Tuesday, 12 December 2017

जब विश्व में शिक्षा अपनी शिशुअवस्था में थी, तब भारत के विश्वविद्यालय अपने चरम पर थे। 8वीं शताब्दी से 12वीं शताब्दी के बीच भारत पूरे विश्व में शिक्षा का सबसे बड़ा और प्रसिद्ध केंद्र था। गणित, ज्योतिष, भूगोल, चिकित्सा विज्ञान, भाषाएं(भाषा विज्ञान), व्याकरण, दर्शन शास्त्र, आयुर्वेद चिकित्सा, शल्य चिकित्सा, कृषि, भूविज्ञान, खगोल शास्त्र, ज्ञान-विज्ञान, समाज-शास्त्र, धर्म, मनोविज्ञान के साथ ही अन्य विषयों की शिक्षा देने में भारतीय विश्वविद्यालयों के समकक्ष पूरे विश्व मे कोई नहीं था। हालांकि आजकल अधिकतर लोग सिर्फ दो ही प्राचीन विश्वविद्यालयों के बारे में जानते हैं पहला नालंदा और दूसरी तक्षशिला, लेकिन इनके अलावा भी 15 से ऊपर ऐसे विश्वविद्यालय थे जो उस समय शिक्षा के मंदिर थे।
इन सभी विश्वविद्यालयों के विषय मे विस्तार से क्रमशः बताऊंगा ।।
#विस्मृत भारत के गौरवशाली इतिहास के विषय मे एक घटना से हमे सीख लेने की आवश्यकता है --
पुरी के पूर्व शंकराचार्य भारती कृष्ण तीर्थ जी ने अपनी साधना द्वारा शुल्ब सूत्रों और वेद की पृष्ठभूमि से गणित के कुछ अद्भुत सूत्रों और उपसूत्रों का आविष्कार किया। इन 16 मुख्य सूत्रों और 13 उपसूत्रों के द्वारा सभी प्रकार की गणितीय गणनाएं, समस्याएं अत्यंत सरलता और शीघ्रता से हल की जा सकती हैं। इन सूत्रों के आधार पर उन्होंने एक पुस्तक लिखी ‘#वैदिक_मैथेमेटिक्स।‘
#पुस्तक के महत्व को ध्यान में रखते हुए मुम्बई में टाटा द्वारा मूलभूत शोध हेतु स्थापित संस्थान (टाटा इंस्टीट्यूट फार फन्डामेंटल रिसर्च) में कुछ लोग गये और वहां के प्रमुख से आग्रह किया कि गणित के क्षेत्र में यह एक मौलिक योगदान है, इसका परीक्षण किया जाये तथा इसे पुस्तकालय में रखा जाये। तब इस संस्थान ने इसे यह कहकर स्वीकृति नहीं दी कि हमारा इस पर विश्वास नहीं है।
#विडम्बना देखिए जिस पुस्तक को नकार दिया गया वह देश में विचार का विषय आगे चलकर तब बनी जब एक विदेशी गणितज्ञ निकोलस ने इंग्लैंड से मुम्बई आकर कुछ गणितज्ञों के सामने इन अद्भुत सूत्रों के प्रयोग बताकर कहा कि यह तो ‘मैजिक‘ है। इसका प्रचार-प्रसार टाइम्स आफ इंडिया ने किया।
#भारतीय_मानसिकता को आप इस घटना से समझे कि यदि एक विदेशी इसका महत्व न बतलाता तो उसे मानने की हमारी मानसिकता नहीं थी।।
#विशेष --भारत वर्ष की आने वाली पीढ़ी में अपनी परंपरा, संस्कृति और इतिहास के प्रति गौरव का भाव न रहे, इस हेतु 1835 में लार्ड थॉमस बॉबिंग्टन मैकाले ने अंग्रेजी शिक्षा पद्धति लागू की। धीरे-धीरे संस्कृत पाठशालाएं समाप्त कर अंग्रेजी स्कूल अनिवार्य हुए। इन स्कूलों के लिए जो पाठ्यक्रम बना, जो पुस्तकें बनीं, उनमें किसी भी विषय में, विशेषकर विज्ञान के क्षेत्र में भारत का कोई अवदान है, इस प्रकार का संदर्भ नहीं आने दिया गया। परिणामस्वरूप कालांतर में इन विद्यालयों से पढ़कर निकले उपाधि-धारी भारत के अवदान की जानकारी से वंचित रहते थे, जो अनवरत जारी है ।।
आज आवश्यकता है विस्मृत विरासतो को पुनर्जीवित किया जाए क्योंकि भले ही कुछ कथित बुद्धिजीविओ को वेदों और वैदिक संस्कृति में सिर्फ मंत्र तंत्र दिखता हो लेकिन अभी इसमे अपार संभावनाएं है ।।
#विस्मृत_गौरवशाली_भारत -- #भाग - 2
इतिहास में भारतीय इस्पात की श्रेष्ठता के अनेक उल्लेख मिलते हैं। अरब और फारस में लोग भारतीय इस्पात की तलवार के लिए लालायित रहते थे। अंग्रेजों ने सर्वाधिक कार्बन युक्त इस्पात को बुट्ज नाम दिया। प्रसिद्ध धातु वैज्ञानिक तथा बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रो. अनंतरमन ने इस्पात बनाने की सम्पूर्ण विधि बताई है। कच्चे लोहे, लकड़ी तथा कार्बन को मिट्टी की प्यालियों में 1535 c' ताप पर गर्म कर धीरे-धीरे 24 घण्टे में ठण्डा करने पर उच्च कार्बन युक्त इस्पात प्राप्त होता है। इस इस्पात से बनी तलवार इतनी तेज तथा मजबूत होती है कि रेशम को भी सफाई से काट देती है।
#18वीं सदी में यूरोपीय धातु विज्ञानियों ने भारतीय कार्बन इस्पात बनाने का प्रयत्न किया, परन्तु असफल रहे। माइकेल फैराडे ने भी प्रयत्न किया, पर असफल रहा। कुछ ने बनाया तो उसमें वह गुणवत्ता नहीं थी।
#प्रथम रिपोर्ट सितम्बर, 1715को डा. बेंजामिन हायन ने एक रिपोर्ट ईस्ट इण्डिया कम्पनी को भेजी --
#रामनाथ पेठ (तत्कालीन मद्रास प्रान्त में बसा) एक सुन्दर गांव है। यहां आस-पास खदानें हैं तथा 40 इस्पात की भट्टियां हैं। इन भट्टियों में इस्पात निर्माण के बाद उसकी कीमत 2 Rs.. मन पड़ती है। अत: कम्पनी को इस दिशा में सोचना चाहिए।
#दूसरी रिपोर्ट मेजर जेम्स फ्रैंकलिन की है जिसमें वह सेंट्रल इंडिया में इस्पात निर्माण के बारे में लिखता है। इसमें वह जबलपुर, पन्ना, सागर आदि स्थानों की लौह खदानों का वर्णन करता है तथा इस्पात बनाने की प्रक्रिया के बारे में वह कहता है चारकोल सारे हिन्दुस्तान में लोहा बनाने के काम में प्रयुक्त होता है। जिसमें वो भट्टी का उल्लेख करता है, उसका निर्माण किया गया है। उसमें सभी भाग बराबर औसत 19-20 हाथ (हाथ-लम्बाई मापने की प्राचीन इकाई, लगभग 18 इंच इसका माप था) के थे। और 16 छोटी हाथ के थे। वह इस फर्नेस को बनाने की विधि का वर्णन करता है। फर्नेस बनाने पर उसके आकार को वह नापता है तो पूरी भट्टी में वह पाता है कि एक ही प्रकार की नाप है। लम्बाई सवा 4 भाग तो चौड़ाई 3 भाग होगी और मोटाई डेढ़ भाग। आगे वह लिखता है (1) गुडारिया (2) पचर (3) गरेरी तथा (4) अकरिया-ये उपांग इसमें लगाए जाते हैं। बाद में जब भट्टी पूरी तरह सूख जाती है तो उसे काम में लाया जाता है। भट्टी के बाद धोंकनी उसका मुंह बनाने की विधि, उसके बाद भट्टी से जो कच्चा लोहा निकलेगा उसे शुद्ध करने की रिफायनरी का वर्णन करता है। फिर उससे इस्पात बनाने की प्रक्रिया तथा मात्रा का निरीक्षण उसने 30 अप्रैल, 1827 से लेकर 6 जून, 1827 तक किया। इस बीच 4 फरनेस से 2235 मन इस्पात बना और इसकी विशेषता गुणवत्ता तथा विभिन्न तापमान एवं परिस्थिति में श्रेष्ठता की वह मुक्तकंठ से प्रशंसा करता है। उस समय एक मन की कीमत पौने बारह आना थी। (सवा 31 मन बराबर 1 इंग्लिश टन)
।।
मेजर जेम्स फ्रैंकलिन सागरमिंट के कप्तान प्रेसग्रेव का हवाला देते हुए कहता है कि भारत का सरिया (लोहा) श्रेष्ठ स्तर का है। उस स्वीडन के लोहे को भी वह मात देता है जो यूरोप में उस समय सर्वश्रेष्ठ माना जाता था।
#तीसरी रिपोर्ट कैप्टन डे. कैम्पबेल की है जो 1842 की है। इसमें दक्षिण भारत में लोहे के निर्माण का वर्णन है। ये सब रिपोर्ट कहती हैं कि उस समय देश में हजारों छोटी-छोटी इस्पात निर्माण की भट्टियां थीं। एक भट्टी में 9 लोगों को रोजगार मिलता था तथा उत्कृष्ट प्रकार का सस्ता लोहा बनता था। वैसा दुनिया में अन्य किसी देश में संभव नहीं था। कैम्पबेल ने रेलगाड़ी में लगाने के लिए बार आयरन की खोज करते समय बार-बार कहा, यहां का (भारत का) बार आरयन उत्कृष्ट है, सस्ता है। इंग्लैण्ड का बढ़िया लोहा भी भारत के घटिया लोहे का मुकाबला नहीं कर सकता।
#विशेष --
उस समय 90 हजार लोग इन भट्टियों में काम करते थे। अंग्रेजों ने 1874 में बंगाल आयरन कंपनी की स्थापना कर बड़े पैमाने पर उत्पादन चालू किया। परिणामस्वरूप धीरे-धीरे गांव-गांव में बनने वाले इस्पात की खपत कम होती गई और उन्नीसवीं सदी के अन्त तक स्वदेशी इस्पात बनना लगभग बंद हो गया। अंग्रेजों ने बड़े कारखाने लगाकर स्वदेशी प्रौद्योगिकी की कमर तोड़ दी। इसका दु:खद पक्ष यह है कि भारतीय धातु प्रौद्योगिकी लगभग लुप्त हो गई। आज झारखंड के कुछ वनवासी परिवारों में इस तकनीक के नमूने मात्र रह गए हैं।
भारत करोड़ो रुपए कार्बन स्टील(इस्पात) बनाने में खर्च करता है लेकिन गुणवत्ता के मामले में वो अभी भी उस प्राचीन विस्मृत तकनीक के आस पास भी नही है आज भी यदि झारखण्ड के लोगो से वो तकनीकी लेकर उसका औद्योगिकरण कर लिया जाए तो सस्ता और बेहद मजबूत कार्बन स्टील बनाया जा सकता है जो पूरे विश्व मे प्रसिद्ध होगा जिसका कोई विकल्प नही होगा ।

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