Friday, 29 December 2017

ऐतिहासिक उपन्यासकार कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी
30 दिसम्बर, 1887 को भरूच (गुजरात) के डिप्टी कलेक्टर श्री माणिक लाल मुंशी के घर में जन्मे श्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उनकी कुशलता राजनीति, साहित्य, शिक्षा व धर्मप्रेम के साथ ही प्रकृति संरक्षण के लिए किये गये उनके प्रयासों से भी प्रकट हुई। मुंशी जी बड़ौदा से स्नातक एवं मुंबई से कानून की परीक्षा उत्तीर्ण कर 1913 में मुंबई उच्च न्यायालय में वकालत करने लगे। बड़ौदा विश्वविद्यालय में पढ़ते समय उनकी भेंट ऋषि अरविंद से हुई। आगे चलकर अरविंद, सरदार पटेल व गांधी जी से प्रभावित होकर वे स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े।
1927 में सरदार पटेल के साथ उन्होंने बारदोली सत्याग्रह में भाग लिया। 1930 और 1932 में वे फिर जेल गये। 1940 में उन्होंने नमक सत्याग्रह में भाग लिया। स्वतंत्रता के बाद सरदार पटेल के साथ शासन के प्रतिनिधि के रूप में हैदराबाद रियासत को मुक्त कराने में उन्होंने भरपूर सहयोग दिया। महमूद गजनवी द्वारा तोड़े गये सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण में भी उनकी बड़ी भूमिका रही। जब सरदार पटेल ने हाथ में समुद्र का जल लेकर मंदिर निर्माण का संकल्प लिया, तो कन्हैयालाल जी भी उनके साथ थे।
स्वतंत्र भारत में उन्हें कृषि एवं खाद्य मंत्री बनाया गया। इस दौरान उन्होंने जुलाई के प्रथम सप्ताह में ‘वन महोत्सव’ मनाने की कल्पना सबके सामने रखी। इस समय वर्षाकाल होने के कारण धरती खूब उर्वरा रहती है। जब तक वे कृषि मंत्री रहे, तब तक यह योजना कुछ चली; पर सरदार पटेल के दिवंगत होते ही नेहरू जी ने उन्हें केन्द्रीय मंत्रिमंडल से हटाकर उत्तर प्रदेश का राज्यपाल बनाकर लखनऊ भेज दिया। इस प्रकार वन महोत्सव की योजना असमय मार दी गयी। यदि आज भी इस योजना पर ठीक से काम हो, तो न केवल भारत अपितु विश्व पर्यावरण प्रदूषण के अभिशाप से मुक्त हो सकता है।
मुंशी जी गुजराती भाषा के श्रेष्ठ साहित्यकार थे। ऐतिहासिक उपन्यासकार के नाते उनकी बड़ी ख्याति है। लोपामुद्रा, लोमहर्षिणी, पाटन का प्रभुत्व, गुजरात के नाथ, जय सोमनाथ, पृथ्वीवल्लभ, भगवान परशुराम, भग्न पादुका, कृष्णावतार (सात खंड) आदि इनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं। उन्होंने सैकड़ों लेख, निबंध, नाटक और कहानियां लिखीं, जिनमें भारत और भारतीयता की सुगंध सर्वत्र व्याप्त है।
गांधी जी द्वारा सम्पादित ‘यंग इंडिया’ के वे सह सम्पादक थे। इसके साथ ही गुजराती, आर्यप्रकाश, नवजीवन, सत्य आदि पत्रों के वे सम्पादक रहे। गुजराती के अतिरिक्त हिन्दी, तमिल, कन्नड़, तेलुगु, मराठी तथा अंग्रेजी पर भी इनका अधिकार था। इनकी पुस्तकों के अनेक भाषाओं में अनुवाद हुए हैं।
श्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने भारत की स्वतंत्रता के साथ ही उसके पुनर्निर्माण के बारे में भी विचार किया। हिन्दू धर्म एवं संस्कृति उनके मन, वचन और कर्म में बसी थी। कालान्तर में इसी चिंतन से 1932 में ‘साहित्य संसद’ तथा 1938 में ‘भारतीय विद्या भवन’ जैसी श्रेष्ठ संस्था का जन्म हुआ। भारतीय विद्या भवन की देश भर में 22 शाखाएं हैं। इस संस्था ने देश-विदेश में वेद, उपनिषद, गीता, रामायण जैसे हिन्दू धर्मग्रंथों तथा भारतीय भाषा व संस्कृति के विकास में अप्रतिम योगदान दिया।
मुंशी जी अपने जीवन के अंतिम समय तक देश, धर्म, शिक्षा, साहित्य, विज्ञान एवं कला की सेवा करते रहे। हिन्दू हितैषी होने के कारण वे विश्व हिन्दू परिषद की स्थापना में भी सहयोगी बने। सात फरवरी, 1971 को उनकी श्वास भगवान सोमनाथ के श्रीचरणों में सदा के लिए विसर्जित हो गयी।
विट्ठलव्यास

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