Friday 29 December 2017

प्राचीन न्यूक्लियर रिएक्टर की कहानी
सन 1932 में भौतिक विज्ञान के पितामह अर्नेस्ट रदरफोर्ड ने पहली बार परमाणुओं को तोड़ने में सफलता पाई थी। इससे पूर्व 'यूरेनियम' एक अति साधारण तत्व हुआ करता था। परमाणु विखंडन की खोज के बाद यूरेनियम पृथ्वी के गर्भ में उपस्थित हर धातु से अधिक मूल्यवान हो चुका था। यूरेनियम की खोज परमाणु विखंडन से बहुत पहले सन 1789 में कर ली गई थी। इससे पहले तक यूरेनियम का उपयोग सिरैमिक के बर्तनों की रंगाई और रेशम को रंगने के लिए किया जाता था। पिछले वर्ष दिसंबर में मुंबई के ठाणे से कुल 8.86 किलो यूरेनियम क्राइम ब्रांच ने जब्त किया था जिसका अंतरराष्ट्रीय मूल्य लगभग 26 करोड़ आँका गया था। खैर यूरेनियम पर आज का विषय अतीत के एक रहस्य से जुड़ा हुआ है। वो रहस्य जिसने वैज्ञानिकों को उलझन में डाल दिया है।
गबोन गणराज्य पश्चिम मध्य अफ़्रीका में स्थित एक देश है। सन 1972 में फ्रांस की एक कंपनी यहाँ 'ओक्लो' में स्थित एक खदान से यूरेनियम के अवयव खुदाई में निकलवा रही थी। जब लेबोरेटरी में इन अवयवों की जांच की गई तो सबके मुंह खुले रह गए। पता चला कि खुदाई में प्राप्त अवयवों में से कुछ प्रतिशत 'यूरेनियम' पहले ही निकाला जा चुका था।
बात भरोसे लायक कतई नहीं थी। लैब में हुई गणना के मुताबिक 'यूरेनियम-235' में 0.7 प्रतिशत यूरेनियम मिलना चाहिए था लेकिन मिला केवल 0.3 प्रतिशत। इस अविश्वसनीय तथ्य के पता चलने के बाद वैज्ञानिक समुदाय दो धड़ों में बंट गया। एक धड़े का मानना था कि ये यूरेनियम की खदान दरअसल हज़ारों वर्ष पुराना एक 'प्राचीन न्यूक्लियर रिएक्टर' था और दूसरा धड़ा इसे मूर्खतापूर्ण तथ्य बता रहा था।
फ़्रांसिसी भौतिक विज्ञानी फ्रांसिस पेरिन ने अपने सहयोगियों के साथ इस खदान में लंबा अनुसंधान किया तो पता चला यहाँ मिले तीन प्रकार के इज़ोटोप (isotope) का स्तर वही पाया गया जो आज की आधुनिक परमाणु भट्टियों के परमाणु कचरे में पाया जाता है। कई वैज्ञानिक इस बात पर सहमत हुए कि प्राकृतिक स्त्रोतों में पर्याप्त मात्रा में 'यूरेनियम-235' प्राप्त नहीं हुआ था। ये इतनी मात्रा में नहीं था कि स्वाभाविक 'चेन रिएक्शन' को अंजाम दे पाता। सवाल बहुत खरा था कि पुराने समय में यूरेनियम-235' का किसने और कैसे उपयोग किया होगा।
वैज्ञानिक कैसे मान लेते कि हज़ारों या लाखों वर्ष पूर्व अफ्रीका के पथरीले क्षेत्र में कोई अनजान सभ्यता 'न्यूक्लियर रिएक्टर' बनाने में सक्षम थी। शोध के आंकड़ों को झुठलाया नहीं जा सकता था। इस असमंजस से निकलने के लिए वैज्ञानिकों ने कहा कि ये 'महान आश्चर्य' है जो 'प्राकृतिक रूप' से घटित हुआ है।
इस पर फ्रांसिस जैसे वैज्ञानिकों ने विरोध जताते हुए कहा कि उस खदान में जो 'मानव निर्मित' अवशेष प्राप्त हुए हैं, उसके बारे में क्या स्पष्टीकरण देंगे। मशहूर वैज्ञानिक डॉक्टर ग्लेन सिबर्ग ने भी इसे 'प्राकृतिक रूप से घटित' बताया है। हालांकि 'चेन रिएक्शन' प्राकृतिक रूप से हो पाना संभव नहीं है, इसके लिए बहुत से तामझाम करने पड़ते हैं।
बताया जा रहा कि इस साइट पर जितना यूरेनियम पाया गया, उससे छह परमाणु बम बनाए जा सकते हैं। ये भी पाया गया कि रिएक्टर बेहद 'सुरक्षित स्थिति' में छोड़ा गया था और 'परमाणु कचरे' के निपटान की पूरी व्यवस्था यहाँ देखी गई है। इसके अलावा प्लांट में प्रयोग किया जाने वाला जल अत्यंत 'शुद्ध अवस्था' में मिला। कुल मिलाकर ये आज के आधुनिक 'न्यूक्लियर रिएक्टर' की तरह जानदार और शानदार बताया जा रहा है।
जब ये खबर फैली तो 'गबोन' स्थित इस खदान में शोध करने के लिए वैज्ञानिकों की भीड़ लग गई थी। यहाँ से जो मिला वह आप फोटो में देख सकेंगे। हालांकि फोटो दूर से लिया गया था लेकिन इसके आकार से आपको अंदाज़ा लग जाएगा। अब समस्या ये है कि अन्य रहस्यों की तरह इस पर भी पर्दा डाल दिया गया है। सन 2015 के बाद से 'गबोन' की ख़बरें आना बंद हो गई है।
प्राचीन न्यूक्लियर रिएक्टर की अवधारणा गुदगुदाती है लेकिन भरोसा नहीं होता। वैज्ञानिकों की जांच-पड़ताल एक भयानक सत्य की ओर इशारा करती है। अतीत में न जाने कितनी बार मानव सभ्यताएं 'परमाणु' के लालच में आकर नष्ट हो चुकी हैं। अरबों आकाशगंगाओं में भी कितनी ही सभ्यताएं 'अक्षय ऊर्जा' के बजाय 'परमाणु' का विकल्प चुनकर अपनी तबाही को आमंत्रित कर लेती हैं। 'गबोन' का परमाणु रिएक्टर किसने बनाया था। क्या उस सभ्यता को मोहनजो-दारो की तरह कोई विशाल 'परमाणु विस्फोट' विलुप्त कर गया था। वह रिएक्टर कैसे हज़ारों वर्ष तक चैतन्य रहा।

सवाल, सवाल और बस सवाल
✍🏻 विपुल विजय रेगे
वज्र 'ग्लोबल' है
दधीचि ऋषि जब तक जीवित रहे, असुर उन्हें देखकर भय खाते रहे। इसके बाद इंद्र को पुष्कर क्षेत्र में दधीचि ने अपनी अस्थियां भेंट कर दी। इंद्र ने इस हड्डी से 'वज्र' बनाया और असुरों को पराजित किया। वज्र को इंद्र का शस्त्र माना जाता है। वज्र केवल भारत ही नहीं संसार के विभिन्न क्षेत्रों में प्रयोग किया जाता था। वज्र को 'पवित्र शस्त्र' माना गया है। संस्कृत में इसका अर्थ 'आकाशीय बिजली और कदाचित हीरे से भी लगाया जाता है। दो प्रकार के वज्र बनाए जाते थे। कुलिश और अशानि। वज्र बनाते समय ध्यान रखा जाता था कि इसका 'हत्था' वजनदार हो और पत्तियां हल्की। वज्र को 'शांति और प्रशांति (tranquility)' का प्रतीक माना जाता है। जापान और चीन में भी प्राचीन वज्र पाए गए हैं। यूनानी देवता 'ज़ूस(Zeus) की कई प्रतिमाओं में वज्र उनके हाथों में दिखाई देता है। ऑस्ट्रेलिया, नोर्स पुराण में इसका उल्लेख किया गया है। 'पश्चिम का वज्र' तो इसमें से 'बिजली की वर्षा' भी करवाता है। सुमेरियन ब्रह्मांडिकी (cosmology) में भी वज्र का उल्लेख मिलता है। नोर्स गॉड 'थोर' का शस्त्र भी वज्र माना जाता है। माया सभ्यता के पुरावशेषों में भी वज्र दिखाई देता है।राष्ट्र के सबसे बड़े सम्मान 'परमवीर चक्र' की थीम भी 'वज्र' पर ही बनाई गई है। पौराणिक देवता इंद्र का वज्र परमवीर चक्र पर होने के पीछे बड़ा गहरा कारण है। दधीचि ऋषि ने अपनी अस्थियां दे दी ताकि 'वज्र' बनाया जा सके। जीवन का दान किया एक पवित्र उद्देश्य के लिए। परमवीर चक्र भी उसी को मिलता है जो अपनी हड्डियां तक पवित्र उद्देश्य के लिए समर्पित कर देता है।
✍🏻 विपुल रेगे

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