धन्यवाद मेरे छद्म उदारवादी मित्रों , तुम्हारा बहुत बहुत धन्यवाद. अगर तुम न होते तो मैं शायद अपनी हिंदू संस्कृति , संस्कार, धर्म आचार, व्यवहार इत्यादि को कभी भी ठीक से जान नहीं पाती. तुमने जिस तरह से हमारे धर्म, त्योहारों , संस्कृति और सभ्यता के खिलाफ एक सतत अभियान छेड़ रखा है उसने मुझको प्रेरित किया कि मैं अपनी संस्कृति और सभ्यता के बारे में गहराई से पता करूँ . कुछ और किताबें पढ़ू। कुछ और जानकारी इकठ्ठा करूँ. मैं जानना चाहती थी क्या जितना तुम लोग बताते हो, मेरी सभ्यता, संस्कृति और धर्म उतना ही ख़राब है? क्या यह सिर्फ और सिर्फ खराबियों के एक ढ़ेर के सिवा और कुछ नहीं है? सिर्फ एक धर्म में ही इतनी खराबियाँ कैसे हो सकती हैं?
अगर एक कमजोर मन मस्तिष्क वाला तुम्हारी बातों को गंभीरता से ले ले, तो शायद आत्महत्या कर ले, की इतने ख़राब सभ्यता और संस्कृति में पैदा होने से अच्छा है मर जाना. लेकिन मैं तो तुम्हारा धन्यवाद करना चाहती हूँ. मेरे छद्म उदारवादी मित्रों,अगर तुम न होते तो मैं अपनी सभ्यता और परंपरा से निपट अनभिज्ञ ही रहती.
तुम सबसे ज्यादे असहिष्णुता की ढपली बजाते हो. मैंने जब इतिहास पढ़ा तो पता चला कि हमारे भारत पर बहुत से आक्रमणकारियों की कुदृष्टी रही है. यवन, शक, हूण, कुषाण न जाने कितने आक्रांता आये और जब आये तो यही के हो कर रह गए. अगर एक डिटर्जेंट की कंपनी के विज्ञापन का हवाला दूँ , तो कहा जा सकता है कि , “ढूढ़ते रह जाओगे” ये हमारी भारत भूमि की मिट्टी में ही रच, बस और खप गए. सिर्फ यही नहीं, पारसी, आर्मेनियन, यहूदी, चीनी, यजीदी जो भी शरणार्थी बन कर आया, हमारी भारत माँ ने अपने आँचल में उसको समेट लिया और ढाप के छुपा लिया. उनको अपनी सभ्यता, संस्कृति और पूजा विधि अपनाने की पूरी स्वतंत्रता थी. हमारी भारत माँ अपने बच्चों के बीच भेदभाव नहीं करती. सभी को यहाँ की मिट्टी में खेलने, पलने और बढ़ने की पूरी छूट है. और मेरे छद्म उदारवादी मित्रों, तुम दिन रात असहिष्णुता का राग अलापते रहते हो. अरे शर्म भी तुमको देख कर शर्मसार हो जाती होगी.
अभी असहिष्णुता वाली बात ख़तम नहीं हुई है. इसी भारत भूमि में न जाने कितने धर्म, संप्रदाय पहले फूले. उनके अनुयायी आगे आये, अपने पुराने धर्म को त्याग कर नया धर्म अपनाया. किसी ने उनको रोका टोका नहीं. बौद्ध, जैन, सिख, पारसी, यहूदी, इस्लाम, ईसाई न जाने कितने धर्मो ने पनाह पाई. और संप्रदाय तो इतने है कि नाम गिनाना कठिन है. ये छद्म उदारवादी चले है हमको सहिष्णुता सिखाने. अरे सुपवा हसे त हसे, चलनियों हसे जेकरे बहत्तर छेद ? अपनी बनाई व्यवस्था में ये खुद अलग विचार रखने वालों को झाड़ बुहार के किनारे लगा देते है. आप इन छद्म उदारवादियों द्वारा लिखी पुस्तकें पढ़ कर देख लीजिए, बड़ी मुश्किल से किसी पृथक मत वाले को स्थान मिलता है.
मेरा यह विचार हरगिज़ नहीं है कि हमारा धर्म सर्वोत्तम है. या हम सर्वश्रेष्ठ हैं. लेकिन हमारे धर्म और संस्कृति निकृष्टम है, यह भी सही नहीं हैं. जैसा की सभी के साथ है, सत्य कही बीच में हैं, जिसको साधारण भाषा में ऐसे कहा जा सकता हैं, “थोड़ा है, थोड़े की ज़रुरत है.” जो ठीक है उसको सहेज कर रखना है, उसके बारे में बताना है, उसको आगे बढ़ाना है और जो ठीक नहीं है, उसको स्वीकार करना है, उसको त्याग देना है, उसको ख़तम कर देना है. जैसे हम रोगग्रस्त शरीर का इलाज करते है. जो रोग है, उसका अध्यनन करने के बाद डॉक्टर उसका लक्षण बताता है, और दवा देता है, ठीक उसी तरह, हमारे धर्म में जो बातें हमारी प्रगति रोकती है, उनकी पहचान करके उनका इलाज आवश्यक है.
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