"जब किसी को अपने बड़े होने का अहंकार हो जाए तो वो न केवल अपनी गलतियों को देख पाने से प्रतिरक्षित हो जाता है बल्कि अपने अधिकारक्षेत्र में उपलब्ध सभी संसाधनों का प्रयोग अपने वर्चस्व और महत्व को स्थापित करने के लिए करता है ; आत्म मुग्धता के कभी संतुष्ट न होने वाले इस प्रयास के सतत प्रक्रिया के परिणामस्वरूप उसका स्तर इतना गिर जाता है की उसे स्वयं भी इसका ज्ञान नहीं होता ;और जब गलतियों की स्वीकृति ही समस्या बन जाए तो सुधार असंभव है।
संघ में सभी स्वयंसेवक ज़मीन पर बैठते हैं, ऐसे इसलिए क्योंकि ज़मीन पर बैठने वालों को गिरने का डर नहीं होता; किसी भी वृक्ष को विकसित व् समृद्ध होने के लिए यह आवश्यक है की वह अपनी जड़ों से जुड़ा रहे पर अगर वृक्ष को भी हवा में उड़ाने की महत्वकांक्षा में पत्ते वृक्ष की जड़ों को ही काटने लगे तो इसे क्या कहा जाए ? कुछ पत्तों के हस्स्यास्पद महत्वकांक्षा के लिए वृक्ष अपने जड़ों की बलि नहीं दे सकता और न ही देना चाहिए ;
किसी भी व्यक्ति के महत्व का आधार उसका कर्म होता है पर जब महत्व की आकांक्षा से कर्म किये जाएँ तो कर्म का उद्देश्य ही कर्म को गलत सिद्ध कर देगा; ऐसे में यह समझना महत्वपूर्ण है की इस पृथ्वी का अस्तित्व करोड़ों वर्षों से है और हम मनुष्य यहाँ एक सीमित अवधि के लिए सम्भावना के रूप में आते हैं. अपने सीमित जीवन काल का प्रयोग अगर हम अपने लिए सुख और सुरक्षा की प्राप्ति में लगाएं तो निश्चित रूप से जीवन संतुष्टि प्राप्त कर पाने से वंचित रहेगी क्योंकि सुख प्राप्ति में है और संतुष्टि देने में;
इस धरती पर हमारा जीवन काल सीमित है ऐसे में, अगर हम अपने जीवन काल का व्यय कृत्रिम महत्व और सुख की प्राप्ति में करें तो वह एक विकल्प होगा पर अगर इस अवधि का प्रयोग हम अपने व्यक्तिगत विशिष्टता का बोध कर उसकी उपयोगिता द्वारा श्रिष्टि के कल्याण में सहायक बनने में करें तो यही सही अर्थों में जीवन का महत्व और जीवन काल की उपलब्धि होगी ; आखिर प्रकृति में विशिष्ट ही तो सामान्य है, फिर प्रतिस्प्रधा कैसा, क्यों न पूरक बनें !
धन महंगा है पर समय अनमोल ऐसे में जीवनकाल के लिए महत्वपूर्ण क्या होना चाहिए ? जीवन के जन्म से ही मृत्यु तो निश्चित है, अगर हम अपने समझ के विस्तार से जीवन के सही उद्देश्य का निर्धारण करना सीख जाएँ तो यही शिक्षा की सार्थकता होगी !"
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