलर ने जिस आर्यों के एक जाती होने और उनके आक्रमण के मिथ्या सिद्धांत का दुष्प्रचार किया था उन्होंने अंततः इससे इंकार कर दिया, परन्तु दुर्भाग्यवश आज भी इतिहास के विद्यार्थियों को वही दुष्प्रचार और षड्यंत्र भारत के इतिहास के नाम पर पढाया जा रहा है जिसका की मैं खुद भुक्तभोगी हूँ. यकीन मानिये संपूर्णानंद की पुस्तक “आर्यों का आदि देश भारत” पढकर जब मुझे पहली बार एहसास हुआ की हम और हमारे  पूर्वज आक्रमणकारी नहीं इसी मिटटी की धरोहर हैं तो हमारा सीना उस वक्त ५६ इंच का हो गया था. लगा माथे पर कोई अदृश्य बोझ था वह हट गया. अंग्रेजों ने अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए भारतवर्ष के गौरवशाली इतिहास और इतिहास पुरुष को कुटिलतापूर्वक मिथोलोजी (काल्पनिक) करार देकर यह घोषित कर दिया की हम विदेशी आर्य जाती के वंशज है और हम अपनी ही मातृभूमि पर आक्रमणकारी है तथा हम सिर्फ १५०० BC पहले अर्थात आज से सिर्फ ३५०० वर्ष पहले भारत आये थे. क्या आप मानते हैं? अरे उससे हजारों साल पहले के तो हमारे पास भौतिक साक्ष्य उपलब्ध है लिखित साक्ष्य तो हजारों और लाखों वर्ष पहले की घटनाओं का वर्णन करता है जो इसी भूमि के कण कण से सम्बन्धित है.
एक दूसरा षड्यंत्र इन्होने किया की सैन्धव घाटी सभ्यता को वैदिक सभ्यता से अलग और पूर्व का घोषित करने का षड्यंत्र किया क्योंकि इसे वैदिक सभ्यता का हिस्सा मान लिया जाता ‘जो की वास्तव में था’ तो इनके आर्यों के विदेशी और आक्रमणकारी घोषित करने का षड्यंत्र पूरा नहीं होता. अगर आप सैन्धव सभ्यता के धार्मिक, सामाजिक, बसाबट, नगर निर्माण, पहनावा, आभूषण, प्रतिक चिन्हों आदि का बारीकी से अध्ययन करेंगे तो पता चलेगा की वे वैदिक और हिंदू सभ्यता के अभिन्न अंग रहे है और आज भी उनमे से अधिकांश ज्यों का त्यों प्रयोग हो रहा है. हमारे वामपंथी इतिहासकार इसे सैन्धव सभ्यता से संक्रमण का परिणाम मानते हैं पर इस पर चुप रह जाते हैं की आखिर आर्यों ने कमोबेश सैन्धव सभ्यता को सम्पूर्णता में ग्रहण क्यों कर लिया जबकि आर्य खुद को श्रेष्ठ मानते थे? फिर क्यों अनार्यों और आक्रमितों का धर्म, भगवान, सभ्यता, संस्कार, कला, शिल्प, विज्ञान अदि सब अपना लिया? क्या अंग्रेज आक्रमणकारी हिंदू सभ्यता संस्कृति और धर्म अपना लिए या मुस्लिम आक्रमणकारी हिन्दुस्तान पर आक्रमणकर हिंदू और हिन्दुस्तानी हो गए? अगर ऐसा होता तो फिर भारत का विभाजन कर पाकिस्तान क्यों बनता? वास्तविकता तो यह है की सैन्धव सभ्यता वैदिक सभ्यता का ही अभिन्न हिस्सा था परन्तु आज की तरह वैदिक सभ्यता में भी मतों और पंथों की भिन्नता रही थी. जिसे सैन्धव सभ्यता पर आर्यों का आक्रमण कहा जाता है वह सामुदायिक संघर्ष की लड़ाई हो सकती है या सैन्धव सभ्यता के पतन के दौरान कोई आर्थिक मुद्दों पर आपस की लड़ाई हो सकती है. इसी प्रकार जिसे भारत में आर्यों का आगमन कहा जाता है वह वास्तव में सिंधु नदी के मार्ग परिवर्तन के कारण सिंधु नदी के तटों पर स्थित अधिकांश नगरों का जलमग्न हो जाने के कारण उनके नए आश्रय स्थल हेतु पूर्व की ओर पयान की घटना ही थी जो उत्तर वैदिक काल तक आते आते पूर्व में बंगाल तक और दक्षिण में नर्मदा और आंध्रप्रदेश तक फ़ैल गयी थी. वेदों में जो पूर्व में प्रस्थान का वर्णन है वह सभ्यता विस्तार की कहानी है और उसका काल निर्धारण नहीं किया जा सका है क्योंकि खुद वेदों का काल निर्धारण सम्भव नहीं हो पाया है.
प्रख्यात पुरातत्ववेत्ता बी बी लाल आर्यों के आक्रमण का सिद्धांत किस तरह बनाया गया उसका वर्णन करते हुए बताते हैं, “चूँकि वैदिक सभ्यता को मैक्स मूलर ने मैजिक फिगर से १२०० ईस्वी पूर्व का घोषित कर दिया था इसलिए जब १९२० ईस्वी में हडप्पा सभ्यता की खोज हुई और उसका काल निर्धारण ३००० ईस्वी पूर्व हुआ तो उसे उन्होंने अवैदिक घोषित कर दिया और चूँकि आर्य भाषा के बाद सबसे बड़ी भाषा समूह द्रविड़ था इसलिए उन्होंने कल्पना कर लिया की हडप्पा सभ्यता के लोग द्रविडियन थे. फिर १९४६ में व्हीलर ने हडप्पा में एक किला खोज निकाला और चूँकि वेदों में इंद्र को पुरंदर (किले को नष्ट करने वाले) कहा गया है इसलिए उन्होंने बिना समय गंवाए घोषित कर दिया की हडप्पा सभ्यता आर्यों के आक्रमण से नष्ट हुई थी और मोहन जोदेडो से प्राप्त कुछ खोपड़ियों को आर्यों द्वारा की गयी हत्या घोषित कर दी जबकि वहाँ पर मिली खोपडियां बहु स्तरीय थी अर्थात विभिन्न काल खंड की थी. अमेरिकन पुरातत्ववेत्ता डेल्स ने व्हीलर के इस “हिंसा के सिद्धांत” को “काल्पनिक हिंसा” का सिद्धांत कहकर आलोचना किया है. वे आगे लिखते हैं की विस्तृत अध्ययन से स्पष्ट हो गया है की ४५००-८०० ईस्वी पूर्व में किसी भी युद्ध, आक्रमण या प्रतिस्थापन (Migration) के साक्ष्य नहीं मिले हैं इसलिए न सिर्फ आर्यों के आक्रमण का सिद्धांत बल्कि संशोधित आर्यों के प्रतिस्थापन का सिद्धांत भी गलत है.
इसीप्रकार षड्यंत्र पूर्वक कहा जाता है की शक, कुषाण और पहलव विदेशी आक्रमणकारी थे और वे भारतबर्ष पर अधिकार कर शासन किये, परन्तु ये अंग्रेजी और वामपंथी इतिहासकार यह नहीं बता पाते की इन विदेशियों का अपना धर्म, सभ्यता, संस्कृति, भाषा और मूल क्या था. और जो भी बताते हैं उससे यही साबित होता है की उनकी सभ्यता, संस्कृति, धर्म, भाषा और मूल पूर्णतः नहीं तो अधिकांश में भारतीय ही था. परन्तु केवल नाम गैर भारतीय होने के कारण वे इन्हें पुरी तरह षड्यंत्र पूर्वक अभारतीय और विदेशी करार दे देते हैं ताकि हम भारतीयों को यह धोखा दे सकें की भारत में बाहरी आक्रमण और बाहरी शासकों का प्राचीन और अंतहीन इतिहास रहा है ताकि वे अपनी साम्राज्यवादी सत्ता को उचित और हमारी किस्मत साबित कर सकें. वास्तविकता यह था की ये सभी भारतीयों के ही वंशज थे जो मौर्य काल में मौर्या सम्राज्य के सुदूर विस्तार के साथ मौर्यों के प्रतिनिधियों के रूप में विभिन्न क्षेत्रों में साशन कर रहे थे और दो ढाई सौ वर्षों के अंतराल के पश्चात इनके नाम और भाषा में स्थानीय प्रभाव दिखने लगा था. जबतक मगध की सत्ता मजबूत रही ये मगध प्रशासित और विजित क्षेत्रों में मजबूती के साथ शासन करते रहे परन्तु अशोक के शासनकाल में साम दाम दंड और भेद की राजनितिक कुशलता की जगह विकृत अहिंसा की राजनीती से आये संकट और परिणाम स्वरूप पतन के पश्चात उन प्रशासकों को जो केन्द्रीय शक्ति मिल रही थी जिसके बदौलत वे सुदूर क्षेत्रों पर शासन कर रहे थे वह केन्द्रीय शक्ति समाप्त होने से जो केन्द्रीय निर्वात पैदा हुआ उसके कारण उनकी सत्ता पर स्थानीय प्रहार हुआ और वे स्वभावतः अपने मूल और केंद्र अर्थात भारत की ओर भागे. परन्तु चूँकि केन्द्रीय सत्ता समाप्त हो चुकी थी इसलिए स्वतंत्र सामंती सत्ता से उनका टकराव स्वाभाविक था और हुआ भी जिसमे वे विजित हुए. चूँकि उनका मूल भारत में ही था इसलिए भारत की जनता ने उनको और वे भारत को जल्द ही अपने में समाहित कर लिए.
लेखक-मुकेश कुमार वर्मा

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