Monday, 28 May 2018


आज राष्ट्र को वीर सावरकर जैसे नेता की जरूरत है। अगर आज हमने बच्चों को वीर सावरकर जैसे क्रांतिकारियों कi इतिहास नहीं पढ़ाया तो भविष्य में कोई भी क्रांतिवीर नहीं होंगे।


क्रांतिकारियों के पितामह, क्रान्तिकारियों के मुकुटमणि, दार्शनिक, कवि, इतिहासकार, महान् विचारक एवं  राष्ट्र के प्रवर्तक महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी वीर विनायक दामोदर सावरकर जी जन्म दिवस 28 मई, सन् 1883 ई. को नासिक जिले के भगूर ग्राम में एक चितपावन ब्राह्मण वंश परिवार में हुआ था।

उनके पिताश्री श्रीदामोदर सावरकर एवं माता राधा बाई दोनों ही महान् धार्मिक तथा प्रखर हिन्दुत्वनिष्ठ विचारों से आप्‍लावित थे । विनायक सावरकर पर अपने माता-पिता के संस्कारों का गहरा असर हुआ और वह प्रारम्भ में धार्मिकता से ओतप्रोत भरे थे.

नासिक में विद्याध्ययन के समय लोकमान्य तिलक के लेखों व अंग्रेजों के अत्याचारों के समाचारों ने छात्र सावरकर के हृदय में को बिदीर्णकर दिया व उनके हृदय में विद्रोह के अंकुर पैदा कर दिये। उन्होंने अपनी कुलदेवी अष्टभुजी दुर्गा माता की प्रतिमा के सामने यह अखंड प्रतिज्ञा ली—‘‘देश की स्वाधीनता के लिए अन्तिम क्षण तक जब तक सांस है तब तक सशस्त्र क्रांति का झंडा लेकर लड़ता रहूँगा।’’

वीर सावरकर ने श्री लोकमान्य की अध्यक्षता में पूना में आयोजित एक सार्वजनिक समारोह के सबसे पहले विदेशी वस्त्रों की होली जलाकर विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का श्रीगणेश किया कालेज से निष्कासित कर दिये जाने पर भी लोकमान्य तिलक की प्रेरणा से वह लन्दन के लिए कूच कर गये।

साम्राजयवादी गोरे अंग्रेज़ों के गढ़ लंदन में सावरकर चैन से अपने आप को नही रखा । वीर दामोदर सावरकर की प्ररेणा से ही श्री मदनलाल ढींगरा ने सर करजन वायली की हत्या करके बदला लिया। उन्होंने लन्दन से बम्ब व पिस्तौल, छिपाकर भारत भिजवाये। लन्दन में ही ‘1857 का स्वातन्त्र्य समर’ की रचना किया। अंग्रेज की साम्राज्‍यवादी गोरी सरकार सावरकर की गतिविधियों से दहल गया.

13 मार्च 1910 को सावरकरजी को लन्दन के रेलवे स्टेशन पर गिरफ्तार कर लिया गया। वीर विनायक दामोदर सावरकर पर मुकदमा चलाकर मौत का ग्रास बनाने के उद्देश्‍य से जहाज में भारत लाया जा रहा था कि तभी 8 जुलाई 1910 को मार्लेस बन्दरगाह के निकट वे जहाज से समुद्र में छलांग लगा दिये। गोलियों की बौछारों के बीच काफी दूर तक तैरते हुए वे फ्रांस के किनारे जा निकले, किन्तु फिर भी पकड़ लिये गये।

भारत लाकर मुकदमे का स्‍वांग रचा गया और दो आजन्म कारावास का दण्ड देकर उनको अण्डमान के लिये रवाना कर दिया गया। अण्डमान में ही उनके बड़े भ्राताश्री भी बन्दी थे। उनके साथ देवतास्वरूप भाई परमानन्द, श्री आशुतोष लाहिड़ी, भाई हृदयरामसिंह तथा अनेक प्रमुख क्रांतिकारी देशभक्त भी बन्दी थे। उन्होंने अण्डमान में अंग्रेजों से भारी यातनाएँ सहन किया।

अनवरत 10 वर्षों तक काला-पानी में यातनाएँ सहने के बाद वे 21 जनवरी 1921 को भारत में रतनागिरि में ले जाकर नज़रबन्द कर दिए गये। रतनागिरि में ही उन्होंने ‘हिन्दुत्व’, ‘हिन्दू पद पादशाही’, ‘उशाःप’, ‘उत्तर क्रिया’ (प्रतिशोध), ‘संन्यस्त्र खड्ग’ (शस्त्र और शास्त्र) आदि राष्‍ट्रवादी ग्रन्थों की रचना की; साथ ही शुद्धि व हिन्दू संगठन के कार्य में वे तन, मन और धन से लगे रहे। जिस समय सावरकर ने देखा कि गांधीजी हिन्दू-मुस्लिम एकता के नाम पर मुस्लिम तुष्‍टीकरण की नीति अपनाकर हिन्दुत्व के साथ विश्वासघात कर रहे हैं तथा मुसलमान खुशफहमी पालकर देश को इस्लामिस्तान बनाने के गंभीर साजिश रच रहे हैं, उन्होंने हिंदू संगठन की आवश्यकता महसूस किया।

30 दिसम्बर 1937 को अहमदाबाद में हुए अखिल भारत हिन्दू महासभा के वे अधिवेशन के वे अध्यक्ष चुने गये। हिन्दू महासभा के प्रत्येक आन्दोलन का उन्होंने ओजस्विता के साथ नेतृत्व किया व उसे महान संबल प्रदान किया । भारत-विभाजन का उन्होंने डटकर पुरजोर विरोध किया।

सबसे प्रमुख बात यह कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने उन्हीं की प्रेरणा से आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना की थी। वीर सावरकर ने ‘‘राजनीति का हिन्दूकरण और हिन्दू का सैनिकीकरण’’ तथा ‘‘धर्मान्त याने राष्ट्रान्तर’ यह दो उद्घोष को हिन्‍दुस्‍तान की जनता को दिये. वीर सावरकर जी को गांधीजी की हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया गया, उन पर मुकदमा चलाया गया, किन्तु वे ससम्मान बरी कर दिए गये।

26 फरवरी 1966 को इस महान आत्‍मा ने 22 दिन का उपवास करके भारत की माटी से विदा लिया। हिन्दू राष्ट्र भारत, एक असाधारण योद्धा, महान् साहित्यकार, वक्ता, विद्वान, राजनीतिज्ञ, दार्शनिक, महान क्रांतिकारी,समाज-सुधारक, हिन्दू संगठक से वंचित हो गया. यह ऐसा क्षति था जिसे आज तक भरा नही जा सका.

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