कृष्ण कहते हैं, युद्ध न हो तो ठीक। लेकिन युद्ध होना ही हो, तो भागना ठीक नहीं हैं। और अगर युद्ध होना ही हो, और ऐसा क्षण आ जाए कि मनुष्य के मंगल के लिए और मनुष्य के हित के लिए युद्ध अनिवार्य हो जाए तो इस अनिवार्य युद्ध को फिर आनंद से स्वीकार करना। फिर उसे बोझ की तरह ढोना भी ठीक नहीं है। क्योंकि जो बोझ की तरह युद्ध में जाएगा फिर उसकी हार सुनिश्चित है। जो सिर्फ रक्षा के लिए युद्ध में जाएगा, उसकी हार भी सुनिश्चित है। क्योंकि रक्षा के भाव से भरा हुआ "डिफेंसिव' जो चित्त है, वह लड़ने में सामर्थ्य और शौर्य नहीं दिखा पाता। वह सिर्फ बचाव के उपाय करता रहता है और सिकुड़ता जाता है। तो कृष्ण लड़ने को भी आनंद बनाने को कहते हैं। दूसरे को दुख पहुंचाने का सवाल नहीं है। लेकिन जिंदगी में चुनाव सदा अनुपात के हैं--शुभ फलित होगा या अशुभ? जरूरी नहीं है कि युद्ध से अशुभ ही फलित हो।
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