Tuesday 12 June 2018

जातिव्यवस्था : तथ्य और भ्रांतियां
----- रामेश्वर मिश्र पंकज   
मंडल आयोग की रिपोर्ट छलपूर्वक तैयार कर शताब्दियों शासक रहे समूहों को अन्य पिछड़ा बता दिया गया , यह छल , झूठ और अन्याय है
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जहां तक ओबीसी या अन्य पिछड़ा वर्ग की बात है ,मंडल आयोग की सारी रिपोर्ट छल चतुराई से तैयार की गई थी .उन्होंने जानबूझकर जनगणना का कोई आधार नहीं लिया अपितु हर जिले से 2 गांव चुने ,वे २ गांव उन जातियों वाले थे ,जिन जातियों को वे अपने ओबीसी में लाना चाहते थे .इस पर भी उनकी कुल जनसंख्या 35% निकली .तब उसमें उन्होंने कुछ अन्य जातियों को जैसे भट्ट हैं, महाब्राह्मण या महापात्र हैं ,ज्योतिषी हैं. आदि उच्च मान्य जातियों को जिनमे कुछ वैश्य जातियां भी हैं ,उन जातियों को जोड़ा. तब भी उसकी कुल जनसंख्या 37% हो पाई .तब उन्होंने उसमें गणित का छल करके 37 को ही 42 कर दिया जो कि मंडल आयोग की छपी हुई रिपोर्ट में देखा जा सकता है और जिसके विषय में मैंने उसी समय देश के 3 बड़े अखबार नवभारत टाइम्स, जनसत्ता और दैनिक हिंदुस्तान में लेख लिखे थेऔर एक चुनौती दी थी कि मंडल कमीशन की रिपोर्ट में गणित का छल है .
फिर उन्होंने देश के सभी अल्पसंख्यकों के ६० % को पिछड़ा कहकर अपनी संख्या में १५ % और जोड़ दिया जो पूरी तरह मनमानी थी और इस प्रकार लगभग 57 प्रतिशत को पिछड़ा बताकर उनके लिए आरक्षण की मांग कर दी .
जिस समय मंडल कमीशन का आरक्षण लागू हो रहा था उसी समय ऐसी पुस्तक छपी जिस में बताया गया था कि देश के अधिकांश भाग में वैदिक काल से सोलहवीं शताब्दी ईस्वी तक यादवों का राज्य था .कुछ अन्य पुस्तकोंमें पटेलों का या अन्य जातियों का राज्य दिखाया गया था और आरक्षण का जो मूल आधार था शासन की सहभागिता वह तो रहा नहीं अपितु ये पुस्तकें बताती हैं कि ये जातियां शासन में रही हैं और इसलिए इनको तो आरक्षण देने का कोई भी आधार नहीं बचता. यह एक प्रकार से राजनीतिक धींगामुश्ती है .
एक अत्यंत प्रमाणिक पुस्तक छपी “Yadavaas through the Ages “ . 2 parts by I J singh Yadav of Kurukshetra University .इस पुस्तक को मुलायमसिंह यादव , लालू यादव , चंद्रजीत यादव, रामनरेश यादन सहित सभी पार्टियों के दिग्गज यादव नेताओं ने पढ़ा था और सहयोग दिया था लेखक यादव जी को अतः वे सब इन तथ्यों से अवगत थे जब वे आरक्षण की मांग कर रहे थे उस समय .कितना बड़ा छल है कि शताब्दियों भारत में शासक रही जातियां स्वयं को पिछड़ा बताएं , यह स्पष्ट रूप से सत्ता छीनने के लिए लाया गया आरक्षण है
धर्मशास्त्र और आरक्षण
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जो वर्तमान आरक्षण है उसका राष्ट्र की सत्य स्थिति से कोई संबंध नहीं है और जहां तक धर्म शास्त्रीय आधार पर जातिगत आरक्षण की बात है ,वह पूरी तरह अनुचित है .
धर्मशास्त्र में तो जातिगत आरक्षण की कल्पना भी नहीं की गई है क्योंकि प्रत्येक जाति का अपना एक व्यवसाय तथा अपना एक कौशल था, दक्षता थी इसलिए धर्म शास्त्र की व्यवस्थाएं तो तभी लागू होंगी जब धर्मशास्त्र को हिंदू समाज का विधिक ग्रंथ माना जाए .
हिंदू समाज को इसकी पूर्ण स्वतंत्रता दी जाए कि वह धर्म शास्त्रों के अनुसार अपना जीवन जी सकता है. जब कि वर्तमान कानून में हिंदू समाज को धर्म शास्त्रों के अनुसार जीवन जीने की कोई भी स्वाधीनता नहीं दी गई है और उसमें धर्म शास्त्रों का कोई भी विधिक स्थान नहीं है. वह केवल पठन पाठन के योग्य चीजें हैं जिन्हें कोई चाहे तो पड़ सकता है जैसे कोई उपन्यास कहानी या कोई भी और ग्रंथ पढ़ सकता है लेकिन उसको न तो शिक्षा में स्थान है ,ना कानून व्यवस्था में स्थान है, ना समाज उसके अनुसार चलने को स्वतंत्र है और यह सत्य हिंदू समाज के ध्यान में बार-बार लाया जाना चाहिए कि जहां इस्लाम और ईसाई समाजों को, मुसलमानों और ईसाइयों को तथा अल्पसंख्यकों को अपने धर्म शास्त्रों के अनुसार चलने का विधिक अधिकार भारत के वर्तमान कानून और संविधान में प्राप्त है ,वही हिंदू समाज को धर्म शास्त्रों के अनुसार जीवन जीने का कोई अधिकार ही प्राप्त नहीं है अपितु वह अधिकार बाधित किया गया है .
हिंदू समाज को इस बात की स्वतंत्रता ही नहीं है कि धर्म शास्त्रों के अनुसार जीवन जी सकें. यह स्थिति तो स्वयं में अभूतपूर्व स्थिति है . भारत का वर्तमान शासन संविधानकी मूल भावना के विपरीत जाकर समाज के बीच भेदभाव करता है .अल्पसंख्यकों के लिए वह उनके अपने धर्म ग्रंथों के अनुसार जीवन जीने की पूरी छूट और सुविधा देता है और राजकोष यानी सरकारी खजाने से उनके शिक्षण की व्यवस्था भी करता है ,खर्चा भी देता है जबकि बहुसंख्यक समाज के लिए धर्म शास्त्रों का शिक्षण और धर्म शास्त्रों के अनुसार जीवन यापन बाधित है.
कानूनी तौर पर एक दंडनीय अपराध है यह कि धर्म शास्त्र की मान्यताओं के अनुसार अगर कोई हिन्दू चलेगा तो वर्तमान शासन उसे दण्डित कर सकता है .
यह स्थिति भारत के नागरिकों में स्पष्ट भेदभाव करने वाली है और संविधान की मूल भावना की विरोधी है जो शासकों ने छलपूर्वक थोप दी है . अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के बीच भेदभाव करना अनुचित है
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..अल्पसंख्यकों को उनकी धार्मिक किताबों के अनुसार जीवन जीने की छूट देना और बहुसंख्यकों को धर्म शास्त्र के अनुसार जीवन जीने से रोकना . बाधित करना और दंडित करना - ऐसा भेदभाव भारत शासन कर रहा है जो संसार के किसी भी राज्य में नहीं होता .
बातें समरसता की
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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा अन्य अनेक संगठन समाज में समरसता के लिए कार्य कर रहे हैं जो अत्यंत स्वागतयोग्य और अभिनंदनीय कदम है परंतु उसमें कुछ बातें जानने की है .
समरसता न्याय पूर्वके संभव है. अगर आप किसी समाज के किसी हिस्से को अकारण निंदा का पात्र बनाएं ,उसके पूर्वजों को गालियां दें, उसके पूर्वजों पर ऐसे लांछन लगाएं ,ऐसे दोष आरोपित करें जो उन पूर्वजों ने कभी भी नहीं किया है तो इससे समाज में समरसता स्थापित नहीं हो सकती .
जो भी संगठन या समूह यह कहते हैं कि ब्राह्मणों ने या अन्य द्विजों ने शताब्दियों तक समाज के किसी वर्ग के साथ अन्याय किया है , वे इस घोर असत्य के द्वारा , झूठ के द्वारा कभी भी समाज में समरसता स्थापित नहीं कर सकेंगे क्योंकि झूठ बोल रहे हैं और हमारे महान पूर्वजों और ऋषियों को गालियां दे रहे हैं ,उनके लिए अपशब्द कह रहे हैं ,उन पर झूठे लांछन लगा रहे हैं,जो अपराध किसी ने किया ही नहीं है, उन अपराधों का परिमार्जन उन पूर्वजों के उत्तराधिकारियों को करने के लिए कहना तो उन्हें बलपूर्वक और अकारण दंडित करना है, उन को राजनीतिक रुप से प्रताड़ित करना है अतः यह रास्ता समरसता किसी भी तरह नहीं बना सकता है . यह तो केवल केवल विषमता ,अन्याय. कटुता और विद्वेष को बढ़ावा देगा .
सामाजिक समरसता के नाम पर समाज के बड़े हिस्से के सर्वमान्य पूर्वजों को झूठे लांछन लगाकर उसे लांछित करना ,झूठे आरोप लगाना निरर्थक और अनुचित है. समरसता के नाम पर ऐसा कोई भी काम जो झूठ पर आधारित हो ,जो काल्पनिक बातों पर आधारित हो, कभी भी नहीं किए गए अपराधों की कल्पना पर आधारित हो , वह समरसता कहा ही नहीं जा सकता.
जाति सदा कुलों का समूहन है , कुल ही परिवार है और स्वयं श्रीमद भगवत गीता में कुल धर्म को सनातन कहा गया है. इसलिए कुल समूहों की परंपराओं को नष्ट करने का प्रयास अनुचित है .
जाति एक संवैधानिक इकाई है . भारत के संविधान में जाति पूरी तरह मान्य है इसलिए जाति का विरोध संविधान विरोधी है, धर्मशास्त्र विरोधी है, मानव इतिहास का विरोधी है ,सत्य का विरोध है .
अंतरजातीय विवाह
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अब एक नया शब्द चला है अंतरजातीय विवाह. कैसे कैसे झूठे शब्द चलें हैं. उसमें से एक शब्द है अंतरजातीय विवाह . यह शब्द स्वयं में झूठ है क्योंकि अंतरजातीय विवाह केवल तब कहलायेगा जब एक पूरी जाति दूसरी किसी जाति से विवाह करें तब उसे ही अंतरजातीय विवाह कहा जायेगा जब जातियां की जातियां अन्य जातियों से विवाह करें.. दो व्यक्तियों के विवाह को अंतरजातीय विवाह कहना शब्द का और सत्य का दोनों का अनादर है .
सभी विवाह अंतर्वैयक्तिक होते हैं. संसार में कोई भी विवाह अंतरजातीय नहीं होता . हर विवाह दो व्यक्तियों का होता है और उस प्रक्रिया में दो कुलों के मध्य वो रिश्ता बनता है पर वह दो व्यक्तियों के कारण बन रहा है ..
जहां तक अपनी जाति से भिन्न किसी जाति में विवाह की बात है , यह तो सनातन नियम है . समस्त धर्मशास्त्र ऐसे विवाहों का वर्णन करते हैं . विवाह या तो अनुलोम कहा है या प्रतिलोम .
अनुलोम विलोम दोनों प्रकार से अपनी जाति से भिन्न जाति में विवाह अनादि काल से होता रहा है. अगर वर या कन्या ऐसी जाति की कन्या या वर से विवाह कर रहे है जो परंपरा से मान्य है तो उसे अनुलोम विवाह कहते हैं और जब कोई विवाह सहज परंपरा का उल्लंघन कर हो तो उसे प्रतिलोम विवाह कहते हैं
व्यवस्था है कि कोई भी युवा ब्राह्मण वर या कन्या यदि ब्राम्हण क्षत्रिय वैश्य शूद्र किसी भी वर्ण की कन्या या वर से विवाह करते हैं वह विवाह अनुलोम विवाह ही कहलाएगा. क्षत्रिय कन्या या वर क्षत्रिय वैश्य और शूद्र वर या कन्या से विवाह करता है तो वह अनुलोम विवाह है और अगर ब्राम्हण कन्या से विवाह करता है तो प्रतिलोम विवाह है , आदि . तो भिन्न जाति में विवाह की परंपरा अत्यंत प्राचीन काल से चली आ रही है और उसके कारण ही अनुलोम और प्रतिलोम विवाह जैसे शब्द शास्त्र में मान्य हैं .ऐसे शब्दों को छोड़कर एक निरर्थक शब्द “ अंतरजातीय विवाह: चलाना भ्रान्ति फैलाना है . जाने किस मूर्ख ने यह शब्द कल्पित किया और किन मूर्खों ने इसे अपनाया है .
जिन लोगों को अपने देश का इतिहास ही नहीं पता है , वे किस मुख से बढ़-चढ़कर ऐसी बातें करते हैं, निरर्थक नारेबाजी करते हैं, यह देख कर आश्चर्य होता है और लज्जा भी आती है कि इस देश में ऐसे ऐसे लोग भी सार्वजनिक जीवन में होने लगे हैं ?
सभी जानते हैं कि भगवान राम का विवाह अज्ञात कुल की कन्या भगवती सीता माता के साथ हुआ था. कोई प्रश्न ही नहीं उठा उनके समय में कि यह कन्या तो अज्ञात कुल की है .उस अद्वितीय वीर और तेजस्विनी कन्या से जिनके कुल का कोई पता नहीं , देशभर के राजा विवाह करने के लिए इच्छुक हैं और स्वयंवर के लिए पधारें हैं और चक्रवर्ती सम्राट दशरथ के यशस्वी पुत्र उन से विवाह करते हैं , सूर्य वंश के गौरव ,रघुकुल के गौरव् उन अज्ञात कुल कन्या से विवाह करते हैं सोल्लास .
इसी प्रकार अर्जुन का उलूपी से और भीम का हिडिंबा से विवाह . इसी प्रकार स्वयं भगवान कृष्ण का जांबवती से विवाह . अनंत उदाहरण इतिहास में हैं .
जिसे यदुवंश कहते हैं उन यदु महाराज के पिता ययाति एक क्षत्रिय थे और माता एक ब्राह्मणी थीं भगवती देवयानी जो परम गुरु शुक्राचार्य की पंडिता पुत्री थी .उनके पुत्र ही यदु हुए और राजा हुए . जिन्हें यदुवंशी कहते हैं , वे क्षत्रिय पिता और ब्राह्मणी माता की संताने हैं
इतना ही नहीं सत्यवती तो शूद्र कन्या है और उसका विवाह जिनसे होता है वे प्रतापी सम्राट और अंत में फिर उसी कन्या से पुरु वंश के सम्राट हुए .
जाने किसने भारत के वर्तमान राजनेताओं में हीनता पैदा कर दी है जिसके कारण वे प्रायः ऐसे निरर्थक शब्द बोलते रहते हैं .अनुलोम और प्रतिलोम को यदि आप नहीं जानते तभी आप अंतरजातीय विवाह जैसे निरर्थक शब्द गढ़ते हैं . और उसे कोई नयी चीज बताते हैं , इस से आप कैसे बन्दर दीखते हैं , यह आपको नहीं दिखे पर विश्व के अध्येता तो देखते ही हैं .

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