जानिये अपने पूर्वजों को
भाग - 5
भाग - 5
सोलहवां प्राचीन वंश...
धौम्य वंश :देवल के भाई और पांडवों के पुरोहित धौम्य ऋषि, जो महाभारत के अनुसार व्यघ्रपद नामक ऋषि के पुत्र थे, शिव की तपस्या करके ये अजर, अमर और दिव्य ज्ञान संपन्न हो गए थे। धौम्य के आरुणि, उपमन्यु और वेद नामक 3 शिष्य थे।
आरूणि उद्दालक की कथा जगत प्रसिद्ध है। धौम्य का पूरा नाम आपोद धौम्य था। धौम्य कश्यप के वंश के थे। धौम्य वंश में लायसे, भरतवार, घरवारी, तिलमने, शुक्ल, व्रह्मपुरि, आत्मोती, मौरे, चंदपेरखी आदि अनेक नाम से गोत्र नाम हुए।
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दक्ष वंश :पुराणों के अनुसार दक्ष प्रजापति परमपिता ब्रह्मा के पुत्र थे, जो कश्मीर घाटी के हिमालय क्षेत्र में रहते थे। प्रजापति दक्ष की 2 पत्नियां थीं- प्रसूति और वीरणी। प्रसूति से दक्ष की 24 कन्याएं थीं और वीरणी से 60 कन्याएं। इस तरह दक्ष की 84 पुत्रियां थीं। समस्त दैत्य, गंधर्व, अप्सराएं, पक्षी, पशु सब सृष्टि इन्हीं कन्याओं से उत्पन्न हुई। दक्ष की ये सभी कन्याएं देवी, यक्षिणी, पिशाचिनी आदि कहलाईं। उक्त कन्याओं और इनकी पुत्रियों को ही किसी न किसी रूप में पूजा जाता है। सभी की अलग-अलग कहानियां हैं।
प्रसूति से दक्ष की 24 पुत्रियों में से 13 पुत्रियों का विवाह धर्म से किया। इसके अलावा धर्म से वीरणी की 10 कन्याओं का विवाह हुआ। महर्षि कश्यप से दक्ष ने अपनी 13 कन्याओं का विवाह किया। इसके अलावा बची 9 कन्याओं का विवाह- रति का कामदेव से, स्वरूपा का भूत से, स्वधा का अंगिरा प्रजापति से, अर्चि और दिशाना का कृशश्वा से, विनीता, कद्रू, पतंगी और यामिनी का तार्क्ष्य कश्यप से किया।
पुराणों की एक अन्य मान्यता के अनुसार दक्ष के प्रसूति नाम की पत्नी से 16 कन्याएं हुई थीं। इनमें से 13 उन्होंने प्रजापति ब्रह्मा को दी अत: वे ब्रह्मदेव के श्वसुर भी बन गए। उन्होंने स्वाहा पुत्री का विवाह अग्निदेव से किया। उनको सबसे छोटी पुत्री सती थी, जो त्र्यंबक रुद्रदेव को ब्याही गई। दक्ष की कथा विस्तार से भागवत आदि अनेक पुराणों में वर्णन की गई है।
दक्ष के पुत्रों की दास्तान :सर्वप्रथम उन्होंने अरिष्ठा से 10 सहस्र हर्यश्व नामक पुत्र उत्पन्न किए थे। ये सब समान स्वभाव के थे। पिता की आज्ञा से ये सृष्टि के निमित्त तप में प्रवृत्त हुए, परंतु देवर्षि नारद ने उपदेश देकर उन्हें विरक्त बना दिया। विरक्त होने के कारण उन्होंने कोई विवाह नहीं किया। वे सभी ब्रह्मचारी रहे।
दूसरी बार दक्ष ने एक सहस्र शबलाश्व (सरलाश्व) नामक पुत्र उत्पन्न किए। ये भी देवर्षि के उपदेश से यति हो गए। दक्ष को क्रोध आया और उन्होंने देवर्षि को शाप दे दिया- 'तुम दो घड़ी से अधिक कहीं स्थिर न रह सकोगे।'
इनके पुत्रों का वर्णन ऋग् 10-143 में तथा इन्द्र द्वारा इनकी रक्षा ऋग् 1-15-3 में आश्विनी कुमारों द्वारा इन्हें बृद्ध से तरुण किए जाने का कथन ऋग् 10-143-1 में है। राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र हो गए थे तथा प्रायश्चितस्वरूप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। उन्हीं से उनका वंश चला। -(विष्णु पुराण 4.1.14)
दक्ष गोत्र के प्रवर- गोत्रकार ऋषि के गोत्र में आगे या पीछे जो विशिष्ट सम्मानित या यशस्वी पुरुष होते हैं, वे प्रवरीजन कहे जाते हैं और उन्हीं से पूर्वजों को मान्यता यह बतलाती है कि इस गोत्र के गोत्रकार के अतिरिक्त और भी प्रवर्ग्य साधक महानुभाव हुए है। दक्ष गोत्र के 3 प्रवर हैं- 1. आत्रेये, 2. गाविष्ठर व 3. पूर्वातिथि।
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वत्स/वात्स्यायन वंश :वत्स गोत्र या वंश के प्रवर्तक भृगुवंशी वत्स ऋषि थे। भारत के प्राचीनकालीन 16 जनपदों में से एक जनपद का नाम वत्स था। वत्स साम्राज्य गंगा-यमुना के संगम पर इलाहाबाद से दक्षिण-पश्चिम दिशा में बसा था जिसकी राजधानी कौशाम्बी थी। पाली भाषा में वत्स को 'वंश' और तत्सामयिक अर्धमगधी भाषा में 'वच्छ' कहा जाता था। चतुर्भुज चौहान वंशी भी वत्स वंश से हैं। वत्स वंश अग्निवंश से भी संबंध रखता है।
वत्स/वात्स्यायन वंश :वत्स गोत्र या वंश के प्रवर्तक भृगुवंशी वत्स ऋषि थे। भारत के प्राचीनकालीन 16 जनपदों में से एक जनपद का नाम वत्स था। वत्स साम्राज्य गंगा-यमुना के संगम पर इलाहाबाद से दक्षिण-पश्चिम दिशा में बसा था जिसकी राजधानी कौशाम्बी थी। पाली भाषा में वत्स को 'वंश' और तत्सामयिक अर्धमगधी भाषा में 'वच्छ' कहा जाता था। चतुर्भुज चौहान वंशी भी वत्स वंश से हैं। वत्स वंश अग्निवंश से भी संबंध रखता है।
एक कथा के अनुसार महर्षि च्यवन और महाराज शर्यातपुत्री सुकन्या के पुत्र राजकुमार दधीचि की 2 पत्नियां सरस्वती और अक्षमाला थीं। सरस्वती के पुत्र का नाम सारस्वत पड़ा और अक्षमाला के पुत्र का नाम पड़ा वत्स। युगोपरांत कलयुग आने पर वत्स वंश संभूत ऋषियों ने 'वात्स्यायन' उपाधि भी रखी। कालक्रमेण कलयुग के आने पर वत्स कुल में कुबेर नामक तपस्वी विद्वान पैदा हुए। कुबेर के 4 पुत्र- अच्युत, ईशान, हर और पाशुपत हुए। पाशुपत को एक पुत्र अर्थपति हुए। अर्थपति के एकादश पुत्र भृगु, हंस, शुचि आदि हुए जिनमें अष्टम थे चित्रभानु। चित्रभानु के वाण हुए। यही वाण बाद में वाणभट्ट कहलाए।
भृगु के च्यवन, च्यवन के आपन्वान, आपन्वान के ओर्व, ओर्व के ऋचीक, ऋचिक के जमदग्नि हुए। इसी वंश में आगे चलकर ऋषि वत्स हुए। इन्होंने अपना खुद का वंश चलाया इसलिए इनके कुल के लोग वत्स गोत्र रखते हैं।
वत्स गोत्र में कई उपाधियां थीं यथा- बालिगा, भागवत, भैरव, भट्ट, दाबोलकर, गांगल, गार्गेकर, घाग्रेकर, घाटे, गोरे, गोवित्रीकर, हरे, हीरे, होले, जोशी, काकेत्कर, काले, मल्शे, मल्ल्या, महालक्ष्मी, नागेश, सखदेव, शिनॉय, सोहोनी, सोवानी, सुग्वेलकर, गादे, रामनाथ, शंथेरी, कामाक्षी आदि।
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चित्रगुप्त वंश :चित्रगुप्त के बारे में सभी जानते होंगे। चित्रगुप्त यमराज के यमलोक में न्यायालय के लेखक हैं। ब्रह्मा की काया से उत्पन्न होने के कारण इन्हें 'कायस्थ' भी कहा जाता है। कायस्थ समाज के लोग ब्राह्मण वर्ग में श्रेष्ठ होते हैं। गरूड़ पुराण में यमलोक के निकट ही चित्रलोक की स्थिति बताई गई है। कायस्थ समाज के लोग भाईदूज के दिन श्री चित्रगुप्त जयंती मनाते हैं। इस दिन पर वे कलम-दवात पूजा (कलम, स्याही और तलवार पूजा) करते हैं जिसमें पेन, कागज और पुस्तकों की पूजा होती है। यह वह दिन है, जब भगवान श्री चित्रगुप्त का उद्भव ब्रह्माजी के द्वारा हुआ था।
चित्रगुप्त के अम्बष्ट, माथुर तथा गौड़ आदि नाम से कुल 12 पुत्र हुए। मतांतर से चित्रगुप्त के पिता मित्त नामक कायस्थ थे। इनकी बहन का नाम चित्रा था। पिता के देहावसान के उपरांत प्रभास क्षेत्र में जाकर सूर्य की तपस्या की जिसके फल से इन्हें ज्ञान हुआ। वर्तमान समय में कायस्थ जाति के लोग चित्रगुप्त के ही वंशज कहे जाते हैं।
कश्मीर में दुर्लभ बर्धन कायस्थ वंश, काबुल और पंजाब में जयपाल कायस्थ वंश, गुजरात में बल्लभी कायस्थ राजवंश, दक्षिण में चालुक्य कायस्थ राजवंश, उत्तर भारत में देवपाल गौड़ कायस्थ राजवंश तथा मध्यभारत में सतवाहन और परिहार कायस्थ राजवंश सत्ता में रहे हैं। कायस्थों को मूलत: 12 उपवर्गों में विभाजित किया गया है। यह 12 वर्ग श्री चित्रगुप्त की पत्नियों देवी शोभावती और देवी नंदिनी के 12 सुपुत्रों के वंश के आधार पर है। भानु, विभानु, विश्वभानु, वीर्यभानु, चारु, सुचारु, चित्र (चित्राख्य), मतिभान (हस्तीवर्ण), हिमवान (हिमवर्ण), चित्रचारु, चित्रचरण और अतीन्द्रिय (जितेंद्रिय)।
उपरोक्त पुत्रों के वंश अनुसार कायस्थ की 12 शाखाएं हो गईं- श्रीवास्तव, सूर्यध्वज, वाल्मीकि, अष्ठाना, माथुर, गौड़, भटनागर, सक्सेना, अम्बष्ठ, निगम, कर्ण और कुलश्रेष्ठ। श्री चित्रगुप्तजी के 12 पुत्रों का विवाह नागराज वासुकि की 12 कन्याओं से हुआ जिससे कि कायस्थों की ननिहाल नागवंशी मानी जाती है। माता नंदिनी के 4 पुत्र कश्मीर में जाकर बसे तथा ऐरावती एवं शोभावती के 8 पुत्र गौड़ देश के आसपास बिहार, ओडिशा तथा बंगाल में जा बसे। बंगाल उस समय गौड़ देश कहलाता था।
कल की पोस्ट में बीसवां प्राचीन वंश से प्रारम्भ करेंगे.....
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