“संसाधन और उद्देश्य में अंतर होता है ; जब संसाधन उद्देश्य बन जाए तो प्रक्रिया निरर्थक हो जाती है , फिर सन्दर्भ चाहे जीवन का हो या जीवन की अर्थव्यवस्था का, इसीलिए, सत्य का वास्तविक ज्ञान आवश्यक है।
ईश्वर ने पेड़ों में पत्ते लगाए क्योंकि पत्ते पैसों से अधिक महत्वपूर्ण हैं , पैसा मनुष्य ने अपने जीवन की सहूलियतों के लिए बनाया है पर आज पैसा संसाधन से बढ़कर जीवन का उद्देश्य बन गया है, तभी, इस संसार में आज जो भी होता है, अच्छा -बुरा, पैसों के लिए ही होता है, तभी जीवन निरर्थक हो गया है।
आत्मा पवित्र है और शरीर अशुद्ध पर फिर भी अगर पवित्र आत्मा इस अशुद्ध शरीर को धारण करती है तो इसका कोई तो कारन होगा ?
प्रकृति में शरीर के आभाव में ऊर्जा इंद्रियों से वंचित है और यही ऊर्जा के लिए शरीर का मह्त्व भी ; इसीलिए सशरीर ऊर्जा जब भी अपना प्रारूप बदलती है तो प्रदुषण स्वाभाविक है , फिर ऊर्जा का प्रारूप चाहे जो हो !
कहने का तात्पर्य केवल इतना है की जिस जीवन को हम इतना महत्वपूर्ण मानते है वास्तव में वह आत्मा का उद्देश्य नहीं बल्कि एक संसाधन मात्र है पर जब तक हम स्वयं को शरीर मानते रहेंगे हमारे जीवन में निर्णय का आधार भौतिक होगा और तब, संभव है की भौतिक स्तर पर हम जीवन को सफल बन लें पर वास्तविक अर्थों में इसकी सार्थकता सिद्ध कर पाना संभव न होगा ;
यहाँ यह महत्वपूर्ण है की हम स्वयं को क्या मानते हैं , एक शरीर जिसमें कुछ समय के लिए आत्मा का वास है या फिर वह आत्मा जो कुछ समय के लिए यह शरीर धारण करता है; दोनों ही निष्कर्ष में दृष्टिकोण का अंतर है , वास्तविकता का नहीं, पर यह महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि यह जीवन में सही निर्णय के लिए सहायक होते हैं।
कब तक ऐसे ही हम मृगमरीचिका में भटकते रहेंगे, क्यों न सत्य को पहचाने, स्वयं को जाने और स्वधर्म को अपनाएं , अपनी विशिष्टता का ज्ञान ही सही अर्थों में हमारे लिए 'स्वयं' का ज्ञान होगा और उस विशिष्टता का प्रयोग श्रिष्टि के कल्याण में करना ही किसी का भी स्वधर्म ; यह महत्वपूर्ण है क्योंकि अंततः स्वधर्म ही हमारी मुक्ति का मार्ग है !"
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