Thursday 14 December 2017

 भारतीयआबादी... ईसाई धर्मप्रचारकों के लिए उर्वर चारागाह 
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नागालैंड अलगाव की ऐसी आंधी में क्यों जला इसकी वजह को समझना आवश्यक है। चर्च हमेशा से ईसाई राष्ट्रों की चौथी सेना के रूप में काम करती रही है। अंग्रेजों की जब इस प्रदेश पर नज़र गई तो उन्होंनें यहाँ पर एक मिशनरी को भेजा जिसका नाम था अब्राहम ग्रियसन। 1938 में उसने वहां रहकर उस नागाप्रदेश की सबसे मुख्य भाषा "आओ" सीखी और न सिर्फ "आओ भाषा" सीखी बल्कि उस भाषा का अध्येता भी बन गया। वो समझ गया था कि नागाप्रदेश पर कब्ज़ा करना है तो ये भाषा उसके कितने काम आयेगी। उसने उस भाषा पर इतनी महारत हासिल कर ली कि एक दिन उसने "आओ भाषा" का व्याकरण लिख दिया और उसे नाम दिया- "तेतन ज़क्बा आओ ग्रामर"। इस काम के बाद उसने अपने एक और मिशनरी मित्र को वहां बुला लिया और उसको छद्म नाम दिया "डब्लू० चुनानुनग्वा आओ"। आओ टाईटल चूँकि वहां के जनजाति लगाते थे इसलिये उसने जानबूझकर अपने उस मिशनरी मित्र को वही नाम दिया फिर दोनों ने मिलकर "आओ भाषा" में "नया-नियम" को अनुवादित किया और वहां जोरशोर से ईसाईकरण अभियान शुरू कर दिया।
यानि आज अगर नागालैंड बदहाल है तो उसका सबसे बड़ा कारण है कि ईसाई प्रचारकों ने अपने किताब और अपने साहित्य उन तक उनकी भाषा में पहुँचाया जिसमें हम नाकाम रहे।
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नागालैंड कभी वृहत्तर असम का एक छोटा सा हिस्सा मात्र था। यहाँ की लगभग शत प्रतिशत आबादी जनजाति है, 1946 यानि देश की आजादी से एक वर्ष पूर्व यहाँ ए० जेड० फिजो नामक चर्च प्रेरित एक आदमी ने 'नागा नेशनल काउंसिल' नाम के संगठन की स्थापना की और "ग्रेटर नागालैंड" नाम से एक अलग ईसाई देश बनाने की घोषणा कर दी।
 सरकार झुके इसलिए दबाब बनाने के लिए इन्होंने सशस्त्र आन्दोलन शुरू कर दिया और नागालैंड की स्वतंत्रता की आवाजें वहां के हर हिस्से में सुनाई देने लगीं। करीब एक दशक में ही फिजो इतना प्रभावशाली हो गया कि सारे नागा लोग उसके इशारों पर नाचने लगे। 1956 में तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरु जी का नागालैंड का दौरा हुआ, जिस मैदान में उनका भाषण होना था वो मैदान नेहरु जी के आगमन से काफी पहले ही खचाखच भर गया पर जैसे ही नेहरु जी भाषण देने के लिए खड़े हुए सारी भीड़ देश और नेहरु विरोधी नारे लगाते हुए मैदान से बाहर निकल गई। देश के प्रधानमंत्री के इस अपमान से सारा भारत सन्न रह गया। 
सरकार दबाब में झुक गई और 1957 में नागालैंड को असम से अलग कर केंद्र शासित प्रदेश का दर्ज़ा दे दिया गया। असम से अलग होकर भी अलगाव की ये आंधी थमी नहीं, नतीजतन 1963 में सरकार ने नागालैंड को अलग राज्य का दर्ज़ा भी दे दिया और अलगाववादी भावनाओं का पोषण करते हुए 371 (A) के तहत कई विशेषाधिकार भी दे दिये। फिर भी यहाँ की अलगाववादी गतिविधियाँ थमी नहीं क्योंकि फिजो तो एक मोहरा था उसके पीछे ब्रिटेन समेत पश्चिम के कई ईसाई राष्ट्रों का वरदहस्त था, जिनकी मंशा नागालैंड को एशिया का "प्रथम पूर्ण ईसाई राज्य" का बनाने का था।
 खुफिया अधिकारियों को जब ये बात पता चली कि माइकल स्कॉट नाम के एक ईसाई ब्रिटिश मिशनरी ने फिजो को तैयार किया था, तो सरकार ने स्कॉट को बजाये गिरफ्तार करने के देश से बाहर निकाल दिया। जिसके नतीजे और भी घातक सिद्ध घातक हुए। स्कॉट ने लंदन जाकर फिजो को ब्रिटिश नागरिकता दिलवा दी और फिजो तथा स्कॉट वहां बैठकर नागालैंड को अलग राष्ट्र घोषित करवाने के अपने मांग पर अंतरराष्ट्रीय समर्थन जुटाने लगा। हेग, न्यूयार्क, रंगून, ढाका, पाकिस्तान, बैंकाक, चीन और नेपाल में इस संगठन के कार्यालय खुल गये।
 मिशनरियों से इन्हें पैसे मिलने लगे और चीन इन्हें हथियार देने लगा। 1971 में नागा नेशनल काउंसिल में कुछ मतभेद हुए जिसके नतीजे में यहाँ एक गुट नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ़ नागालैंड (NSCN) नाम से बना और सबसे प्रभावी बन गया। NSCN भी आगे जाकर दो भागों में बंट गया जिसमें एक गुट का नेता खापलांग बना और दूसरे गुट का नेता बना मुइवा। ये दोनों ही नागालैंड के नहीं हैं। खापलांग मूलतः बर्मा का रहने वाला है और मुइवा मणिपुर का। नागालैंड, मणिपुर और पूर्वोत्तर को नरक बनाने के पीछे NSCN का सबसे बड़ा हाथ है।
सनद रहे कि NSCN को यू०एन०पी०ओ० यानि "प्रतिनिधित्व विहीन राष्ट्रों का संगठन" की सदस्यता मिली हुई है और यू०एन०पी०ओ० संयुक्त राष्ट्र संघ में दो बार नागालैंड को भारत से अलग कर स्वतंत्र देश घोषित करने की मांग भी उठा चुका है। वहां की आबादी भारतीय पन्थावलंबी तो रही नहीं इसलिए हैरत नहीं कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत का पक्ष कभी कमजोर हुआ तो नागालैंड भी ईस्ट-तिमोर की तरह अलग देश न बना दिया जाए। ऐसा अगर न भी हुआ तो भी NSCN का पुष्टिकरण फिर से हमारे पूर्वोत्तर को अशांत बना देगा क्योंकि NSCN की "ग्रेटर नागालैंड" की परिधि में असम, मणिपुर और अरुणाचल के भी कुछ जिले हैं।
चूँकि पूर्वोत्तर के इस राज्य की शत-प्रतिशत आबादी जनजाति है इसलिये बाकी जगहों की तरह यह भी ईसाई धर्मप्रचारकों के लिए उर्वर चारागाह रही है। हमारी बेरुखी और अदूरदर्शिता के चलते आजादी के बाद भी यहाँ मिशनरियों का आक्रमण लगातार चलता रहा। परिणाम स्वरुप आज यहाँ की लगभग नब्बे प्रतिशत आबादी ईसाई बन चुकी है।

आज सम्पूर्ण विश्व में ईसाईयत संख्याबल के लिहाज से नंबर एक पर है तो इसके पीछे की सबसे बड़ी वजह बाईबिल के अनुवाद के पीछे की गई उनकी मेहनत है।

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