Thursday, 12 May 2016



"टिकट कहाँ है? " -- टी सी ने बर्थ के नीचे छिपी लगभग तेरह - चौदह साल की लडकी से पूछा ।
"नहीं है साहब "-- काँपती हुई हाथ जोड़े लडकी बोली ।
"तो गाड़ी से उतरो ।" टी सी ने कहा ।
"मै इसका टिकट दे रहीं हूँ ।"-- पीछे से ऊषा भट्टाचार्य की आवाज आई जो पेशे से प्रोफेसर थी ।

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"तुम्हें कहाँ जाना है ?" उषा ने वो लड़की से पूछा
"पता नही मैम ! "
"तब मेरे साथ चल बैंगलोर तक ! तुम्हारा नाम क्या है ? "
" चित्रा ! "
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बैंगलोर पहुँच कर ऊषा जी ने चित्रा को अपनी ऐक पहचान के स्वंयसेवी संस्थान को सौंप दिया ।
जल्द ही ऊषा जी का ट्रांसफर दिल्ली होने की वजह से चित्रा से कभी कभार फोन पर बात हो जाया करती थी ।

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करीब बीस साल बाद ऊषा जी को एक लेक्चर के लिए सेन फ्रांसिस्को ( अमरीका) बुलाया गया ।
लेक्चर के बाद जब वह होटल का बिल देने रिसेप्सन पर गई तो पता चला पीछे खड़ी एक खूबसूरत दंपत्ति ने बिल भर दिया था ।
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"तुमने मेरा बिल क्यों भरा ? "
"मैम साहब, यह बम्बई से बैंगलोर तक के रेल टिकट के सामने कुछ नहीं है ।"
"अरे चित्रा....... ! ! ?"

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चित्रा कोई और नहीं, इंफोसिस फाउंडेशन की चेयरमैन सुधा मुर्ति है (photo) । यह उन्ही की लिखी पुस्तक से लिया गया कुछ अंश हैं
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